ए. सूर्यप्रकाश। कड़े फैसलों के लिए खास पहचान बनाने वाले प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की कार्यशैली तीसरे कार्यकाल में कुछ बदली हुई लग रही है। प्रतीत होता है कि वह स्वयं को नई राजनीतिक परिस्थितियों के अनुरूप ढालने की दिशा में बढ़ रहे हैं। अपने सुदीर्घ राजनीतिक जीवन में पहली बार गठबंधन सरकार चला रहे पीएम मोदी की सरकार पर मौजूदा कार्यकाल में कई मुद्दों को लेकर पलटी मारने का आरोप लगाया जा रहा है।

ऐसे आरोप लगाने वाले लोग संभवत: इस तथ्य को अनदेखा कर रहे हैं कि दो बार पूर्ण बहुमत की केंद्र सरकार चलाने के दौरान भी मोदी कई फैसलों को वापस ले चुके हैं। विपक्षी नेताओं को शायद यह अपेक्षा नहीं थी कि मोदी गठबंधन के समीकरणों को समझते हुए अपनी शैली में बदलाव करेंगे, लेकिन इस मामले में भी मोदी उन्हें गलत साबित कर चुके हैं कि वह गठजोड़ की राजनीति में आमसहमति के साथ आगे बढ़ने में सक्षम हैं।

पिछले कुछ समय का घटनाक्रम यही संकेत करता है कि सरकार किसी जल्दबाजी में नहीं है। अगस्त की शुरुआत में सरकार ने प्रसारण सेवा (नियमन) विधेयक, 2024 वापस लिया। सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय ने इस विधेयक के प्रारूप पर जनता से प्रतिक्रियाएं मंगाई हैं। उसके बाद सरकार ने सिविल सेवा में विशेषज्ञों की भर्ती से जुड़ा लेटरल एंट्री का कदम पीछे खींचा।

लोजपा (रामविलास) प्रमुख और केंद्रीय मंत्री चिराग पासवान ने इसके विरोध में कहा कि आरक्षण के प्रविधान के बिना ऐसा कोई भी कदम स्वीकार्य नहीं होगा। जदयू नेताओं ने भी चिराग के सुर में सुर मिलाए। परिणामस्वरूप, संघ लोक सेवा आयोग ने लेटरल एंट्री से जुड़ी अधिसूचना रद कर दी। ऐसा करते हुए केंद्रीय मंत्री जितेंद्र सिंह ने कहा कि प्रधानमंत्री चाहते हैं कि ऐसी नियुक्तियों के मामले में समानता और सामाजिक न्याय के सिद्धांत का पालन किया जाए। स्पष्ट रूप से उनका संकेत आरक्षण के प्रविधान को लेकर था।

वक्फ (संशोधन) विधेयक, 2024 पर भी सरकार को सहयोगियों के साथ ही यदाकदा समर्थन करने वाले मित्र दलों की आपत्तियों के चलते कदम पीछे खींचने पड़े। इस विधेयक के माध्यम से वक्फ बोर्ड के ढांचे को और व्यापक बनाते हुए उनमें महिलाओं, बोहरा और आगाखानी के अलावा मुस्लिम समुदाय के अन्य पिछड़ा वर्गों को प्रतिनिधित्व देने की पहल की गई है। साथ ही, बोहरा और आगाखानियों जैसे इस्लामिक वर्गों के लिए अलग से वक्फ बोर्ड स्थापित करने की भी बात है।

हालांकि, सहयोगी दलों ने इस विधेयक का पूरी तरह विरोध नहीं किया, लेकिन उसे संसदीय समिति को भेजने का सुझाव जरूर दिया। इस मामले में तेलुगु देसम, जन सेना और लोजपा जैसी पार्टियों ने व्यापक चर्चा को प्राथमिकता दी। कांग्रेस और अन्य विपक्षी दलों ने इसका विरोध किया। चूंकि संसद में विपक्षी दलों द्वारा इस विधेयक की राह में अवरोध खड़े करना तय था तो सरकार ने विधेयक के परीक्षण के लिए उसे संयुक्त संसदीय समिति को भेज दिया।

