अप्रत्याशित फैसले लेने के लिए चर्चित दिल्ली के मुख्यमंत्री और आम आदमी पार्टी के प्रमुख अरविंद केजरीवाल ने यह कहकर एक बार फिर चौंकाया कि वह दो दिन बाद मुख्यमंत्री पद से त्यागपत्र दे देंगे। उन्होंने जिस तरह यह स्पष्ट नहीं किया कि दिल्ली का अगला मुख्यमंत्री कौन होगा, उससे यह स्पष्ट है कि अगले दो दिन तक अटकलबाजी का दौर चलता रहेगा और इससे देश भर में केजरीवाल और दिल्ली की चर्चा होती रहेगी।

यह स्पष्ट ही है कि केजरीवाल यह चाह रहे होंगे कि वह चर्चा के केंद्र में बने रहें। उन्होंने यह कहते हुए त्यागपत्र दिया कि वह आम जनता के समक्ष अग्निपरीक्षा देना चाहते हैं, लेकिन कोई भी समझ सकता है कि त्यागपत्र के मूल कारण कुछ और ही हैं। पहला कारण तो यही दिखता है कि आबकारी नीति घोटाले में सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें जमानत तो दे दी, लेकिन उन पर कई कठोर शर्तें लगा दीं।

इन शर्तों के कारण मुख्यमंत्री के रूप में उनके लिए कार्य करना असंभव सा हो गया था और सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें न केवल मुख्यमंत्री कार्यालय जाने से रोका, बल्कि उपराज्यपाल की अनुमति के बिना किसी सरकारी फाइल पर हस्ताक्षर करने से भी रोक दिया। इतना ही नहीं, यह भी शर्त लगाई कि वह आबकारी नीति घोटाले पर कुछ नहीं कह सकते।

हैरानी नहीं कि केजरीवाल ने यह पाया हो कि उनके पास त्यागपत्र देने के अलावा और कुछ उपाय नहीं, लेकिन यदि उन्हें राजनीतिक शुचिता और नैतिकता की परवाह होती तो उन्हें तभी त्यागपत्र दे देना चाहिए था जब आबकारी नीति घोटाले में उन्हें गिरफ्तार कर जेल भेजा गया था। आश्चर्यजनक रूप से उन्होंने जेल से ही सरकार चलाने की जिद पकड़ी।

इस दौरान वह और उनके साथी भले ही यह कहते रहे हों कि नई आबकारी नीति लाकर कहीं कोई अनियमितता नहीं की गई, लेकिन इस प्रश्न का उत्तर किसी के पास नहीं कि अगर इस नीति में कहीं कोई गड़बड़ी नहीं थी तो उसे वापस क्यों लिया गया। यह ठीक है कि इस घोटाले में अन्य अनेक लोगों के साथ अरविंद केजरीवाल को भी जमानत मिल गई है, लेकिन जमानत क्लीन चिट का पर्याय नहीं हो सकती।

भले ही केजरीवाल कह रहे हों कि उन्हें गलत तरीके से फंसाया गया है और वह जनता से ईमानदारी का प्रमाण पत्र लेने के बाद मुख्यमंत्री पद संभालेंगे, लेकिन आबकारी घोटाले का सच-झूठ जनता को नहीं, देश की अदालतों को तय करना है। केजरीवाल के त्यागपत्र देने का एक कारण यह भी दिखता है कि वह हरियाणा और फिर आगामी दिल्ली विधानसभा चुनाव में जनता की सहानुभूति पाना चाहते हैं।

उन्होंने दिल्ली के चुनाव करीब तीन माह पहले नवंबर में कराने की मांग भी की है। यह समय ही बताएगा कि उन्हें सहानुभूति का लाभ प्राप्त करने में सफलता मिलती है या नहीं, लेकिन इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि उन्होंने अपने अब तक के राजनीतिक जीवन में जिस तरह कई बार अपने ही कहे को नकारकर फैसले लिए हैं, उससे उनकी वह छवि नहीं रह गई जो पहले थी।