डॉ. जगदीप सिंह। गत दिवस एक देश-एक चुनाव के प्रस्ताव को केंद्रीय कैबिनेट ने मंजूरी दे दी। उम्मीद है कि इससे संबंधित बिल संसद के शीतकालीन सत्र यानी नवंबर-दिसंबर में पेश किया जाएगा। केंद्रीय मंत्री अश्विनी वैष्णव ने कहा कि पहले चरण में लोकसभा और राज्य विधानसभाओं के चुनाव साथ होंगे। इसके बाद 100 दिन के भीतर दूसरे चरण में निकाय चुनाव साथ कराए जाएंगे।

एक देश एक चुनाव का मतलब है लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराना। मोदी सरकार ने अपने पिछले कार्यकाल में इस पर विचार के लिए पूर्व राष्ट्रपति राम नाथ कोविन्द के नेतृत्व में एक उच्चस्तरीय समिति बनाई थी। उसने इस साल के आरंभ में अपनी 18,626 पेज की रिपोर्ट राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मु को सौंपी थी।

इस समिति को प्राप्त 21,558 सार्वजनिक प्रतिक्रियाओं में से 80 प्रतिशत से अधिक ने एक साथ चुनाव के विचार का समर्थन किया। 4,216 प्रतिक्रियाओं ने इसका विरोध किया। कोविन्द समिति ने सुझाव दिया है कि एक साथ चुनाव के लिए सभी राज्य विधानसभाओं का कार्यकाल अगले लोकसभा चुनाव यानी 2029 तक बढ़ाना होगा।

चुनाव में किसी दल को बहुमत नहीं मिलने और किसी सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव पास होने पर बाकी कार्यकाल के लिए नए सिरे से चुनाव कराने होंगे। चुनाव आयोग को लोकसभा, विधानसभाओं और निकाय चुनावों के लिए राज्य चुनाव अधिकारियों के परामर्श से एकल मतदाता सूची और मतदाता पहचान पत्र तैयार करना होगा। वांछित बदलावों के लिए संविधान में संशोधन की सिफारिश कोविन्द समिति ने दी है।

एक देश एक चुनाव के बारे में करीब 40 वर्ष पहले 1983 में पहली बार चुनाव आयोग ने सुझाव दिया था। 1951-52 में पहले लोकसभा चुनाव के साथ ही सभी विधानसभा चुनाव हुए थे। यह सिलसिला 1967 तक जारी रहा, लेकिन कई बार लोकसभा की अवधि कम होने, 1968 और 1969 में कई राज्यों में सरकारों को बर्खास्त किए जाने या राष्ट्रपति शासन लागू होने और नए राज्यों के गठन के साथ ही विभिन्न प्रदेशों में चुनाव का समय बदलता गया।

चौथी लोकसभा भी समय से पहले भंग कर दी गई थी, जिसकी वजह से 1971 में फिर से आम चुनाव हुए। फलस्वरूप एक साथ चुनाव होने का चक्र बाधित हो गया। इस कारण हर साल देश के किसी न किसी राज्य में विधानसभा चुनाव होते रहते हैं। केंद्र सरकार के अलावा चुनाव आयोग की पूरी मशीनरी हर साल चुनावी मोड में ही रहती है, जिससे चुनाव वाले राज्यों में प्रशासनिक अधिकारी भी जनता के पूरे काम नहीं कर पाते।

वर्तमान में हर साल करीब पांच-सात राज्यों के विधानसभा चुनाव होते हैं। 2015 में कार्मिक, सार्वजनिक शिकायत, कानून और न्याय पर संसद की स्थायी समिति ने कहा था कि देश में बार-बार चुनाव होने से सामान्य सार्वजनिक जीवन में व्यवधान होता है और जरूरी सेवाओं के कामकाज पर असर पड़ता है।

