राजीव सचान। इसके आसार तो कम ही थे कि सुप्रीम कोर्ट अनुच्छेद-370 और 35-ए को बहाल कर सकता है, लेकिन इसके बाद भी यह आशंका थी कि कहीं वह इस नतीजे पर न पहुंच जाए कि इन अनुच्छेदों को हटाने की प्रक्रिया विधिसम्मत नहीं थी। इस आशंका का कारण कुछ विपक्षी नेताओं और याचिकाबाज वकीलों के साथ मीडिया के एक हिस्से की ओर से यह माहौल बनाया जाना था कि अनुच्छेद-370 और 35-ए को मनमाने तरीके से हटाया गया।

निःसंदेह यह तरीका जटिल तो था, मगर राजनीतिक इच्छाशक्ति हो तो जटिल फैसले भी आसान हो जाते हैं। मोदी सरकार ने 5 अगस्त, 2019 को यही किया। चूंकि उसे यह पता था कि असंभव से माने जाने वाले इस फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती अवश्य दी जाएगी, इसलिए उसने सारे कील-कांटे दुरुस्त कर रखे थे।

यह कहना तो कठिन है कि मोदी सरकार ने अनु. 370 और 35-ए को हटाने का निश्चय कब किया, मगर यदि भाजपा ने जम्मू-कश्मीर विधानसभा के पिछले चुनावों के बाद पीडीपी से मिलकर सरकार नहीं बनाई होती तो अनुच्छेद-370 और 35-ए को हटाना संभव नहीं होता। जब भाजपा ने पीडीपी के मुफ्ती मोहम्मद सईद के साथ मिलकर सरकार बनाने का फैसला किया तो उसकी खासी आलोचना हुई। सईद के निधन के बाद जब भाजपा महबूबा मुफ्ती को उनके स्थान पर मुख्यमंत्री बनाने को राजी हो गई तो उसकी और आलोचना हुई, क्योंकि वह अपने पिता की तुलना में कट्टर एवं हठी मानी जाती थीं।

भाजपा-पीडीपी का मिलन हर लिहाज से बेमेल था। ऐसी सरकार का चलना कठिन था। अंततः जून 2018 में भाजपा ने अपना समर्थन वापस ले लिया और वहां राष्ट्रपति शासन लागू हो गया। इसके बाद पीडीपी ने अन्य दलों के साथ मिलकर सरकार बनाने की पहल शुरू की। यह पहल परवान नहीं चढ़ी तो जम्मू-कश्मीर विधानसभा भंग कर दी गई। इससे हुआ यह कि राज्यपाल वैसे फैसले लेने में सक्षम हो गए, जैसे वहां की विधानसभा ले सकती थी।

यदि जम्मू-कश्मीर में पीडीपी, नेशनल कांफ्रेंस या कांग्रेस या फिर इन दलों की मिलीजुली सरकार होती तो वहां की विधानसभा अनुच्छेद-370 और 35-ए को खत्म करने का प्रस्ताव कभी पास करने वाली नहीं थी। यदि भाजपा ने पीडीपी से मिलकर सरकार नहीं बनाई होती और फिर समर्थन वापस लेकर राष्ट्रपति शासन लागू करने का रास्ता साफ नहीं किया होता तो क्या अनुच्छेद-370 और 35-ए को हटाने की सूरत बनती? शायद नहीं।

सुप्रीम कोर्ट ने उस प्रक्रिया को विधिसम्मत पाया, जिसके तहत अनुच्छेद-370 और 35-ए को खत्म किया गया। इसी के साथ ये अनुच्छेद सदैव के लिए इतिहास में दफन हो गए। ये अनुच्छेद केवल अलगाववाद को बढ़ावा देने वाले ही नहीं थे, बल्कि जम्मू-कश्मीर की अनुसूचित जातियों-जनजातियों के साथ उन युवतियों के अधिकारों पर आघात करने वाले भी थे, जो राज्य के बाहर के किसी युवक से विवाह करती थीं। ऐसी युवतियां जम्मू-कश्मीर में अपनी संपत्ति का अधिकार खो देती थीं।

