राहुल वर्मा। लोकसभा चुनाव नतीजे आने के बाद से देश की राजनीति कुछ बदली-बदली सी नजर आ रही है। जहां एक ओर विपक्षी खेमा आक्रामक एवं उत्साहित है तो सत्तापक्ष निस्तेज सा नजर आ रहा है। आगामी विधानसभा चुनाव के बाद राजनीतिक परिदृश्य में इस परिवर्तन की लकीरें और स्पष्ट होती चली जाएंगी। अभी तो भाजपा अपना हर कदम फूंक-फूंक कर रख रही है। फिर चाहे वह वक्फ संपत्ति से जुड़े विधेयक का मामला हो या फिर शीर्ष नौकरशाही में लेटरल एंट्री का मुद्दा।

भाजपा की पिछली सरकारों में ऐसा रुख-रवैया देखने को नहीं मिला था। हालांकि कृषि कानून जैसे कुछ अपवाद भी थे, लेकिन पिछले दो कार्यकालों में भाजपानीत राजग सरकार में यही दस्तूर था कि किसी मुद्दे पर आगे बढ़ने के बाद पीछे नहीं मुड़ना है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की भाषा एवं भाव-भंगिमा भी कुछ बदली हुई सी दिखती है। वैचारिक प्रतिबद्धता के मुद्दों से लेकर विकसित भारत की अपनी महत्वाकांक्षी संकल्पना के साथ-साथ वह युवाओं, बेरोजगारी और असमानता जैसे मुद्दों पर भी उतना ही जोर दे रहे हैं।

स्वतंत्रता दिवस के अपने संबोधन में भी उन्होंने कहा कि एक लाख ऐसे युवाओं को राजनीति में आगे आना चाहिए, जिनकी पारिवारिक पृष्ठभूमि राजनीतिक न हो। यह बात उन्होंने मन की बात कार्यक्रम में भी दोहराई। बजट में भी युवाओं को केंद्रित करने वाली कई योजनाओं की घोषणा यही दर्शाती है कि भाजपा चुनावी झटके से लगे नुकसान की भरपाई में जुट गई है। एकीकृत पेंशन स्कीम यानी यूपीएस भी इस दिशा में एक कदम है।

दूसरी ओर, विपक्षी खेमा पूरी तरह उत्साहित है। राहुल गांधी अग्रिम मोर्चा संभाले हुए हैं। पार्टी प्रवक्ताओं के तेवर भी तीखे हुए हैं। सक्रिय राजनीति से लगभग दूर हो चुकीं सोनिया गांधी के सुर भी बदले हुए हैं। बीते दिनों उन्होंने पार्टी नेताओं से कहा कि इस समय राजनीतिक माहौल कांग्रेस के पक्ष में है तो किसी प्रकार की शिथिलता न दिखाई जाए। कांग्रेस ने चुनावी राज्यों में अपनी तैयारी भी शुरू कर दी है। अब देखना यही है कि क्या देश की सबसे पुरानी पार्टी लोकसभा चुनाव में अपेक्षा से बेहतर प्रदर्शन की खुमारी में ही खोई रहती है या खुद को नए सिरे से मजबूत करने को लेकर गंभीरता से कदम उठाती है?

हरियाणा और जम्मू-कश्मीर के लिए तो चुनावी कार्यक्रम की घोषणा हो गई है। इसके बाद महाराष्ट्र और झारखंड की बारी आएगी। महाराष्ट्र और हरियाणा की सत्ता भाजपा के पास है, जबकि झारखंड में झामुमो के नेतृत्व में विपक्षी गठबंधन सत्तारूढ़ है। जम्मू-कश्मीर में राष्ट्रपति शासन है। सत्ता समीकरणों के लिहाज से देखें तो इन चुनावों में भाजपा का काफी कुछ दांव पर लगा है, क्योंकि उसके पास गंवाने को बहुत कुछ है।

हरियाणा में वह दस साल से सत्ता संभाले हुए है तो महाराष्ट्र में एक छोटे अंतराल को छोड़कर वह सहयोगियों के साथ तकरीबन एक दशक से सत्ता में है। लोकसभा चुनावों के प्रदर्शन को देखें तो यहां भाजपा के लिए खतरे की घंटी बज चुकी है। पार्टी के पूर्ण बहुमत से दूर रहने की एक वजह महाराष्ट्र का खराब प्रदर्शन भी माना गया।

