अभिषेक कुमार सिंह : न केवल भारत, बल्कि विश्व के इतिहास में 23 अगस्त, 2023 की तारीख स्वर्णिम अक्षरों के साथ दर्ज हो गई। भारतीय अंतरिक्ष एजेंसी इसरो ने चंद्रमा के दक्षिणी ध्रुव पर साफ्ट लैंडिंग करने वाले विश्व के पहले देश के रूप में भारत को प्रतिष्ठित किया। अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी-नासा के शुरुआती चंद्र अभियानों की असफलता के ढेरों आंकड़े और हाल में रूसी अंतरिक्ष एजेंसी-रासकासमास के यान लूना-25 की चंद्रमा पर क्रैश लैंडिंग जैसे मामलों को ध्यान में रखें तो कह सकते हैं कि इसरो के चंद्रयान-3 ने जो करिश्मा किया है, वह अभूतपूर्व है।

चंद्रमा के सबसे मुश्किल इलाके दक्षिणी ध्रुव पर चंद्रयान की कुशलतापूर्वक कराई गई साफ्ट लैंडिंग इसकी गवाह है कि दृढ़ इरादे, सूझबूझ और अतीत से सबक लेकर बरती गई सावधानियों के बल पर बड़े से बड़े वैज्ञानिक पराक्रम किए जा सकते हैं। चंद्रयान की इस कामयाबी ने अंतरिक्ष कार्यक्रमों में अमीर-गरीब का फर्क मिटा दिया है। अगर पैसे और ताकत ही चंद्रमा को हासिल करने का मानक होते तो रूस का यान तबाह नहीं होता।

चंद्रयान-3 की चंद्रमा के दक्षिणी ध्रुव पर साफ्ट लैंडिंग ऐतिहासिक उपलब्धि है, लेकिन इसके पीछे जिस तैयारी, सीख और धैर्य की भूमिका रही है-उसे कहीं ज्यादा बड़ा दर्जा देना होगा। इसरो का पिछला चंद्रयान-2 कुछ अंशों में नाकाम प्रोजेक्ट था। सितंबर, 2019 में उसकी क्रैश लैंडिंग ने हर भारतवासी के दिल में एक कचोट पैदा की थी। हमारे विज्ञानी चंद्रयान-2 की नाकामी में भी एक सबक देख रहे थे।

यह एक सच्चाई है कि चंद्रयान-2 की असफलता ने भावी अंतरिक्ष कार्यक्रमों को लेकर हमारे विज्ञानियों के समक्ष सवाल खड़े कर दिए थे। अंतरराष्ट्रीय पटल पर आलोचकों को यह कहने का मौका मिल गया था कि अंतरिक्ष में अमेरिका-रूस-चीन की बराबरी का कोई अभियान छेड़ने से पहले भारत को गरीबी-बेरोजगारी जैसी दुश्वारियों का कोई तोड़ निकालना चाहिए। ऐसे में चंद्रयान-3 को चांद पर उतारकर इसरो ने उन सभी आलोचकों को एक झटके में जवाब दे दिया है जो भारत को अंतरिक्ष के मोर्चे पर उक्त तीन देशों से कमतर मानते रहे हैं।

रूस ने भारी-भरकम खर्च के बल पर लूना-25 के जरिये चंद्रमा के दक्षिणी ध्रुव पर अपना झंडा गाड़ने की जो जल्दबाजी की, उसके हश्र ने साबित कर दिया कि अंतरिक्ष के मामले में फूंक-फूंककर कदम रखने और धीरज के साथ काम करने की कितनी अहमियत होती है। जो काम रूस ताकतवर राकेट की मदद से आनन-फानन करना चाहता था, वही काम इसरो ने एक महीने से कुछ अधिक दिन में करने की किफायती योजना बनाई तो इस सूझबूझ का आज हर कोई कायल होगा।

अंतरिक्ष कार्यक्रमों को लेकर भारत के लक्ष्य दूरगामी हैं। भारत गगनयान के जरिये इंसानों की सैर का उपक्रम कर सकता है, पर इसके अलावा उसका उद्देश्य अंतरिक्ष बाजार का बड़ा खिलाड़ी बनना, सुदूर अंतरिक्ष अन्वेषण योजनाओं को अमली जामा पहनाना और यदि संभव हुआ तो चंद्रमा के रहस्यों की गहरी थाह लेते हुए इस उपग्रह को लंबी यात्राओं के पड़ाव के रूप में इस्तेमाल करना हो सकता है। चंद्रमा के व्यावसायिक दोहन की भी कोई सूरत बन सकती है, लेकिन अभी यह काम दूर की कौड़ी है।

