राजीव सचान। वर्ष 2012 के निर्भया कांड ने जिस तरह देश को आक्रोश और क्षोभ से भर दिया था, वही काम कोलकाता के आरजी कर मेडिकल कालेज की एक प्रशिक्षु महिला डॉक्टर की दुष्कर्म के बाद हत्या ने किया। निर्भया कांड के बाद जस्टिस जेएस वर्मा के अध्यक्षता में एक समिति बनाई गई, जिसने महिलाओं के खिलाफ होने वाले यौन अपराधों के दोषियों को समय रहते कठोर सजा देने के लिए आपराधिक कानूनों में संशोधन के सुझाव दिए।

इन सुझावों के अनुरूप कानूनों को सचमुच कठोर बनाया गया और कुछ राज्य सरकारों ने तो बच्चियों और किशोरियों के दुष्कर्मियों को फांसी की सजा के भी प्रविधान बनाए। कई दुष्कर्मियों को फांसी की सजा सुनाई भी गई।

इसके अतिरिक्त निर्भया कांड के दोषियों को देश को झकझोरने वाली इस घटना के आठ साल बाद फांसी की सजा भी दे दी गई, लेकिन आरजी कर मेडिकल कालेज की घटना के बाद यही लगता है कि महिलाओं के खिलाफ होने वाले यौन अपराधों के मामले में देश वहीं खड़ा है, जहां 12 वर्ष पहले था। इसकी पुष्टि छेड़छाड़, दुष्कर्म, अपहरण और दुष्कर्म एवं हत्या के बढ़ते मामलों से होती है।

राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो के आंकड़े बताते हैं कि महिला अत्याचार रोधी कानूनों को कठोर किए जाने के बाद भी यौन अपराध लगातार बढ़ रहे हैं। किसी भी दिन का समाचार पत्र उठाकर देख लें। यौन अपराध की दो-चार खबरें दिखना आम बात है। मुरादाबाद में अस्पताल में डॉक्टर द्वारा नर्स से दुष्कर्म, गाजियाबाद के मोदी नगर में मूक बधिर युवती के अपहरण का प्रयास, ठाणे में सौतेली बेटी से दुष्कर्म करने वाले को 20 साल की सजा, रोहतक में साथी डॉक्टर द्वारा बीडीएस छात्रा का अपहरण, झारखंड के साहिबगंज में पंचायत की ओर से दुष्कर्मी को जुर्माना लगाकर छोड़ देने से आहत किशोरी ने दी जान, तमिलनाडु के कृष्णागिरी जिले में फर्जी एनसीसी कैंप में किशोरी के यौन उत्पीड़न पर 11 गिरफ्तार।

ये सभी खबरें बीते कल यानी मंगलवार को दिल्ली के केवल एक समाचार पत्र की हैं। यह सहज ही समझा जा सकता है कि देश में ऐसी अन्य घटनाएं हुई होंगी। महिलाओं के खिलाफ बढ़ते यौन अपराध यही बयान करते हैं कि केवल कानूनों को कठोर करने से बात बन नहीं रही है। इसका यह मतलब नहीं कि कानून कठोर नहीं होने चाहिए। कानून न केवल कठोर होने चाहिए, बल्कि यह भी सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि यौन अपराधियों को यथाशीघ्र कड़ी सजा मिले। अभी ऐसा नहीं होता। यदि ऐसा होने लगे तो स्थिति में कुछ सुधार हो सकता है, लेकिन इसके अतिरिक्त और भी बहुत कुछ करना होगा। घर के बाहर लड़कियां और महिलाएं स्वयं को सुरक्षित महसूस करें, इसके लिए अभी बहुत कुछ करने की आवश्यकता है। इसकी आवश्यकता घर- परिवार के साथ सार्वजनिक स्थानों में भी है और कार्यस्थलों में भी।