इन मामलों को देखते हुए मोदी सरकार पर पलटी मारने का आरोप लगा रहे लोग भूल जाते हैं कि संसद में दमदार बहुमत के बावजूद उन्होंने कई मुद्दों पर अपने कदम पीछे खींचे हैं। गठबंधन राजनीति के इस दौर में उन उदाहरणों को अनदेखा नहीं किया जा सकता जब पूर्ण बहुमत की मोदी सरकार कुछ विरोधी स्वरों के बीच भी झुक गई थी। अपने रुख से पीछे हटने की सबसे बड़ी मिसाल तीन कृषि सुधार कानूनों की वापसी थी, जिन कानूनों के विरोध में राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में लंबे समय तक किसानों की घेराबंदी रही।

समय-समय पर उस आंदोलन के हिंसक होने के बावजूद सरकार ने कोई कड़ी कार्रवाई नहीं की। जबकि भाजपानीत राजग के पास तब लोकसभा में 350 से अधिक सांसदों का समर्थन था। वर्ष 2015 में भूमि अधिग्रहण कानून को भी वापस ले लिया गया, जिसके लिए लगातार अध्यादेश का सहारा लिया जा रहा था।

कारोबारी सुगमता के लिए जमीन अधिग्रहण की प्रक्रिया आसान बनाने की मंशा से उठाए गए इस कदम का विपक्षी दलों और किसान संगठनों की ओर से भारी विरोध हुआ। उक्त कानून लोकसभा में पारित हो गया, लेकिन राज्यसभा में अटक गया। अंत में, मोदी को घोषणा करनी पड़ी कि इस अध्यादेश को निष्प्रभावी कर दिया जाएगा।

कदम वापसी की इस सूची में एक नाम अगस्त 2022 में डाटा प्रोटेक्शन बिल से जुड़ा है, जो कई साल पहले प्रस्तावित किया गया था। सरकार ने एक उच्चस्तरीय समिति के सुझावों को समायोजित करते हुए पर्सनल डाटा प्रोटेक्शन बिल, 2019 लोकसभा में पेश किया। यह विधेयक संयुक्त संसदीय समिति को भेजा गया, जिसने उसमें बड़े पैमाने पर परिवर्तन किए।

इसके बाद मोदी सरकार ने विधेयक को वापिस लेने का फैसला किया। करीब साल भर बाद सरकार ने संसद में नया विधेयक रखा। डाटा प्रोटेक्शन बिल पर उतार-चढ़ाव की यह स्थिति दर्शाती है कि पूर्ण बहुमत के बावजूद विधि निर्माण को लेकर मोदी सरकार का रवैया कितना उदार एवं लचीला रहा।

अब स्थिति अलग और खासी जटिल है। जब कोई सरकार अस्तित्व के लिए अन्य दलों पर निर्भर होती है तो उसे गठबंधन धर्म को समझते हुए सलाह-मशविरे के साथ काम करना पड़ता है। अटल बिहारी वाजपेयी ने इसी मंत्र को आत्मसात करते हुए सफलतापूर्वक गठबंधन सरकार चलाई। लोकसभा चुनाव परिणाम के कुछ महीने गुजरने के बाद मोदी की प्रतिक्रिया से भी यही संकेत मिलते हैं कि वह इन पहलुओं के प्रति सचेत हैं और अपेक्षित सामंजस्य में लगे हैं।

जहां तक लचीलेपन का सवाल है तो वह व्यापक बहुमत के बावजूद अपनी नीतियां बदल चुके हैं। ऐसे में अब कई नीतियों को लेकर रुख-रवैये में परिवर्तन को लेकर उन्हें निशाना बनाने वाले नेता शायद प्रकृति के उस सबक को अनदेखा कर रहे हैं कि तूफान में वही पेड़ बचते हैं, जो हवा के रुख के अनुरूप खुद को ढाल लेते हैं। जो पेड़ हवा के रुख से तालमेल नहीं बिठा पाते वे उखड़ जाते हैं। ऐसे में, मोदी सरकार के अस्तित्व का प्रश्न भी इसी पहलू में निहित है कि वह बदली हुई परिस्थितियों से किस प्रकार तालमेल बिठाए रखने में सफल रहती है।

(लेखक लोकतांत्रिक मामलों के विशेषज्ञ एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं)