पेड़ों पर विज्ञापन, बैनर या लाइट लगाई तो होगी जेल, देना होगा 5 हजार रुपये जुर्माना!
पेड़ों को बचाने के लिए जो मुहिम महाराष्ट्र और तमिलनाडु ने शुरू की है वह वास्तव में तारीफ के काबिल है।
रेणु जैन। प्रदूषण की मार झेलते शहरों के लिए पेड़ों की कमी भी जिम्मेदार है। हालांकि बढ़ते प्रदूषण के कई कारण पाए गए हैं, लेकिन पेड़ों की संख्या का भारत के बड़े शहरों में कम होते जाना निश्चित रूप से एक बड़ी वजह के रूप में सामने आ रही है। ऐसे में पेड़ों को बचाने के लिए इन दिनों देश के कई हिस्सों में एक नई पहल की गई है, जिसे पेड़ों पर टंगे विज्ञापनों और पेड़ों पर ठोकी जाने वाली कीलों से जोड़कर देखा जा सकता है। यह अभियान मुख्य रूप से तमिलनाडु और महाराष्ट्र में चल रहा है। चेन्नई में यह नियम बनाया गया है कि पेड़ों पर कीलें, विज्ञापन, बैनर तथा लाइट आदि लगाने पर तीन वर्ष की जेल तथा 25 हजार रुपये जुर्माना भरना पड़ सकता है।
उधर मुंबई में पेशे से इंजीनियर एक नौजवान द्वारा छेड़े गए पेड़ों से कीलें निकालने का अभियान इतना सफल हो रहा है कि वहां विभिन्न तबकों के लोग विभिन्न पेड़ों से कई हजार कीलें निकाल चुके हैं। पुणो के पास स्थित पिपरी-चिंचवाड के निगम आयुक्त ने संबंधित विभागों को एक प्रस्ताव भेजा है कि यदि वृक्षों पर कीलें लगी पाई गईं तो संबंधित लोगों को तीन माह कैद व पांच हजार रुपये का जुर्माना लगाया जाना चाहिए।
पर्यावरणविदों का कहना है कि पेड़ों पर कीलें ठोकने और उन पर लाइट लगाने से उन्हें कई तरह के रोग हो जाते हैं। पर्याप्त पोषण नहीं मिलने से शाखाएं नहीं बढ़ पाती हैं। कीलें ठोकने वाले स्थान पर छाल गिरने लगती है जिससे पेड़ बीमार होने लगते हैं। पेड़ों के बढ़ने की गति भी कम हो जाती है। ऐसे पेड़ बाहर से भले हरे-भरे दिखें, लेकिन अंदर-ही-अंदर खोखले होते जाते हैं। पेड़ों पर लगी लाइटों से उनकी फोटोसिंथेसिस प्रक्रिया में बदलाव आने लगता है। पेड़ों पर पक्षियों के घोसले होते हैं। ज्यादा प्रकाश के कारण उन्हें दिन-रात की समझ नहीं रहती जिससे उनका जीवन चक्र भी प्रभावित होता है। कई बार देखने में आता है कि एक पेड़ पर कई छोटे-बड़े बोर्ड टंगे रहते हैं जिसमें कई कीलों का इस्तेमाल होता है। ऐसे पेड़ अक्सर सूखते चले जाते हैं।
कम होते पेड़ों के बारे में ‘नेचर’ जर्नल की एक रिपोर्ट चिंतनीय है कि जब से मानव सभ्यता की शुरुआत हुई, तब से मौजूद पेड़ों की संख्या में अब तक 46 फीसद की कमी आ चुकी है। दुनिया भर में हर वर्ष 10 अरब पेड़ काटे जा रहे हैं। चिंता की बात यह भी है कि हर सेकेंड में एक फुटबॉल के मैदान जितना जंगल काटा जा रहा है। यदि दुनिया में जंगलों के खात्मे की गति यही रही तो इस सदी के आखिर तक समूची दुनिया से जंगलों का सफाया हो सकता है।
इस रिपोर्ट की मानें तो दुनिया भर में एक व्यक्ति के लिए 422 पेड़ मौजूद हैं। पेड़ों की संख्या के मामले में रूस सबसे आगे है। कनाडा दूसरे स्थान पर है, और तीसरे स्थान पर ब्राजील है। इसके बाद अमेरिका का स्थान है। भारत इस मामले में बहुत पीछे है।
माना जाता है कि पेड़ों की कतार धूल मिट्टी को 75 फीसद तक कम कर देती है और 50 फीसद तक शोर को कम कर देती है। जो इलाका पेड़ों से घिरा होता है वह दूसरे इलाकों की तुलना में नौ डिग्री अधिक ठंडा रहता है तथा वहां का एक पेड़ इतनी ठंडक पैदा करता है जितना एक एसी दस कमरों में 20 घंटों तक चलने पर करता है।
कम होते पेड़ों की वजह से कई और दुष्प्रभाव होते सामने आए हैं जिसमें प्राकृतिक बाधाएं भी शामिल हैं। वनों के विनाश के कारण वन्यजीव खत्म हो रहे हैं, वहीं पेड़ों की कई प्रजातियां भी लुप्त होने की ओर हैं। वनों की कटाई का प्राकृतिक जलवायु पर सीधा प्रभाव पड़ता है, जिससे वैश्विक तापमान में वृद्धि होती है।
बारिश भी अनियमित हो जाती है। इससे ‘ग्लोबल वार्मिग’ को बल मिलता है। रेगिस्तान फैल रहा है। नदियों का पानी उथला तथा प्रदूषित हो रहा है, क्योंकि उनके किनारों व पहाड़ों पर पेड़ों की अंधाधुंध कटाई हो रही है। जंगल के लिए आदिवासियों का अस्तित्व आवश्यक है। जंगल का उपयोग कैसे करना है आदिवासियों को इसकी पूरी जानकारी रहती है, क्योंकि वनसंरक्षण के प्रति उनके मन में गहरा सम्मान होता है। पौधरोपण की कमी के कारण इस अनमोल प्राकृतिक संपत्ति का तेजी से क्षरण हो रहा है जो जीवन और पर्यावरण के संतुलन को खराब कर रहा है।
वैसे भारत में कुछ ही दशक पहले ‘चिपको आंदोलन’ काफी चर्चित हुआ था जिसके अगुवा सुंदरलाल बहुगुणा थे। दरअसल यह आंदोलन इसलिए प्रारंभ किया गया था कि भारत के उत्तरी क्षेत्रों में सरकार ने पेड़ों की अंधाधुंध कटाई प्रारंभ कर दी थी। सुंदरलाल बहुगुणा ने सैकड़ों की संख्या में इस आंदोलन को काफी सफलता मिली थी। आज हमें देश भर में न केवल पेड़ों को बचाना है, बल्कि करोड़ों की संख्या में नए पेड़ लगाने पर ध्यान देना होगा।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)
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