हृदयनारायण दीक्षित। कुंभ पर्व के शुभागमन की पगध्वनि सुनाई पड़ रही है। साहित्यकारों की गैलरी का नवीनीकरण हो रहा है ताकि प्रतिष्ठित साहित्यकारों के आडियो और वीडियो सुने-देखे जा सकें। इसके अलावा भी तमाम तैयारियां चल रही हैं। सारी दुनिया से प्रयागराज के महासंगम में करोड़ों श्रद्धालु आते हैं, लेकिन सबसे बड़ी खबर संतों की है।

महाकुंभ में 370 दलितों को महंत, पीठाधीश्वर जैसी प्रतिष्ठित जिम्मेदारियां सौंपी जाएंगी। यह कार्य जूना अखाड़ा के पीठाधीश्वर महेंद्रानंद गिरि को करना है। यह खबर सामाजिक समरसता को पुष्ट करने वाली है, लेकिन इसकी अनदेखी नहीं कर सकते कि आज समाज विभाजक तत्वों ने अनेक मोर्चे खोल रखे हैं। अनुसूचित जातियों- जनजातियों को हिंदू समाज से अलग रहने के लिए उकसाया जा रहा है। जाति विभाजन चिंता का विषय है।

अनुसूचित जातियों- जनजातियों को मूल धारा से अलग करने के प्रयास हो रहे हैं। मतांतरण कराने वाली शक्तियां सक्रिय हैं। चुनौती बड़ी है। परस्पर आत्मीयता बढ़ाने के लिए सामाजिक समरसता अपरिहार्य है। दलित-वंचित बंधुओं से संवाद आवश्यक है। सामाजिक समरसता को हर हाल में बचाना और बढ़ाना राष्ट्रीय कर्तव्य है। सामाजिक समरसता अपरिहार्य है।

भारत की संत परंपरा अद्वितीय है। रामानुज, रामानंद, तुलसीदास, कबीर, रविदास, सूरदास सहित अनेक संतों ने भारतीय ज्ञान परंपरा और भाईचारे को समृद्ध किया है। शंकराचार्य ने वेदांत दर्शन को विश्व व्यापी बनाया। इतिहास के मध्यकाल में संतों के प्रवाह ने आंदोलन जैसा रूप धारण किया।

मार्क्सवादी शिवकुमार मिश्र ने भी लिखा है कि भक्ति आंदोलन में कोटि-कोटि साधारण जन ही शिरकत नहीं करते, समग्र राष्ट्र की शिराओं में इस आंदोलन की ऊर्जा स्पंदित होती है। जबरदस्त ज्वार उफनाता है कि उत्तर, दक्षिण, पूर्व और पश्चिम सब मिलकर एक हो जाते हैं, सब एक-दूसरे को प्रेरणा देते हैं, एक दूसरे से प्रेरणा लेते हैं। अपनी आध्यात्मिक तृषा बुझाते हैं, एक नया आत्मविश्वास, आत्मसम्मान के साथ जिंदा रहने की, शक्ति पाते हैं।

कुंभ में दलितों को सम्मान देने के प्रयास का स्वागत किया जाना चाहिए। राजनीति के क्षेत्र में सामाजिक समता और सामाजिक न्याय की बातें चलती हैं। राजनीतिक दल जाति समाप्ति के आदर्श दिखाते हैं। वे जातियों को स्थिर इकाई मानते हैं, लेकिन अपनी जाति की श्रेष्ठता बघारते हैं। जाति सामाजिक बुराई है।

गांधी, आंबेडकर, लोहिया, श्याम प्रसाद मुखर्जी जैसे वरिष्ठ नेता जाति के खात्मे की बात आगे बढ़ाते रहे। आंबेडकर ने कहा था कि जाति खत्म करना जरूरी है। जाति खत्म होकर रहेगी। इसलिए कि वह अप्राकृतिक है। भारतीय चिंतन दर्शन में जाति वर्ग जैसे शब्दों का उल्लेख नहीं है। प्रत्येक मनुष्य अनूठा है। अद्वितीय है। अनंत संभावनाओं से युक्त है। उसकी प्रतिभा का आदर और सदुपयोग करना राष्ट्र राज्य का दायित्व है।

जो लोग जाति का खात्मा चाहते हैं, उन्हें चाहिए कि पुराने सामाजिक वर्गों की परवाह न करते हुए समग्र समाज के लिए काम करें। व्यक्ति में अनेक क्षमताएं होती हैं। सब एक जैसे नहीं हो सकते। किसी की क्षमता विस्मित करती है। किसी की क्षमता निराश करती है। सब अपने हैं। जाति-पंथ के भेद का उपचार अलगावाद नहीं है। कुछ व्यक्ति अपनी मान्यताओं के प्रति आग्रही होते हैं। समाज का एक वर्ग भिन्न रास्ता अपनाता है। परस्पर टकराव होता है। सामाजिक समरसता सभी कठिनाइयों का समाधान है।

