दोहरे रवैये का परिचय देता अमेरिका, क्या भारत को अपनी अमेरिकी नीति को लेकर पुनर्विचार की है जरूरत?
अमेरिका और उसके पश्चिमी मित्र देशों को यह अनुमान था कि नई दिल्ली में जी-20 शिखर सम्मेलन भव्य और ऐतिहासिक होने जा रहा है। ऐसा ही हुआ और प्रधानमंत्री मोदी के नेतृत्व में भारत साझा सहमति वाला बयान भी जारी कराने में सफल रहा जिसमें यूक्रेन मुद्दे को कोई विशेष महत्व न देते हुए प्रस्ताव के आखिरी बिंदुओं में रूस का नाम भी नहीं लिया गया।
दिव्य कुमार सोती : वामपंथी झुकाव वाले कनाडा के प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो द्वारा भारत पर खालिस्तानी आतंकवादी हरदीप सिंह निज्जर की हत्या का आरोप लगाए जाने के समय यही समझा गया कि ट्रूडो ऐसा अपनी खराब होती राजनीतिक स्थिति को संभालने के लिए कर रहे हैं। तमाम सर्वेक्षणों की मानें तो कनाडाई जनता में उनकी लोकप्रियता लगातार घट रही है। चूंकि उनकी सरकार खालिस्तानी तत्वों के वर्चस्व वाली एनडीपी पर निर्भर है तो इस लिहाज से भी यह स्वाभाविक लगा।
हालांकि जल्द ही यह स्पष्ट हो गया कि केवल यही पहलू ट्रूडो के बेतुके आरोपों का एकमात्र कारण नहीं है। दरअसल ट्रूडो पश्चिमी राजनीति के उसी वामपंथी उदारवादी खेमे से आते हैं, जिससे अमेरिका में शासन कर रही डेमोक्रेटिक पार्टी और राष्ट्रपति बाइडन आते हैं। ट्रूडो ने भारत पर आरोप लगाते हुए ‘फाइव आइज’ गुट के देशों में से एक के साथ भी निज्जर की हत्या को लेकर खुफिया जानकारी साझा करने की बात कही। ऐसे में भारत में कयास लगाए जाने लगे कि पता नहीं यह कौन सा देश होगा?
इस बीच अमेरिकी मीडिया में ऐसी रिपोर्ट आने लगीं कि ट्रूडो ने जी-20 सम्मेलन से पहले ही अमेरिका और दूसरे फाइव आइज देशों से भारत के विरुद्ध एक साझा बयान जारी करने को कहा था, लेकिन बाइडन प्रशासन ने भारत से संबंध बिगड़ने के डर से ऐसा करने से मना कर दिया। एक अमेरिकी अखबार की इस संबंध में आई रपट पर अमेरिकी राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद की आधिकारिक प्रवक्ता इतनी व्यग्र हो गईं कि उन्होंने कनाडा के आरोपों को चिंताजनक बताया। फिर अमेरिकी राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार जैक सुलिवन ने कहा कि चाहे वह कोई भी देश हो, किसी को भी ऐसी कार्रवाई की छूट नहीं है। उनका इशारा भारत की ओर था।
अमेरिकी विदेश मंत्री ब्लिंकन ने भी कहा कि यदि कनाडा के आरोप सही हैं तो निज्जर की हत्या ‘अंतरराष्ट्रीय दमन’ की श्रेणी में आएगी। इसका अर्थ हुआ कि अमेरिका खालिस्तानी तत्वों को आतंकी नहीं, बल्कि अधिकारों के लिए लड़े रहे राजनीतिक-मानवाधिकार कार्यकर्ताओं की तरह देखता है, जिनका ‘दमन’ किया जा रहा है। इस हिसाब से तो अमेरिका द्वारा लादेन, जवाहिरी, बगदादी और ईरानी जनरल सुलेमानी की दूसरे देशों में हत्या भी दमन की श्रेणी में आनी चाहिए।
कनाडा में अमेरिका के राजदूत ने भी कहा कि ट्रूडो के आरोप साझा की गई खुफिया जानकारी पर आधारित हैं। यानी अमेरिका ट्रूडो के आरोपों से सहमत है। बहरहाल अमेरिकी नेताओं-अधिकारियों ने यह रहस्य तो सुलझा ही दिया कि ‘फाइव आइज’ देशों में वह कौन है, जिसके इशारे पर ट्रूडो ने भारत के विरुद्ध मोर्चा खोला। ‘फाइव आइज’ समूह में अमेरिका, कनाडा, आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड और ब्रिटेन शामिल हैं। ये देश खुफिया जानकारी साझा करते हैं।
