जागरण संपादकीय: विश्वगुरु बनने का मूल मंत्र, भारत के पास दुनिया को देने के लिए बहुत कुछ
अनेक यूरोपीय विद्वान भी भारत को दार्शनिक जगत का नेतृत्वकर्ता मानते हैं। इसीलिए भारत को विश्वगुरु कहा जाता है। शिक्षा में श्रेष्ठता हासिल कर ही विश्वगुरु बना जा सकता है। कुछ वामपंथी और लिबरल तत्व विश्वगुरु नाम से चिढ़ते हैं। विश्वगुरु सामान्य धारणा नहीं है। यह राजनीतिक विचार भी नहीं है। भारत के पास दुनिया को देने के लिए बहुत कुछ है।
हृदयनारायण दीक्षित। भारत में जल्द ही पहला विदेशी विश्वविद्यालय खुलने जा रहा है। विश्वविद्यालय अनुदान आयोग यानी यूजीसी ने ब्रिटेन के साउथैम्पटन विश्वविद्यालय को भारत में कैंपस खोलने की अनुमति दी है। यह परिसर राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र गुरुग्राम में स्थापित किया जाएगा। ताजा क्यूएस रैंकिंग विश्व में साउथैम्पटन विश्वविद्यालय 81वें स्थान पर है।
भारत में उसके प्रवेश के साथ स्वाभाविक रूप से प्रश्न उठता है कि एक ब्रिटिश विश्वविद्यालय का लक्ष्य क्या है? उसकी शाखा के कामकाज और शोध आदि की गुणवत्ता पर तभी कुछ कहा जा सकता है, जब उसके परिसर द्वारा कुछ ठोस काम किया जाएगा। भारत में ज्ञान विज्ञान की प्रतिष्ठित और ऐतिहासिक ज्ञान परंपरा है। यहां की ज्ञान परंपरा और अनुसंधान विश्व प्रतिष्ठ रहे हैं।
तक्षशिला, विक्रमशिला तथा नालंदा विश्व का आकर्षण रहे हैं। विदेशी आक्रमणकारियों ने कई विश्वविद्यालयों को नष्ट कर दिया था। नालंदा में बख्तियार खिलजी ने आग लगवाई थी। तक्षशिला विश्वविद्यालय दुनिया का सबसे बड़ा शिक्षण केंद्र कहा जाता है। विश्व के पहले ‘अर्थशास्त्र’ के रचनाकार कौटिल्य तक्षशिला के आचार्य थे। विश्व के पहले व्याकरणकर्ता पाणिनि का क्षेत्र भी यही है। दर्शन, विज्ञान और शिक्षा क्षेत्र के सभी अनुशासन भारत में प्रतिष्ठित थे। सभी विषयों की उच्च शिक्षा दी जाती थी।
दूसरी ओर, यूरोप की शिक्षा व्यवस्था 19वीं शताब्दी तक किसी न किसी रूप में चर्च और निजी घरानों के अधीन थी। इंग्लैंड में पहली बार 1833 में प्राइमरी शिक्षा के लिए राजकोष से धन का प्रबंध हुआ। फ्रांस में राज्य क्रांति के बाद शिक्षा की ओर राजव्यवस्था का ध्यान गया। यूरोप की राजव्यवस्था में राजकोष से शिक्षण कार्यों के लिए धन देने की परंपरा नहीं थी।
यूरोप में शिक्षा के राजपोषण का काम सबसे पहले जर्मनी में शुरू हुआ। भारत में शिक्षा व्यवस्था के सभी कार्यों में राज और समाज एक साथ सक्रिय थे। चीनी यात्री ह्वेनसांग के अनुसार नालंदा के लिए करीब 500 व्यापारियों ने 10 कोटि स्वर्ण मुद्राएं देकर जमीन खरीदी थी। राजपरिवारों ने भी विश्वविद्यालय की सहायता की थी। एक अन्य चीनी यात्री फाह्यान पांचवीं शताब्दी में भारत आया था।
उसके विवरण में भी समाज द्वारा शिक्षा तंत्र को आर्थिक सहायता देने के उल्लेख हैं। ‘पृथ्वीराज विजय’ ‘कथासरित्सागर’ आदि प्राचीन ग्रंथों के अनुसार शिक्षा व्यवस्था के लिए सरकारी सहायता दी जाती थी। संपन्न नागरिकों द्वारा भी आर्थिक सहायता के उल्लेख हैं। अशोक, कनिष्क, चंद्रगुप्त द्वितीय, हर्ष, धर्मपाल और भोज आदि राजा शिक्षा व्यवस्था को मजबूत बनाने के लिए विख्यात हैं।
प्राचीन भारत में शिक्षा पवित्र कर्तव्य था। आचार्य, विद्यार्थी, अभिभावक और राजव्यवस्था शिक्षा को पवित्र कार्य मानते थे, फिर भी कुछेक विद्वान भारत में शिक्षा के विकास का श्रेय अंग्रेजी राज को देते हैं। ऐसे विद्वानों के अनुसार भारत को राष्ट्र बनाने का काम भी अंग्रेजी राज ने किया। तथ्य यह है कि तब भारत में ज्ञान और दर्शन की धूम थी। सर थामस मुनरो ने 1822 में भारतीय शिक्षा पर सर्वेक्षण के आदेश दिए।
आदेश के साथ जिलाधिकारियों को एक प्रपत्र भी भेजा गया था। प्रपत्र के माध्यम से विद्यालयों में पढ़ाई जाने वाली पुस्तकों के नाम, अध्यापन का समय, वार्षिक या मासिक शुल्क के विवरण और विद्यार्थियों को मिलने वाली आर्थिक सहायता के स्रोतों की जानकारी मंगाई गई। एक महत्वपूर्ण प्रश्न था कि क्या विद्यालयों में धर्मशास्त्र, कानून और ज्योतिष जैसे विषय भी पढ़ाए जाते हैं?
