उमेश चतुर्वेदी। महाभारत का एक प्रसंग है। वनवास के आखिरी दिनों में एक बार भीम ने देखा कि दुर्योधन को यक्ष बंदी बनाकर ले जा रहे हैं। दुश्मन दुर्योधन को बंदी बनाया जाते देख भीम की खुशियों का ठिकाना नहीं रहा। कुटिया पर लौटते ही इसकी जानकारी उन्होंने धर्मराज को दी, लेकिन युधिष्ठिर ने भीम की खुशी पर पानी फेर दिया।

उन्होंने कहा कि आपस में भले ही हमारा बैर हो, लेकिन किसी बाहरी के लिए हम एक सौ पांच हैं। विदेशी धरती पर भारतीय राजनीति भी अपने घरेलू मुद्दों को लेकर इसी परंपरा को ही निभाती रही है, जिसे दुनिया ने 27 फरवरी, 1994 को जेनेवा में देखा। पाकिस्तान ने संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार आयोग में आर्गेनाइजेशन आफ इस्लामिक को-ऑपरेशन के जरिये कश्मीर में हो रहे कथित मानवाधिकार उल्लंघन को लेकर भारत के खिलाफ निंदा प्रस्ताव रखा था।

अगर यह प्रस्ताव पारित हो जाता तो भारत को सुरक्षा परिषद के कड़े आर्थिक प्रतिबंधों का सामना करना पड़ता। तत्कालीन प्रधानमंत्री नरसिंह राव ने इसकी अनूठी काट खोजी। भारत का पक्ष रखने के लिए उस समय विपक्षी दल के नेता अटल बिहारी वाजपेयी की अगुआई में एक प्रतिनिधिमंडल जेनेवा भेजा, जिसमें तब के विदेश राज्य मंत्री सलमान खुर्शीद सदस्य की भूमिका में थे। भारतीय राजनीति ने उस संकट का मिलकर सामना किया और पाकिस्तान का प्रस्ताव औंधे मुंह गिर गया।

राहुल गांधी अब नेता विपक्ष की भूमिका निभा रहे हैं, लेकिन ऐसा लगता है कि इस परंपरा में उनका कोई विश्वास नहीं है। वह जब भी विदेश जाते हैं तो ऐसे बयान देते हैं, जिनसे देशविरोधी मुद्दों को हवा मिलती दिखती है। गत दिनों अमेरिका दौरे पर गए राहुल ने कहा, ‘आज भारत में लड़ाई इस बारे में है कि क्या एक सिख के रूप में उन्हें पगड़ी या कड़ा धारण करने की अनुमति दी जाएगी या एक सिख के रूप में वह गुरुद्वारा जाने में सक्षम होंगे।

यही लड़ाई है और सिर्फ उनके लिए नहीं, बल्कि सभी धर्मों के लिए है।’ इस बयान के जरिये राहुल गांधी विदेशी धरती पर यह जताने की कोशिश करते नजर आए कि भारत में सिख असुरक्षित हैं। सवाल यह है कि क्या भारत में सिखों को पगड़ी पहनने या गुरुद्वारा जाने से रोका जा रहा है? निश्चित तौर पर इसका जवाब न में है। ऐसे में राहुल गांधी के बयान को अगर उनके विरोधी खालिस्तानी आंदोलन से जोड़कर देखें तो कांग्रेस को आपत्ति नहीं होनी चाहिए। भाजपा द्वारा राहुल को 1984 के सिख विरोधी दंगों की याद दिलाना भी स्वाभाविक है।

विदेशी धरती पर राहुल गांधी की बयानबाजी को वैश्विक प्रचार जरूर मिलता है, लेकिन इससे भारत की छवि लोकतंत्रहीन और तानाशाही वाले देश की बनती है। इस तरह राहुल दुनिया को यह बताने की कोशिश करते नजर आते हैं कि भारत में हर कोई खतरे में है और वहां नागरिक स्वतंत्रता खत्म हो चुकी है। पिछले साल अमेरिका में ही राहुल ने कहा था कि भारत में लोकतंत्र खतरे में है। इसके पहले 2022 में लंदन में कहा था कि भारत के आत्मा पर हमले हो रहे हैं और बिना आत्मा के देश कुछ भी नहीं होता।

2018 में जर्मनी दौरे पर गए राहुल ने कहा था कि मोदी के अंदर देशभक्ति की भावना नहीं है। तब उन्होंने मोदी की तुलना ट्रंप से की थी। 2017 में अमेरिका में राहुल ने कहा था कि मोदी को देश की संघीय व्यवस्था पर भरोसा नहीं है और वह देश को बांटना चाहते हैं। दिलचस्प यह है कि बीते आम चुनाव में राहुल लगातार लोगों को डराते रहे कि भाजपा और मोदी आरक्षण खत्म करना चाहते हैं। जातिगत जनगणना के मूल में उनके आरक्षण संबंधी विचार ही हैं, लेकिन अमेरिका के हालिया दौरे के दौरान आरक्षण को लेकर उन्होंने कह दिया कि जब भारत में बेहतर हालात होंगे तो आरक्षण खत्म कर देंगे।

हरियाणा और जम्मू-कश्मीर के विधानसभा चुनावों में आरक्षण बड़ा मुद्दा तो नहीं है, लेकिन आने वाले दिनों में झारखंड और महाराष्ट्र में विधानसभा चुनाव होने हैं। आरक्षण और जातिगत जनगणना वहां के बड़े मुद्दे हैं। विवाद बढ़ता देखकर राहुल गांधी ने यह कह दिया कि वह आरक्षण 50 प्रतिशत से अधिक करना चाहते हैं। राहुल ने अमेरिका में यह भी कह दिया कि तमिल, तेलुगु, कन्नड़ आदि भाषियों से कहा जा रहा है कि उनकी भाषा, संस्कृति और खानपान कमतर हैं।

बेलगाम बयानबाजी के जरिये राहुल गांधी का एक मकसद देश में जारी चुनावों में अपने पक्ष में माहौल बनाना भी रहता है, क्योंकि विदेशी धरती पर घट रही भारत से संबंधित घटनाएं पूरे देश का ध्यान खींचती हैं। इसके जरिये राहुल अपने वोटरों को लुभाने और अपना समर्थक आधार वोट बैंक बढ़ाने की कोशिश करते हैं, लेकिन ऐसा करते वक्त भूल जाते हैं कि वह मामूली नेता नहीं हैं।

पहले उनके बयानों को तवज्जो देश की सबसे पुरानी पार्टी के पूर्व अध्यक्ष के बयानों के नाते मिलती थी, अब वह नेता विपक्ष की भूमिका में हैं। इसलिए उनके बयानों को और महत्व मिलना स्वाभाविक है। अब वह भी संविधान और राष्ट्र के प्रति उतने ही जिम्मेदार हैं, जितना सत्ता पक्ष है।

इसलिए उनसे अपेक्षा की जाती है कि वह जो भी बोलेंगे, नपा-तुला और जिम्मेदारी के साथ बोलेंगे, लेकिन राहुल यहीं चूक रहे हैं। उनके गैर जिम्मेदाराना बयानों से भारत और भारत के बाहर स्थित देशविरोधी ताकतों का उत्साह बढ़ता है। राहुल के बयानों को लेकर कांग्रेस जिस तरह उनका बचाव करती दिख रही है, उससे लगता नहीं कि भविष्य में वह अपनी बयानबाजी को लेकर सचेत होंगे।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं राजनीतिक विश्लेषक हैं)