विकास सारस्वत। बांग्लादेश में शेख हसीना के तख्तापलट में अमेरिकी हाथ होने की आशंका तब और गहरा गई, जब हिलेरी क्लिंटन के करीबी मोहम्म्द यूनुस को अंतरिम सरकार का प्रमुख चुना गया। शेख हसीना के अनुसार उन्हें सेंट मार्टिन द्वीप पर अमेरिकी सैन्य अड्डे को मंजूरी न देने की कीमत चुकानी पड़ी। सच जो भी हो, अमेरिका द्वारा दूसरे देशों में सत्ता बदलने के प्रयास नई बात नहीं हैं।

राबर्ट जर्विस के शब्दों में अंतरराष्ट्रीय हस्तक्षेप उतना ही अमेरिकी है, जितना एप्पल पाई। अपनी पुस्तक ओवरथ्रो में अमेरिकी लेखक स्टीफन किंजर ने सौ सालों के अमेरिकी सत्ता परिवर्तन प्रयासों को तीन चरणों में बांटा है। पहले चरण में साम्राज्यवादी विस्तार कर निकारागुआ, हवाई, क्यूबा, प्यूर्टो रिको और फिलिपिंस को अपने साम्राज्य में मिलाया गया।

दूसरे चरण में शीतयुद्ध के अंतर्गत चिली, दक्षिणी वियतनाम, ईरान और ग्वाटेमाला में खुफिया कार्रवाई कर तख्तापलट के प्रयास हुए और तीसरे चरण में सीधे आक्रमणों के जरिये पनामा, अफगानिस्तान, इराक, लीबिया आदि में सत्ता बदली गई। चर्चित पुस्तक "कोवर्ट रिजीम चेंज" में लिंड्सी ओ रूर्क ने शीतयुद्ध के दौरान ऐसे ही 64 सफल-असफल खुफिया प्रयासों की चर्चा की है।

ये प्रयास कितने तुच्छ कारणों पर आधारित रहे, इसकी बानगी कैनेडी कार्यकाल के एक प्रसंग से मिलती है। ब्रिटिश गुयाना की स्वतंत्रता के तुरंत बाद पहले राष्ट्राध्यक्ष बने छेदी भरत जगन द्वारा व्हाइट हाउस में कैनेडी और उनके सहायक आर्थर श्लैज़ेंजर जूनियर से वार्ता के अंत में एक मार्क्सवादी पत्रिका में छपे लेख का उल्लेख मात्र उनके सत्ता से हटने का कारण बना।

जगन के खिलाफ हिंसक आंदोलन खड़ा किया गया और उन्हें सत्ता छोड़नी पड़ी। स्वयं श्लैज़ेंजर ने 30 वर्ष बाद दोबारा बतौर राष्ट्राध्यक्ष अमेरिका आए जगन से इस सत्ता परिवर्तन का सूत्रपात करने के लिए माफी मांगी। इराक में 'वीपंस आफ मास डिस्ट्रक्शन' के बहाने की गई सैन्य कार्रवाई पर हुई छीछालेदर के बाद इन प्रयासों के स्वरूप में बदलाव आया है।

अब आर्थिक प्रतिबंध, सांस्कृतिक क्षेत्रों में घुसपैठ, चुनावी हस्तक्षेप और उग्र प्रदर्शनों का सहारा लिया जा रहा है। इन सभी हथकंडों को स्वयं राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार जान बोल्टन ने स्वीकारा था। लिंड्सी का कहना है कि इस कवायद में लक्षित देशों के विपक्षी नेताओं को भरोसा दिलाया जाता है कि उग्र प्रदर्शनों के बल पर सत्ता परिवर्तन संभव है।

कहने को अमेरिका मुनरो डाक्ट्रिन का हवाला देकर लोकतंत्र की रक्षा करने की बात करता है, पर उसने चुनी हुई सरकारों को कई बार गिरवाया है। 1953 में ईरान की लोकतांत्रिक मोसादेघ सरकार को तेल सौदा फेल होने पर गिराया गया। चिली में लोकप्रिय नेता साल्वाडोर अल्यांदे का खूनी तख्तापलट कर क्रूर जनरल पिनोशे को लंबे समय सत्ता में बैठाए रखा गया।

अमेरिकी पोर्टल इंटरसेप्ट ने हाल में गोपनीय दस्तावेज छापकर बताया कि पाकिस्तान में इमरान खान को इसलिए सत्ता गंवानी पड़ी, क्योंकि वह रूस और अमेरिका के बीच तटस्थ रवैया अपनाए थे। भारतीय प्रधानमंत्री मोदी से भी अमेरिका इसी वजह से खासा नाराज है। अमेरिका सत्ता परिवर्तन जैसी कार्रवाई इसलिए कर पाता है, क्योंकि उसने सभी देशों में पिछलग्गुओं की फौज बना रखी है।