चुनाव के चलते आचार संहिता लागू कर दी जाती है, जिससे लोक कल्याण की नई योजनाएं ठप हो जाती हैं। सरकार और राजनीतिक दलों को बड़े पैमाने पर धन खर्च करना पड़ता है। इसके अलावा काफी लंबे समय तक सुरक्षा बलों की तैनाती करनी पड़ती है।

एक साथ चुनाव के विचार के आलोचकों का कहना है कि मोदी सरकार का यह कदम राजनीति से प्रेरित है। क्षेत्रीय दलों को डर है कि वे अपने स्थानीय मुद्दों को मजबूती से नहीं उठा पाएंगे, क्योंकि राष्ट्रीय मुद्दे केंद्र में आ जाएंगे। इसके अलावा वे चुनावी खर्च और चुनावी रणनीति के मामले में भी राष्ट्रीय पार्टियों से मुकाबला नहीं कर पाएंगे।

इससे मतदाताओं का व्यवहार इस रूप में प्रभावित हो सकता है कि वे राज्य के चुनाव के लिए भी राष्ट्रीय मुद्दों पर मतदान करने लगें। इससे बड़ी राष्ट्रीय पार्टियां लोकसभा और विधानसभा, दोनों चुनावों में फायदे में रहेंगी। इससे क्षेत्रीय पार्टियों के हाशिये पर चले जाने की आशंका है, जो अक्सर स्थानीय हितों का प्रतिनिधित्व करती हैं। उनका मानना है कि प्रत्येक पांच साल में एक से ज्यादा बार मतदाताओं का सामना करने से नेताओं की जवाबदेही बढ़ती है और वे सतर्क रहते हैं।

आइडीएफसी संस्थान के 2015 में किए गए एक सर्वे में बताया गया है कि अगर एक साथ चुनाव होते हैं तो 77 प्रतिशत संभावना है कि मतदाता राज्य विधानसभा और लोकसभा में एक ही दल या गठबंधन को चुनेंगे। वहीं चुनाव छह महीने के अंतर पर होते हैं, तो 61 प्रतिशत मतदाता एक पार्टी को चुनेंगे।

स्पष्ट है कि आलोचकों की आशंकाएं कोरी प्रतीत होती हैं। देश के मतदाता बहुत परिपक्व हैं। इसका परिचय उन्होंने बार-बार दिया है। कई बार ऐसा देखा गया है कि लोकसभा के साथ किसी विधानसभा के चुनाव होने पर मतदाताओं ने अलग-अलग दलों को चुना है। यह भी देखा गया है कि मतदाता केंद्र में किसी एक दल को प्रचंड बहुमत देते हैं, लेकिन कुछ ही माह बाद हुए राज्यों के चुनाव में किसी अन्य दल को सत्ता सौंपते हैं।

दुनिया में जहां भी लोकतांत्रिक शासन प्रणाली है, उनमें से अधिकांश देशों में आम चुनाव और प्रांतीय चुनाव साथ ही होते हैं, जैसे अमेरिका, ब्रिटेन, ब्राजील, कोलंबिया, फिलीपींस, दक्षिण अफ्रीका और स्वीडन आदि। अब भारत में भी एक साथ चुनाव के विचार को कानूनी रूप देने का वक्त आ गया है।

बार-बार चुनाव हमारे लोकतंत्र में एक दोष है। इसे दूर किया जाना चाहिए। एक साथ चुनाव होने से केंद्र और राज्य की नीतियों और कार्यक्रमों में निरंतरता सुनिश्चित होगी। मतदान में वृद्धि होगी, क्योंकि लोगों के लिए एक बार वोट देने निकलना ज्यादा सुविधाजनक होगा। देश को भारी भरकम चुनावी खर्च से निजात मिलने के साथ गवर्नेंस में भी सुधार आएगा। इससे न सिर्फ विकास कार्य तेजी से होंगे, बल्कि खर्च भी बचेगा।

(लेखक राजनीतिशास्त्र के प्रोफेसर हैं)