ये अनुच्छेद पाकिस्तान के कब्जे वाले जम्मू-कश्मीर से जान बचाकर आए शरणार्थियों के अधिकारों को कुचलने वाले भी थे। ये अनुच्छेद उन गोरखाओं की भी उपेक्षा करने वाले थे, जिनके पूर्वज कभी जम्मू-कश्मीर के महाराजा की सेना के सैनिक थे और फिर वहीं बस गए थे। अनुच्छेद-370 के कारण जम्मू-कश्मीर में संसद से पारित कानून राज्य विधानसभा की मंजूरी के बिना लागू नहीं हो सकते थे। इसके चलते कई ऐसे केंद्रीय कानून जम्मू-कश्मीर में नहीं लागू हो सके, जो वहां के वंचित तबकों के उत्थान के लिए बनाए गए।

अनुच्छेद 35-ए के जरिये जम्मू-कश्मीर की नागरिकता के नियम और नागरिकों के अधिकार तय होते थे। इस अनुच्छेद के प्रविधान कितने अत्याचारी थे, इसे उन दलितों के साथ हुए अन्याय से समझा जा सकता है, जो 1957 में पंजाब से वहां गए थे। 1957 में जम्मू-कश्मीर में सफाई कर्मियों ने हड़ताल कर दी। यह हड़ताल लंबी खिंची। इससे परेशान होकर जम्मू-कश्मीर सरकार ने पंजाब सरकार से कुछ सफाई कर्मियों को भेजने को कहा और यह वादा किया कि उन्हें समस्त अधिकार दिए जाएंगे। करीब तीन सौ दलित परिवार पंजाब से जम्मू-कश्मीर गए। वहां की सरकार उन्हें वांछित अधिकार देने के वादे से मुकर गई।

समय के साथ इन दलित परिवारों की आबादी बढ़ती गई, लेकिन उन्हें राज्य की नागरिकता नहीं दी गई। एक ऐसे ही परिवार की युवती राधिका गिल ने बीएसएफ की कांस्टेबल भर्ती परीक्षा पास कर ली और अच्छी एथलीट होने के कारण फिटनेस टेस्ट में भी सफल हो गई, लेकिन उसे नौकरी इसलिए नहीं मिली, क्योंकि उसके पास जम्मू-कश्मीर का नागरिक होने का कोई प्रमाण नहीं था। जब उसे पता चला कि राज्य सरकार ने यह व्यवस्था बना रखी है कि पंजाब से गए दलित परिवारों के बच्चे केवल सफाई कर्मी की ही नौकरी कर सकते हैं तो उसकी उम्मीदों पर तुषारापात हुआ। ऐसे अनेक मेधावी दलित लड़के-लड़कियों के साथ भेदभाव को ‘जस्टिस डिलेड बट डिलिवर्ड’ नाम से बनी डाक्यूमेंट्री फिल्म में दिखाया गया है।

35-ए के विभेदकारी प्रविधानों के चलते दलित परिवारों के बच्चे कोई प्रोफेशनल कोर्स और बड़ा व्यवसाय भी नहीं कर सकते थे, क्योंकि उसके लिए भी नागरिकता प्रमाण पत्र आवश्यक होता था। उनके लिए दूसरे राज्य जाकर पढ़ाई करना भी कठिन था, क्योंकि उन्हें माइग्रेशन सर्टिफेकट ही नहीं मिलता था। स्पष्ट है कि अनुच्छेद-370 और 35-ए राष्ट्रीय एकता और अखंडता में बाधक होने के साथ लाखों लोगों के अधिकारों को कुचलने वाले भी थे। हैरानी की बात है कि इसके बाद भी न जाने कितने लोग उनकी पैरवी करने में लगे हुए थे।

(लेखक दैनिक जागरण में एसोसिएट एडिटर हैं)