जम्मू-कश्मीर में पहले चरण के मतदान में लोगों ने जिस उत्साह के साथ अपने मताधिकार का उपयोग किया, वह न केवल यह बताता है कि यह केंद्र शासित प्रदेश शांति की राह पर बढ़ रहा है, बल्कि यह भी कि यहां के लोगों में लोकतंत्र के प्रति आस्था बढ़ी है। इसका प्रमाण यह है कि शाम पांच बजे तक 58 प्रतिशत से अधिक मतदान दर्ज हो चुका था। इससे भी अधिक उल्लेखनीय यह है कि उन क्षेत्रों में भी अच्छा-खासा मतदान हुआ, जो कभी आतंक के गढ़ के रूप में जाने जाते थे।

महत्वपूर्ण केवल यह नहीं है कि लोगों ने बढ़-चढ़कर मतदान में भाग लिया, बल्कि यह भी है कि बड़ी संख्या में निर्दलीय प्रत्याशी चुनाव मैदान में उतरे। इनमें वे भी हैं, जो पहले कभी आतंकवाद और अलगाववाद के समर्थक थे तथा पाकिस्तान की भाषा बोलते थे। स्पष्ट है कि जम्मू-कश्मीर की चुनाव प्रक्रिया पाकिस्तान के नापाक इरादों पर पानी फेरने और उसे इस दुष्प्रचार से वंचित करने वाली है कि इस भारतीय भू-भाग में लोकतंत्र की अनदेखी हो रही है। वास्तव में लोकतंत्र का दमन तो उसके कब्जे वाले जम्मू-कश्मीर में हो रहा है। यह किसी से छिपा नहीं कि पाकिस्तान इस क्षेत्र के लोगों के साथ किस तरह दोयम दर्जे का व्यवहार कर रहा है।

चूंकि जम्मू-कश्मीर में दस साल बाद विधानसभा चुनाव हो रहे हैं और ये ऐसे चुनाव हैं, जो अनुच्छेद 370 और 35-ए हटने के बाद हो रहे हैं, इसलिए उन पर देश ही नहीं, दुनिया की भी नजर होना स्वाभाविक है। जम्मू-कश्मीर के विधानसभा चुनाव भारतीय लोकतंत्र की महत्ता और प्रतिष्ठा बढ़ाने के साथ यह भी रेखांकित कर रहे हैं कि अंततः घाटी की जनता को यह समझ आ गया कि लोकतांत्रिक तौर-तरीके ही उसकी समस्याओं के समाधान में सहायक होंगे, न कि आतंक और अलगाव का रास्ता।

अभी यह कहना कठिन है कि जम्मू-कश्मीर की जनता सत्ता की बागडोर किसे सौंपेगी, लेकिन भावी सरकार को इसका आभास होना चाहिए कि लोग अपनी किन समस्याओं के समाधान की आस में लोकतांत्रिक प्रक्रिया में भागीदारी कर रहे हैं। वहां की समस्याओं को लेकर केंद्र सरकार को भी सजग रहना होगा। उसे इसके प्रति भी सावधान रहना होगा कि कश्मीर में असर रखने वाले जो राजनीतिक दल लोगों से यह वादा करने में लगे हुए हैं कि अनुच्छेद 370 की वापसी हो सकती है, वे दिवास्वप्न दिखाने का ही काम कर रहे हैं। ऐसे दलों से घाटी की जनता को भी सतर्क रहने की आवश्यकता है, क्योंकि इस विभाजनकारी और भेदभावपूर्ण अनुच्छेद की वापसी अब संभव नहीं। इसीलिए कांग्रेस ने इस पर मौन रहना उचित समझा। यह सही है कि स्थितियां अनुकूल होते ही जम्मू-कश्मीर का राज्य का दर्जा बहाल होना चाहिए, लेकिन स्थितियां पूरी तौर पर सामान्य होने के बाद ही और स्थितियों के सामान्य होने की पुष्टि तब होगी, जब कश्मीरी हिंदू अपने घरों को लौट सकेंगे।