स्थिति यह है कि कई बार तख्तापलट के इच्छुक पक्ष सीधे जाकर अमेरिकी राजनयिकों से संपर्क कर लेते हैं। 1951 में ग्वाटेमाला के राष्ट्रपति कर्नल अर्बेंज़ द्वारा भूमि पुनर्वितरण लागू करने से केला व्यापार में लिप्त अमेरिकी कोर्पोरेशन यूनाइटेड फ्रूट कंपनी पर गहरा प्रभाव पड़ा और कंपनी तख्ता पलटने के लिए सीधे ग्वाटेमाला स्थित अमेरिकी दूतावास पहुंच गई। बनाना रिपब्लिक के रूप में लैटिन अमेरिकी देशों की कुख्याति ऐसी कार्रवाईयों से ही हुई।

बांग्लादेश का छात्र आंदोलन हो या यूक्रेन की मैदान क्रांति, सत्ता परिवर्तन का अमेरिकी प्रारूप एक समान है। इन प्रयासों में अमेरिका पोषित एनजीओ, अप्रवासी बुद्धिजीवी और विपक्षी दलों का सहारा लिया जाता है। बांग्लादेश की अंतरिम सरकार में मोहम्मद यूनुस के अलावा दूसरे महत्वपूर्ण व्यक्ति सलाहुद्दीन अहमद भी यूनुस की तरह फुल्ब्राइट स्कालर हैं और अमेरिका पोषित एनजीओ चलाते हैं।

जो पैंतरे अमेरिका ने बांग्लादेश या यूक्रेन में चले, वही वह भारत में भी चल रहा है। बांग्लादेशी पत्रकार सलाहुद्दीन शोएब चौधरी का आरोप है कि राहुल गांधी ने विगत माह विपक्षी दल बांग्लादेश नेशनल पार्टी की नेता बेगम खालिदा जिया के पुत्र तारिक रहमान से लंदन में मुलाकात की थी। जब भी अमेरिका को चुनी हुई सरकारों का तख्तापलट करना होता है, वह लोकतंत्र, मानवाधिकार और अल्पसंख्यक हितों का शोर मचाना शुरू कर देता है।

क्या यह महज दुर्योग है कि राहुल गांधी न सिर्फ अमेरिका जाकर लोकतंत्र और अल्पसंख्यकों के खतरे में होने की बात करते हैं, बल्कि पश्चिमी हस्तक्षेप की मांग भी करते हैं? क्या यह भी दुर्योग है कि जैसे यूक्रेन में मैदान क्रांति में यानुकोविच को धनकुबेरों की कठपुतली बनाकर माहौल गर्माया गया, वैसे हिंडनबर्ग जैसी संस्थाओं की मदद से राहुल गांधी अदाणी और अंबानी को निशाना बना रहे हैं?

इन प्रयासों में संस्थाओं और व्यक्तियों की भूमिका भी एक समान है। बांग्लादेश की अंतरिम सरकार के सदस्य तौहीद अहमद ने जैसे विरोध भड़काने का काम किया, ठीक वैसा ही प्रोपेगेंडा अमेरिकी दूतावास ने हाल में एक भारतीय यूट्यूबर के नेतृत्व में आयोजित किया। विख्यात अर्थशास्त्री जैफरी सैख्स कहते हैं कि दुष्प्रचार के खिलाफ अभियान या 'कैंपेन अगेंस्ट डिसइन्फार्मेशन' अमेरिका द्वारा फेक न्यूज फैलाने का प्रयोजन होते हैं।

चुनाव प्रक्रिया के प्रति अविश्वास पैदा करने के जो प्रयास ओमिदयार नेटवर्क, फोर्ड फाउंडेशन और सोरोस पोषित संस्थाओं ने भारत में किए, वही बांग्लादेश में अमेरिका पोषित संस्था ब्रोती ने किया। इसी कारण ब्रोती की सीईओ शर्मीन मोर्शीद को भी अंतरिम सरकार में जगह मिली। बांग्लादेश में अमेरिकी हस्तक्षेप इस कदर था कि अमेरिकी राजदूत पीटर हास चुनाव आयुक्त से स्वयं मिलकर आयोग के कर्मियों को अमरीकी वीजा प्रतिबंध करने की धमकी दे रहे थे।

भारतीय चुनावों में हस्तक्षेप के लिए कुछ विदेशी पत्रकारों को अथाह पैसा दिया गया। जाति जनगणना उनके ही दिमाग की उपज थी। कांग्रेस के दो नेता सज्जन सिंह वर्मा और सलमान खुर्शीद बांग्लादेश की पुनरावृत्ति भारत में करने की धमकी दे चुके हैं। यद्यपि भारत में तख्तापलट की आशा दुस्साहस से अधिक कुछ नहीं है, तब भी अमेरिकी उपनिवेशवाद का दुमछल्ला बनने की ललक या तख्तापलट के सपने देखना कांग्रेस के माथे पर कलंक है। कांग्रेस नेतृत्व की सोच यह भी बताती है कि उसके लिए भारत भी एक बनाना रिपब्लिक ही है।

(लेखक इंडिक अकादमी के सदस्य एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं)