अवधेश कुमार। भारत का हर विवेकशील व्यक्ति हतप्रभ है। लोकसभा में नेता विपक्ष राहुल गांधी का हालिया वक्तव्य है कि अमेरिका में उन्होंने कुछ भी गलत नहीं कहा और भाजपा उन्हें डराकर चुप कराना चाहती है। उन्होंने प्रश्न उठाया कि क्या हमको ऐसा भारत नहीं चाहिए, जहां हर सिख बिना डरे अपने धर्म का पालन कर सके? कांग्रेस अमेरिका में दिए राहुल के वक्तव्यों के विरुद्ध कैबिनेट मंत्रियों और भाजपा नेताओं के बयानों को उनके विरुद्ध हिंसा भड़काने वाला बताकर जगह-जगह प्रदर्शन कर रही है। कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे ने प्रधानमंत्री को पत्र लिखा और बयान दिया कि उन्होंने अपने साथियों के विरुद्ध कार्रवाई न करके एक प्रकार से समर्थन किया है। सामान्य स्थिति तो यही होती कि अमेरिका में राहुल ने जो कुछ कहा, जिनसे मिले, उसके विरुद्ध देश में प्रखर आक्रामकता दिखाई जाती। कोई नेता ऐसे भारत विरोधी बयान दे, जिनसे विभाजनकारी शक्तियों को बल मिले, जिसका लाभ खालिस्तानी और भारत विरोधी उठाएं, वह घोषित भारत विरोधियों से मिले तथा गलती स्वीकारने के बजाय इसकी आलोचना करने वालों का विरोध करे और उसे समर्थन भी मिले, यह किसी भी हालात में सामान्य स्थिति नहीं हो सकती। इसे ही कहते हैं इकोसिस्टम और नैरेटिव तंत्र की शक्ति।

केंद्रीय मंत्री रवनीत सिंह बिट्टू ने राहुल गांधी को सबसे बड़ा आतंकी कहा या गिरिराज सिंह ने हमला किया। उनकी भाषा से हमारी असहमति होगी, किंतु ये सब प्रतिक्रियाएं राहुल के विभाजनकारी, उकसाऊ और भारत की विश्व में छवि नष्ट करने के व्यवहारों के विरुद्ध हैं। बड़ी संख्या में आम आदमी बातचीत में राहुल के बयान पर ऐसी ही गुस्सैल प्रतिक्रिया दे रहा है। आश्चर्य की बात है कि भाजपा इतने बड़े मुद्दे पर राहुल के खिलाफ माहौल नहीं बना सकी। इसके उलट उसके नेताओं और मंत्रियों का बयान कांग्रेस के लिए मुद्दा बन गया और वह जनता के बीच जा रही है कि ये लोग राहुल की हत्या करना चाहते हैं। यह तो उलटी दिशा में जलधारा को बहाना हुआ। भाजपा के पास इतनी क्षमता है कि वह इसे देशव्यापी मुद्दा बनाकर राहुल और कांग्रेस को रक्षात्मक होने या बयान वापस लेने के लिए विवश कर सकती थी। अगर जनता किसी नेता और पार्टी के विरुद्ध दिखने लगे, माहौल खिलाफ हो जाए तो उसके पास पीछे हटने के अलावा कोई चारा नहीं होता। राहुल अमेरिका में केवल इल्हान उमर जैसी भारत विरोधी और पाकिस्तान समर्थक से ही नहीं मिले। मुलाकातियों में व्हाइट हाउस में हमेशा भारत के विरुद्ध शरारत भरे प्रश्न करने वाले बांग्लादेशी पत्रकार से भी राहुल की मुलाकात हुई। यह अनुमान सहज लगाया जा सकता है कि यदि भारत विरोधी समूह राहुल से मिल रहा था तो उसका एजेंडा क्या रहा होगा?