कोई भी अस्पताल महिलाओं की सुरक्षा के लिए सुरक्षित ही माना जाएगा, लेकिन कोलकाता और मुरादाबाद की घटनाएं यह बताती हैं कि ऐसे कार्यस्थल भी महिलाओं के लिए निरापद नहीं रह गए हैं, जिन्हें अपेक्षाकृत उनके लिए सुरक्षित माना जाता है। आरजी कर मेडिकल कालेज तो बंगाल का एक बड़ा सरकारी मेडिकल कालेज है। वहां की प्रशिक्षु महिला डॉक्टर की दुष्कर्म के बाद हत्या आपातकालीन वार्ड से सटे सेमिनार हाल में हुई।

दुष्कर्म और हत्या का आरोपित संजय राय कोलकाता पुलिस का वालंटियर था यानी उसकी जिम्मेदारी सुरक्षा देने की थी, लेकिन वही सुरक्षा के लिए खतरा बन गया। यह मानने के अच्छे-भले कारण हैं कि ममता सरकार और उनकी कोलकाता पुलिस ने इस जघन्य अपराध पर लीपापोती करने की हर संभव कोशिश की। इसी के चलते इस घटना को लेकर देश भर में वैसा ही आक्रोश उमड़ा, जैसा निर्भया कांड के बाद देखने को मिला था।

निर्भया कांड के बाद शासकवर्ग यौन अपराधों के खिलाफ आम जनता के रोष- आक्रोश का सामना कई बार कर चुका है, लेकिन स्थिति में कोई सकारात्मक परिवर्तन आता हुआ नहीं दिख रहा है। इसका कारण केवल यह नहीं है कि सरकारें सार्वजनिक स्थलों औऱ कार्यस्थलों में महिलाओं के लिए सुरक्षा का समुचित वातावरण बनाने में नाकाम हैं। इसका कारण यह भी है कि समाज अपने हिस्से की जिम्मेदारी का निर्वाह करने के लिए तैयार नहीं है।

यदि यह सोचा जा रहा है कि चप्पे –चप्पे पर पुलिस तैनात कर देने एवं कानूनों को और कठोर कर देने से यौन अपराधों पर लगाम लग जाएगी तो ऐसा होने वाला नहीं है। यह संभव है कि सुप्रीम कोर्ट की ओर से गठित टास्क फोर्स अस्पतालों में डॉक्टरों और अन्य मेडिकल स्टाफ की सुरक्षा के लिए ऐसे उपाय सुझाने में सफल रहे, जिन पर अमल से हालात कुछ बदलें, लेकिन प्रश्न केवल चिकित्सा कर्मियों की सुरक्षा का ही नहीं है। प्रश्न तो सभी लड़कियों और महिलाओं की सुरक्षा का है।

नारी शक्ति की सुरक्षा तब सुनिश्चित होगी, जब समाज भी इसकी चिंता करेगा। यह समाज की प्राथमिकता होनी चाहिए कि घर-परिवार के साथ स्कूली शिक्षा-दीक्षा और सामाजिक- सांस्कृतिक- राजनीतिक आयोजनों में महिलाओं के प्रति दृष्टिकोण बदलने का काम हो। निःसंदेह लैंगिक भेदभाव एक हद तक दूर हुआ है, लेकिन पूरी तौर पर नहीं। यौन अपराधों का एक बड़ा कारण महिलाओं को कमजोर, कमतर, हीन और भोग की वस्तु समझने की मानसिकता है।

इसी कारण वे घरेलू हिंसा से लेकर सार्वजनिक स्थानों में यौन हिंसा का शिकार बनती हैं। जब तक महिलाओं के प्रति मानसिकता नहीं बदलेगी, तब तक स्थिति बदलने वाली नहीं। स्थिति बदलने के लिए भावी पीढ़ी को नैतिकता, संस्कार, सदाचार संग लैंगिक समानता की शिक्षा देनी होगी। आज स्थिति यह है कि यदि कहीं नैतिक शिक्षा और संस्कारों की महत्ता पर चर्चा चल निकले तो उसका उपहास उड़ाया जाने लगता है।

(लेखक दैनिक जागरण में एसोसिएट एडिटर हैं)