मराठा आरक्षण का मुद्दा भी उसे परेशान कर रहा है। सहयोगियों के साथ भी उसे अपने समीकरण दुरुस्त रखने के लिए खासी माथापच्ची करनी पड़ सकती है। ऐसे में सत्ता विरोधी रुझान के साथ-साथ उसे विपक्षी एकता का भी सामना करना पड़ेगा, क्योंकि उद्धव ठाकरे, शरद पवार और कांग्रेस का खेमा अभी तक तो मजबूती से चुनाव अभियान में लगा हुआ है।

हरियाणा में भी भाजपा के लिए अच्छे संकेत नहीं दिख रहे। लोकसभा चुनावों में उसे पांच ही सीटों पर जीत मिली, जबकि 2019 में उसने सभी दस सीटों पर जीत हासिल की थी। किसान आंदोलन और अग्निवीर जैसी योजनाओं के चलते भाजपा यहां बैकफुट पर है। दस साल के सत्ता विरोधी रुझान का भी उसे सामना करना पड़ेगा। यहां पार्टी की उम्मीद प्रभावशाली जाट समुदाय के मुकाबले अन्य जातियों की लामबंदी पर है।

हरियाणा भाजपा की उन राजनीतिक प्रयोगशालाओं में से एक रहा है, जहां पार्टी ने राज्य में वर्चस्व वाली जाति के बजाय वैकल्पिक नेतृत्व को वरीयता दी। हालांकि पिछली बार भी राज्य विधानसभा में भाजपा को पूर्ण बहुमत नहीं मिला था। पार्टी के लिए यहां प्रतिकूल स्थितियों के बावजूद उसके नजरिये से एक अच्छी बात यही है कि यहां कांग्रेस एकजुट नहीं दिख रही है और पार्टी कई खेमों में बंटी हुई है। साथ ही, जाटों को साधने के लिए पार्टी ने हाल में कांग्रेस से आई किरण चौधरी को राज्यसभा भेजने का दांव भी चला है।

सत्ता की संभावनाओं के लिहाज से झारखंड की स्थिति अपेक्षाकृत अलग है। लोकसभा चुनाव में कुछ नुकसान के बावजूद भाजपा यहां हाशिए पर नहीं पहुंची। हालांकि, एसटी सीटों पर पार्टी को नुकसान उठाना पड़ा। इसकी एक वजह हेमंत सोरेन के जेल जाने से झामुमो को मिली कुछ सहानुभूति भी हो सकती है। सोरेन अब रिहा हो गए हैं और वापस सत्ता की कमान संभाल ली है।

हेमंत अपने स्थान पर जिन चम्पाई सोरेन को मुख्यमंत्री बनाकर गए थे, वही अब पार्टी से किनारा करने का मन बना रहे हैं। दूसरी ओर, भाजपा अपने सभी कील कांटे दुरुस्त करने में लगी है। पार्टी को उम्मीद है कि झामुमो के विरुद्ध सत्ता विरोधी रुझान का भी उसे लाभ मिलेगा। जम्मू-कश्मीर के बारे में अभी कुछ कहना जल्दबाजी है, लेकिन वहां भाजपा ही कसौटी पर रहेगी, जहां यह देखना होगा कि अनुच्छेद 370 को हटाने और पूर्ण राज्य का दर्जा समाप्त होने के बाद विकसित हुए नए तंत्र को राज्य की जनता ने किस रूप में लिया।

इन चुनावों से जहां विपक्ष बहुत उम्मीदें लगाए हुए है, वहीं ये भाजपा के लिए अग्निपरीक्षा की तरह होंगे। पार्टी की हार-जीत राजग में सहयोगियों के बीच उसकी हैसियत निर्धारित करेगी। पार्टी की अंदरूनी राजनीति के लिए भी ये चुनाव अहम होंगे, क्योंकि इस जनादेश से मोदी-शाह की जोड़ी के जादू का असर और पार्टी के भावी अध्यक्ष के चयन में उनकी पसंद भी प्रभावित होगी। कुल मिलाकर, इन चुनावों के जरिये लंबे समय से भाजपा केंद्रित रही देश की राजनीति में अर्से बाद एक समान राजनीतिक धरातल पर सियासी मुकाबला देखने को मिलने वाला है।

(लेखक राजनीतिक विश्लेषक एवं सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च में फेलो हैं)