विजय क्रांति : चीन ने फिर वही खेल खेला, जिसमें उसे महारत हासिल हो गई है। इसी फितरत के कारण वह दुनिया भर में बदनामी भी झेलता है। चीन ने 20 जून को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की ‘1267-अलकायदा सेंक्शंस कमेटी’ द्वारा पाकिस्तानी आतंकवादी साजिद मीर को ‘अंतरराष्ट्रीय आतंकी’ घोषित किए जाने के प्रस्ताव पर अपना वीटो इस्तेमाल करते हुए इस पहल को आखिरी क्षणों में रोक दिया।

मीर लश्कर-ए-तोइबा का वही आतंकी सरगना है, जो मुंबई पर हुए आतंकी हमले के दौरान आतंकियों को दिशानिर्देश दे रहा था। उस आतंकी हमले में सैकड़ों लोग मारे गए। इनमें पुलिसकर्मियों से लेकर कई विदेशी नागरिक भी शामिल थे। भारत और अमेरिका के अलावा कई देशों की सरकारें साजिद मीर को इस आतंकी हमले में सक्रिय भूमिका निभाने के लिए दोषी करार दे चुकी हैं। अमेरिकी सरकार ने उस पर 50 लाख डालर का इनाम भी घोषित किया है।

हालांकि, यह पहला मौका नहीं है जब चीन ने बेशर्मी और अंतरराष्ट्रीय न्याय की सभी सीमाएं लांघते हुए किसी दुर्दांत आतंकी को बचाने के लिए अपने वीटो और कूटनीतिक प्रभाव का इस्तेमाल किया हो। इससे पहले सुरक्षा परिषद में ही उसने जैश-ए-मोहम्मद के सूत्रधार मसूद अजहर, लश्कर-ए-तोइबा और जमात-उद-दावा के डिप्टी चीफ अब्दुल रहमान मक्की, जैश के डिप्टी-चीफ अब्दुल रऊफ असगर, लश्कर के शाहिद मसूद और ताल्हा सईद जैसे खूंखार आतंकियों को संयुक्त राष्ट्र और दुनिया की कई सरकारों की गिरफ्त में आने से बचाया है।

साजिद मीर को बचाने के लिए पहले तो पाकिस्तान सरकार ने कहा कि उसकी मौत हो चुकी है, लेकिन दुनिया के सामने भेद खुल जाने के बाद उसी पाकिस्तान में उसे 15 साल कैद की सजा सुनाई गई। असल में इस सजा का असली मकसद मीर को अंतरराष्ट्रीय न्याय व्यवस्था से सुरक्षा प्रदान करना था। मसूद अजहर के बचाव के लिए तो चीन सरकार ने 2009, 2016 और 2017 में तीन बार वीटो प्रयोग किया, लेकिन 2019 में उसका बचाव नहीं किया, क्योंकि तब तक चीन ने उससे जो फायदे उठाने थे, वह उठा चुका था।

अमूमन लोग समझते हैं कि चीन ऐसे अनैतिक कदम अपने सदाबहार दोस्त पाकिस्तान को खुश करने के लिए उठाता है, लेकिन इस कहानी का दूसरा पहलू यह भी है कि पाकिस्तान और अफगानिस्तान में सक्रिय इन जिहादी आतंकियों को बचाने के पीछे चीन का अपना एक बहुत बड़ा स्वार्थ भी है। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उन्हें बचाने से पहले चीन उन्हें सालों-साल तक हथियार, पैसे और भरपूर सुरक्षा भी प्रदान करता रहा है।

अलग-अलग आतंकी गुटों पर नियंत्रण रखने वाले इन लोगों का इस्तेमाल चीन सरकार पाकिस्तान, अफगानिस्तान और कई मध्य एशियाई देशों में सक्रिय ऐसे उइगर नेताओं और हथियारबंद लड़ाकों की हत्या करने के लिए करती आई है, जो चीन के मुस्लिम उपनिवेश शिनजियांग (ईस्ट-तुर्किस्तान) को चीन से मुक्त कराने के अभियान में लगे हुए थे।