इस सर्वेक्षण के नतीजे अंग्रेजों के लिए चौंकाने वाले थे। सर्वेक्षण का काम बांबे प्रेसिडेंसी में 1830 तक और मद्रास प्रेसिडेंसी में 1826 तक हुआ। बंगाल और पंजाब में भी सर्वे हुआ। मद्रास प्रेसिडेंसी के 21 जिलों के सर्वेक्षण में 1094 शिक्षण संस्थाएं कालेज जैसी थीं। वेद, विधिशास्त्र, दर्शन, तर्कशास्त्र और ज्योतिष अध्ययन के भी आंकड़े उत्साहवर्धक थे।
सभी वर्गों, जातियों, उपजातियों के हजारों छात्र अध्ययन में संलग्न थे। इसी दौरान ईसाई मिशनरी विलियम एडम का बंगाल सर्वेक्षण ‘ए रिपोर्ट आन द स्टेट आफ एजुकेशन‘ चर्चा का विषय बना। विलियम एडम के अनुसार बंगाल और बिहार के प्रत्येक गांव में कम से कम एक स्कूल था। लाखों की संख्या वाले स्कूल भारत में अंग्रेजी राज ने नहीं चलाए।
हमारी प्राचीन शिक्षा व्यवस्था राजपोषित तो थी, लेकिन राज नियंत्रित नहीं थी। यूरोप की शिक्षा व्यवस्था संगठित चर्च के नियंत्रण में थी। भारत में शिक्षा का लक्ष्य ध्येयसेवी आदर्श मनुष्य का निर्माण था। अध्यापकों और आचार्यों के प्रति समाज में आदर भाव था। तेज रफ्तार समाज में संस्कृति और परंपरा से प्रतिबद्ध समाज गठन का काम आसान नहीं था। दर्शन और गणित में अग्रणी भारतवासियों ने ऋग्वेद, उपनिषद दर्शन आदि विषयों को लेकर विदेश यात्राएं कीं।
राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में प्रस्तावित ब्रिटिश यूनिवर्सिटी का सम्मान है, लेकिन भारत के लोगों की अभिलाषा भिन्न है। हम भारत के लोग उस दिन का इंतजार कर रहे हैं, जब भारत का भी कोई विश्वविद्यालय दुनिया के सभी देशों के लिए प्रेय होगा और उसके परिसर अन्य देशों में स्थापित होंगे। इस दिशा में आइआइटी ने कदम बढ़ा दिए हैं। भारतीय तकनीकी संस्थान के परिसर तंजानिया, संयुक्त अरब अमीरात और श्रीलंका में खुलने जा रहे हैं।
यही काम हमारे विश्वविद्यालयों को करना होगा, लेकिन यह तभी संभव हो पाएगा, जब वे विश्व पटल पर आइआइटी जैसी प्रतिष्ठा प्राप्त कर सकेंगे। भारत के पास अमूल्य ज्ञान परंपरा है। कुछ लोग राजनीतिक कारणों से ज्ञान परंपरा पर हमलावर रहते हैं। भारतीय ज्ञान और दर्शन का प्रभाव यूरोप सहित सारी दुनिया में पड़ा। जर्मन विद्वान मैक्समूलर ने ‘व्हाट इंडिया कैन टीच अस’ में भारत का स्तुतिगान किया है।
ऐसे अनेक यूरोपीय विद्वान भी भारत को दार्शनिक जगत का नेतृत्वकर्ता मानते हैं। इसीलिए भारत को विश्वगुरु कहा जाता है। शिक्षा में श्रेष्ठता हासिल कर ही विश्वगुरु बना जा सकता है। कुछ वामपंथी और लिबरल तत्व विश्वगुरु नाम से चिढ़ते हैं। विश्वगुरु सामान्य धारणा नहीं है। यह राजनीतिक विचार भी नहीं है। यह सारी दुनिया को एक परिवार जानने की अनुभूति है। भारत के पास दुनिया को देने के लिए बहुत कुछ है।
(लेखक उत्तर प्रदेश विधानसभा के पूर्व अध्यक्ष हैं)