भारतीय दर्शन और उपनिषदों सहित सभी ग्रंथों में रस शब्द की महत्ता है। रस जीवन का प्रवाह है। रस का अनुभव व्यक्ति के पूरे व्यक्तित्व को प्रभावित करता है। तैत्तरीय उपनिषद के ऋषि ने ब्रह्म को रस कहा है- रसो-वै सह। प्रत्येक व्यक्ति के अंतरंग में रस प्रवाहित होता है। शंकराचार्य ने लिखा है, ”खट्टा मीठा आदि तृप्तिदायक पदार्थ लोक में रस नाम से प्रसिद्ध है।

ऐसे रस से युक्त पुरुष आनंदी हो जाता है।” प्रत्येक व्यक्ति का स्वभाव भिन्न-भिन्न होता है। बहुत लोगों को यह जीवन संघर्ष लगता है। बुद्ध के अनुसार यह जीवन दुखमय है। किसी-किसी को यह जीवन ईश्वर का प्रसाद लगता है। सबके रस भिन्न-भिन्न होते हैं। समान भाव, समान रस संपूर्ण समाज को आनंदित करते हैं। इसे समरसता कहते हैं। सामाजिक समरसता और समता पर्यायवाची नहीं हैं।

प्रत्येक व्यक्ति की भाषा, भावना, प्रीति, अभिव्यक्ति और क्षमता भिन्न-भिन्न प्रकार की होती है। समरसता के मिलते ही समता अपने आप मिल जाती है। अनुसूचित जातियों और जनजातियों को सामाजिक विषमता के कारण बड़ी कठिनाइयां झेलनी पड़ी हैं। संविधान निर्माताओं और राष्ट्र राज्य ने ऐसे वर्गों के लिए तमाम रक्षोपायों की व्यवस्था की है। स्वाभाविक ही इस वर्ग के लोगों में सुंदर भविष्य की कामना है। इन्हें मिल रही सुविधाएं औचित्यपूर्ण हैं, लेकिन परस्पर समरसता नहीं है। उन्हें अपने बीच का सरकारी अफसर, नेता, विधायक, सांसद, मंत्री और राज्य प्रमुख अच्छा लगता है। अपने देश में राष्ट्रपति का पद सबसे बड़ा है। आज कमजोर वर्गों को लगता है कि राष्ट्रपति उनके घर का है।

भारतीय समाज में प्राचीन काल से ही साधु संतों का विशेष सम्मान रहा है। गरीबों वंचितों के बीच से कोई प्रधान निर्वाचित होते हैं तो उन्हें खुशी होती है। वंचित वर्गों से लोगों का संत-महंत बनना वाकई किसी बड़े सामाजिक परिवर्तन की शुरुआत है। अब राष्ट्र जीवन का कोई ऐसा क्षेत्र नहीं है, जहां वंचित वर्ग के लोग उपस्थित न हों।

कुंभ में दुनिया के अनेक देशों के निवासी आते हैं। संतों- महंतों का यह विशेष कार्यक्रम कुंभ में दर्शनीय होगा। यह कार्यक्रम सामाजिक समरसता का संगम बनना चाहिए। कुंभ अंतरराष्ट्रीय आश्चर्य है। बिना बुलाए करोड़ों लोगों की उपस्थिति विस्मित करती है। प्रयागराज में अमृतरस से भरा कुंभघट छलकता है। सारी दुनिया के जिज्ञासु, आस्तिक और नास्तिक भी आते हैं। भिन्न-भिन्न भाषा और उपासना पद्धति वाले भी यहां आते हैं। तब सारी दिशाएं अनुकूल होकर कुंभ का स्वागत करती हैं। यह हर समय विस्मित करता है। करोड़ों आते और जाते हुए देखे जाते हैं। आश्चर्य नहीं कि मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ कुंभ व्यवस्था के प्रति सजग हैं।

प्रयाग में सैकड़ो वर्ष पहले (644 ई.) राजा हर्षवर्धन गरीबों के बीच धन दान करते थे। चीनी यात्री ह्वेन सांग ने इसकी प्रशंसा की है। यूनेस्को कुंभ को विशिष्ट सांस्कृतिक महत्व का आयोजन घोषित कर चुका है। प्रयाग में तीन नदियों का संगम है। सारी दुनिया के साधु-संत विद्वान यहां आते हैं। संतों के इस निर्णय का स्वागत करना चाहिए। आशा है कि कुंभ से सारी दुनिया को संदेश जाएगा कि भारत ने समाज को बांटने वाली शक्तियों के विरुद्ध निर्णायक संग्राम छेड़ा है। कुंभ से चला ‘सामाजिक समरसता‘ का संदेश पूरे देश में प्रवाहित होना चाहिए।

(लेखक उत्तरप्रदेश विधानसभा के पूर्व अध्यक्ष हैं)