चीन ने तिब्बत पर 1951 में जबरन कब्जे से दो साल पहले 1949 में ईस्ट-तुर्किस्तान पर भी कब्जा कर लिया था। तब चीन ने इसे ‘शिनजियांग’ का नया नाम दिया, जिसका अर्थ है ‘नया फ्रंटियर।’ चीन के अत्याचारों से त्रस्त होकर शिनजियांग के कई लाख उइगर अपना देश छोड़कर पाकिस्तान, अफगानिस्तान और मध्य एशियाई देशों में चले गए थे। इनमें से कई लोग आज भी अपनी-अपनी तरह से अपने देश की मुक्ति का अभियान चला रहे हैं।

इनमें से कई प्रमुख उइगर नेताओं और लड़ाकों की हत्या कराने के लिए चीन सरकार उपरोक्त आतंकी सरगनाओं से सीधे मिलकर या फिर पाकिस्तानी सेना और आइएसआइ के माध्यम से आतंकी गुटों का इस्तेमाल करती आ रही है। संयुक्त राष्ट्र में इन आतंकी सरगनाओं को समर्थन देने के पीछे चीन का उइगर विरोधी अभियान भी एक मुख्य कारण है। इनमें कई आतंकवादी संगठन और सरगना ऐसे भी हैं, जो चीन के सहयोग से कश्मीर में भारत विरोधी अभियान चलाकर भी बीजिंग के लिए अपनी उपयोगिता सिद्ध कर चुके हैं।

दुनिया यह देखकर हैरान है कि चीनी राष्ट्रपति शी चिनफिंग जहां अन्य देशों के साथ अपने रिश्तों में आतंकवाद को एक ‘मुख्य मुद्दा’ बताते हैं तो वहीं सुरक्षा परिषद जैसे निर्णायक मंच का इस्तेमाल ऐसे घोषित आतंकियों को बचाने के लिए कर रहे हैं। दुनिया अच्छी तरह देख चुकी है कि भारत, पाकिस्तान, अफगानिस्तान, म्यांमार और नेपाल समेत कई देशों में आतंकियों को पैसा, ट्रेनिंग, हथियार, सुरक्षा और राजनीतिक समर्थन देने के लिए कुख्यात चीन की सरकार ने 2001 में अमेरिका की 9/11 वाली आतंकी घटना के बाद अचानक ही खुद को आतंकवाद के विरुद्ध लड़ाई का नायक घोषित कर दिया था।

चीनी नेताओं द्वारा इस तरह अचानक मुखौटा बदलने के पीछे असली कारण यह रहा कि अपने दो प्रमुख उपनिवेशों तिब्बत और शिनजियांग में जारी मुक्ति अभियानों को बदनाम करने के लिए उसने इन मुक्ति आंदोलनों और उनके नेताओं को ‘आतंकवादी’ घोषित किया था।

चिनफिंग के इस अभियान में इससे ज्यादा हास्यास्पद भला क्या हो सकता है कि उन्होंने नोबेल शांति पुरस्कार से सम्मानित तिब्बती नेता दलाई लामा को भी ‘आतंकवादी’ घोषित किया हुआ है। यहां तक कि पिछले कुछ वर्षों में तिब्बत के भीतर चीनी कुशासन के खिलाफ विरोध जताने के लिए आत्मदाह करने वाले 155 तिब्बती युवाओं को भी चीन की कम्युनिस्ट सरकार ने ‘आतंकवादी’ घोषित किया। इन परिस्थितियों में न्यूयार्क में भारत के स्थानीय मिशन के संयुक्त सचिव प्रकाश गुप्ता की यह टिप्पणी चीन और संयुक्त राष्ट्र दोनों को आईना दिखाने के लिए काफी है कि, ‘यदि हम कुख्यात आतंकियों को संयुक्त राष्ट्र की वैश्विक आतंकियों की सूची में शामिल नहीं कर पा रहे तो यह आतंक की चुनौती से निपटने की इच्छाशक्ति में कमी को दर्शाता है।’

इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि चीन ने साजिद मीर की ढाल बनना ऐसे वक्त पसंद किया, जब भारतीय प्रधानमंत्री अमेरिका की यात्रा पर थे। उसे अमेरिका और भारत की मित्रता रास नहीं आ रही। यह कूटनीतिक दिवालियापन है कि वह अपनी खीझ निकालने के लिए आतंकियों संग खड़ा होना पसंद कर रहा है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और सेंटर फार हिमालयन एशिया स्टडीज एंड एंगेजमेंट के चेयरमैन हैं)