अपने अन्वेषण के आधार पर सितंबर 2009 में जब चंद्रयान-1 ने चंद्रमा पर पानी होने के सुबूत दिए तो दुनिया में हलचल मच गई। चंद्रयान-1 से चंद्रमा के दक्षिणी ध्रुव पर पहुंचाए गए उपकरण मून इंपैक्ट प्रोब ने चांद की सतह पर पानी को चट्टान और धूलकणों में भाप के रूप में उपलब्ध पाया था। चंद्रमा की ये चट्टानें दस लाख वर्ष से भी ज्यादा पुरानी बताई जाती हैं।

इसी तरह का एक अन्य उपकरण 2019 में भेजे गए चंद्रयान-2 के रोवर ‘प्रज्ञान’ के साथ भी चांद पर भेजा गया था। इस रोवर का मकसद दक्षिणी ध्रुव पर उतरने के बाद वहां की सतह में पानी और खनिजों की खोज करना था, लेकिन चंद्रयान-2 मिशन पूरी तरह सफल नहीं हो पाया। चंद्रयान-3 अभियान यह साबित कर रहा है कि उस असफलता से भारत के हौसले पस्त नहीं हुए। इसरो का ताजा मिशन चंद्रयान-2 के अधूरे कार्यों को पूरा करेगा और चंद्रमा संबंधी उन अनुसंधानों और योजनाओं को गति देगा, जिन्हें लेकर पृथ्वी का सबसे नजदीकी खगोलीय पिंड विश्व बिरादरी के आकर्षण का केंद्र बना हुआ है।

यह जिज्ञासा बढ़ना स्वाभाविक है कि बीते पांच दशकों में ऐसा क्या हुआ है जो चंद्रमा पर दुनिया का फोकस बढ़ गया है। इसकी कई वजह हैं। जैसे, नासा के अपोलो अभियानों के समय (1969-1972 की अवधि में) लगता था कि चंद्रमा की सतह बिल्कुल सूखी है, लेकिन चंद्रयान-1 और अन्य अभियानों से पता चला कि चंद्रमा के दक्षिणी ध्रुव पर भारी मात्रा में बर्फ और भाप के रूप में पानी मौजूद है। साथ ही, मंगल ग्रह और सुदूर अंतरिक्ष की यात्राओं के पड़ाव और इंसानी बस्तियां बसाने के लिहाज से भी चंद्रमा सर्वाधिक संभावना वाला क्षेत्र है।

अगर इंसानी बस्तियां नहीं बस सकीं तो भी चंद्रमा पर ऐसे उपकरण लगाए जा सकते हैं जो सुदूर अंतरिक्ष की टोह लेने में मदद कर सकते हैं। वहां मौजूद पानी को विघटित करके उससे मिलने वाली हाइड्रोजन का इस्तेमाल अन्य ग्रहों को जाने वाले राकेटों के ईंधन के रूप में किया जा सकता है। चंद्रमा के ध्रुवीय इलाकों में स्थित विशाल गड्ढों के किनारों पर सूर्य लगातार चमकता है। इस तरह पानी और सूरज की रोशनी का संयोजन उस क्षेत्र में सौर पैनलों से बिजली पैदा करने और पीने का पानी तैयार करने, आक्सीजन का निर्माण करने और राकेट ईंधन बनाने के लिए सबसे उपयुक्त है।

पृथ्वी से प्रक्षेपित किए जाने जाने वाले राकेटों की अधिकतम ऊर्जा अपने ग्रह के वायुमंडल और गुरुत्वाकर्षण से बाहर निकलने में ही खर्च हो जाती है। यदि चंद्रमा के रीफ्यूलिंग स्टेशन अंतरिक्ष यानों के राकेटों को सौरमंडल के ही दूसरे ग्रहों तक पहुंचाने लायक ईंधन दे सकें तो इससे अंतरिक्ष अन्वेषण में नई क्रांति आ सकती है। चंद्रमा में विश्व की दिलचस्पी बढ़ने पर एक अमेरिकी अखबार ने उचित ही कहा है कि इस समय चंद्रमा सौर मंडल का सबसे चर्चित रियल एस्टेट है, जहां पहुंचने की ख्वाहिश दुनिया के कई देशों की है।

(एफएसआइ ग्लोबल से संबद्ध लेखक विज्ञान एवं तकनीक मामलों के जानकार हैं)