अमेरिका और उसके पश्चिमी मित्र देशों को यह अनुमान था कि नई दिल्ली में जी-20 शिखर सम्मेलन भव्य और ऐतिहासिक होने जा रहा है। ऐसा ही हुआ और प्रधानमंत्री मोदी के नेतृत्व में भारत साझा सहमति वाला बयान भी जारी कराने में सफल रहा, जिसमें यूक्रेन मुद्दे को कोई विशेष महत्व न देते हुए प्रस्ताव के आखिरी बिंदुओं में रूस का नाम भी नहीं लिया गया।
पश्चिमी देशों को रास न आने वाली दूसरी घटना यह हुई कि भारत के अध्यक्षीय आग्रह को मानते हुए अफ्रीकी संघ को जी-20 की सदस्यता देनी पड़ी, जिससे अफ्रीका में भारत के लिए ऐसे समय सहानूभूति का संचार हुआ, जब वहां पश्चिमी साम्राज्यवाद के हित साधने वाली कठपुतली सरकारों के एक के बाद एक तख्तापलट हो रहे हैं। लगता है कि ये दोनों ही बातें पश्चिमी देशों को पसंद नहीं आईं। इसलिए संभव है कि अमेरिकी इशारे पर कनाडाई प्रधानमंत्री ने भारत को असहज और लज्जित करने के लिए यह तमाशा शुरू किया।
बीते दिनों अमेरिकी मीडिया में यह भी सामने आया कि अमेरिकी सरकार ने इमरान खान को अपदस्थ किए जाने के बाद अस्थिरता वाले दौर में पाकिस्तानी फौज की सहायता करते हुए न सिर्फ पाकिस्तान को अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष से आर्थिक पैकेज दिलवाया, बल्कि पाकिस्तान के जरिये यूक्रेन को हथियार भी मुहैया करवाए। यह दर्शाता है कि भारत को काबू में रखने के लिए पाकिस्तान को आक्सीजन देते रहने की दशकों पुरानी पश्चिमी देशों की नीति अभी भी पूरी तरह नहीं बदली है।
इसका एक और उदाहरण राष्ट्रीय जांच एजेंसी यानी एनआइए द्वारा विदेश में छिपे खालिस्तानी आतंकियों और ड्रग माफिया की सूची है। इस सूची में से 11 अमेरिका में रह रहे हैं, जबकि कनाडा में आठ और पाकिस्तान में एक आतंकी छिपा है। गत मार्च में अमेरिका के सैन फ्रांसिस्को में भारतीय काउंसलेट पर हमले के 10 आरोपितों में से एक को भी अमेरिकी सुरक्षा एजेंसियों ने अभी तक गिरफ्तार नहीं किया। भारत के विरुद्ध आग उगलने वाला और खालिस्तान को लेकर जनमत संग्रह करा रहा गुरपतवंत सिंह पन्नू भी लगातार अमेरिका और कनाडा के बीच सफर करता रहता है। ऐसे में यह कैसे न माना जाए कि खालिस्तान को लेकर भड़काई जा रही ताजा आग के पीछे अमेरिकी और कनाडाई खुफिया एजेंसियों का हाथ है?
यह स्थिति तब है, जब चीन के महाशक्ति बनने से उभरे खतरे से निपटने के लिए स्वयं अमेरिकी रणनीतिकारों के अनुसार भारत वह धुरी है, जिसके बिना अमेरिका चीन से नहीं निपट सकता। तब खालिस्तान जैसे मुद्दे पर आतंकी तत्वों को प्रश्रय दे रहे कनाडा के साथ अमेरिका का खड़ा होना भारत को अपनी अमेरिकी नीति को लेकर पुनर्विचार के लिए विवश कर सकता है।
यह ठीक है कि चीन से निपटने और आर्थिक मोर्चे पर आगे बढ़ने के लिए भारत को पश्चिम की सहायता चाहिए, लेकिन पश्चिम को भी भारत की उतनी ही आवश्यकता है। सैन्य और खुफिया मोर्चों पर सहयोग के लिए पारस्परिक भरोसे की आवश्यकता होती है, जो ऐसे रवैये से टूटता है जैसा पश्चिम अभी दिखा रहा है। यदि अमेरिका वास्तव में भारत का साथ चाहता है तो उसे पाकिस्तान और खालिस्तान पर दोहरी चाल चलना बंद करना होगा। अन्यथा भारत के सामरिक गलियारों में यही संदेश जाएगा कि अमेरिका चीन के उभार को रोकने की बात तो खुलकर करता है, परंतु दबे-छुपे तरीके से भारत के उभार को भी सीमित ही रखना चाहता है।
(लेखक काउंसिल आफ स्ट्रेटेजिक अफेयर्स से संबद्ध सामरिक विश्लेषक हैं)