सिखों के मामले में राहुल गांधी के बयान का आतंकी गुरपतवंत सिंह पन्नू समर्थन करता है और वह इसका प्रतिवाद नहीं करते। देश में इसके विरुद्ध नैरेटिव भी नहीं बनता। ऐसी तो नौबत आनी ही नहीं चाहिए थी कि मल्लिकार्जुन खरगे भाजपा को ही आरोपित करने वाला पत्र प्रधानमंत्री को लिखते। भाजपा अध्यक्ष और केंद्रीय मंत्री जगत प्रकाश नड्डा के उत्तर में राहुल पर टिप्पणियां थीं और कांग्रेस द्वारा प्रधानमंत्री मोदी के लिए प्रयुक्त किए गए अपशब्दों का विवरण। इसमें सिखों पर दिए गए बयान या उनकी मुलाकातियों वाला अक्षम्य आचरण नेपथ्य में चला गया। भाषाओं के संदर्भ में दिया गया राहुल का वक्तव्य भी स्पष्ट विभाजनकारी और देश में संघर्ष पैदा करने वाला था।

पिछले काफी समय से राहुल का पूरा नैरेटिव देश के अंदर जाति, समुदाय, भाषा, क्षेत्र, आर्थिक स्थिति आदि के आधार पर लोगों को संघर्ष के लिए उकसाने पर केंद्रित हो चुका है। भाजपा उनके विरुद्ध मीडिया में प्रतिक्रिया देती है, राहुल आगे बढ़कर कुछ और बोलते हैं, जिसे उनका इकोसिस्टम फैलाने में जुट जाता है। खुद को हिंदू कहने वाले हिंसा-नफरत करते हैं... वाला राहुल का भाषण हिंदुत्व विचारधारा वाले सभी संगठनों, उसे मानने वाले व्यक्तियों के विरुद्ध उनके अभियान का खतरनाक हिस्सा था और अमेरिका का उनका वक्तव्य उसी का विस्तार था। कुछ भाजपा सांसदों ने उक्त भाषण का विरोध किया तो उसे संसद के रिकार्ड से निकाल दिया गया, लेकिन इंटरनेट मीडिया पर वह पूरा भाषण उपलब्ध है। देश में इस भाषण के वीडियो को अभियान की तरह ले जाकर माहौल बनाया जा सकता था। यह सब नहीं हो पा रहा तो यह चिंता का विषय है।

अगर भाजपा सरकार में होते हुए राहुल और उनकी विचारधारा से लड़ते हुए, उन्हें और उनके पूरे इकोसिस्टम को रक्षात्मक होने को विवश करते हुए नहीं दिख रही है तो यह असाधारण संकट का प्रमाण है। सनातन और हिंदुत्व के विरुद्ध जिस तरह का विष-वमन आइएनडीआइए के घटकों ने किया, उसके विरुद्ध भी ऐसी स्थिति नहीं पैदा की गई, जिससे आम लोग उनके विरोध में खड़े होकर उनके इकोसिस्टम पर प्रहार कर पाते। बौद्धिक क्षेत्र में जिस प्रखरता से इन विषयों को उठाया गया, उसका रत्ती भर भी असर राजनीति और संगठन के स्तर पर हुआ होता तो माहौल दूसरा होता। भाजपा के पास तो इस पूरे सोच का तथ्यों के साथ खंडित करने का ठोस आधार है। उदाहरण के लिए तमिल भाषा के विकास, तमिल विद्वानों का वैश्विक सम्मान तथा अन्य भाषाओं के साथ उसके समागम के जितने कदम मोदी सरकार ने उठाए, उतने किसी ने नहीं उठाया। इसी तरह भारत की सभी भाषाओं में प्रोफेशनल शिक्षा देने की नीति पहली बार बनी। फिर भी भाजपा अपने विरोधियों को बेनकाब नहीं कर पा रही है। इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि गलत नैरेटिव से भ्रमित होकर उसे सही मानने वालों की संख्या बढ़ी है और लोकसभा 2024 का परिणाम इसका साक्षी है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं राजनीतिक विश्लेषक हैं)