जागरण संपादकीय: सत्ता के लिए सब कुछ दांव पर, नीति-सिद्धांत-विचारधारा न इधर है, न उधर
शायद महाराष्ट्र की तरह झारखंड में भी लोकसभा चुनाव में लगा झटका इसका कारण हो। कांग्रेस और राजद की उदारता से विपक्षी गठबंधन आइएनडीआइए वामपंथियों को भी साथ लेने में सफल हो गया है। गैर आदिवासी क्षेत्रों में भाजपा की बेहतर स्थिति के बावजूद माना जा रहा है कि सत्ता की जंग में आदिवासी बहुल विधानसभा सीटें निर्णायक साबित हो सकती हैं।
राज कुमार सिंह। महाराष्ट्र और झारखंड विधानसभा चुनावों में जोड़तोड़-गठजोड़ से लेकर लोक लुभावन वायदों तक पर जोर बताता है कि सत्ता के दावेदारों को अपने दम पर भरोसा नहीं। ये दावेदार कभी-न-कभी सत्ता में रह चुके हैं। फिर ऐसा क्यों है कि उन्हें अपने काम पर जनादेश का विश्वास नहीं? इस सवाल का जवाब बिना दिए भी समझा जा सकता है।
इसीलिए दोनों ही राज्यों में येन केन प्रकारेण सत्ता हासिल करने के लिए जोड़तोड़-गठजोड़ से लेकर मुफ्त की रेवड़ियों तक हरसंभव बिसात बिछानी पड़ी है। सत्ता के इस खेल में इस बात की परवाह किसी ने नहीं की कि इन राज्यों की पहले से खराब अर्थव्यवस्था के लिए उनकी चुनावी चालें कितनी घातक साबित होंगी।
दरअसल सत्ता की जंग में सब कुछ जायज मान लिया गया है-और इस काम में कोई किसी से पीछे नहीं। पिछले पांच साल महाराष्ट्र लगातार राष्ट्रीय राजनीति के भी केंद्र में बना रहा। 2019 के विधानसभा चुनाव में भाजपा-शिवसेना को मिले स्पष्ट बहुमत से लेकर मुख्यमंत्री पद पर टकराव और अलगाव तथा फिर बेमेल गठबंधनों के बीच सत्ता के खेल तक महाराष्ट्र ने राजनीतिक पतन के नए आयाम ही स्थापित किए।
भाजपा ने शरद पवार की राकांपा से भतीजे अजित पवार की कुछ दिनों की बगावत के जरिये 80 घंटों की सरकार बना कर अपनी साख दांव पर लगाई तो मुख्यमंत्री बनने के लिए उद्धव ठाकरे ने उसी कांग्रेस से हाथ मिला लिया, जिसके विरुद्ध उनके पिता बाला साहेब ठाकरे ने शिवसेना बनाई थी। राजनीति की नाटकीयता यहीं समाप्त नहीं हुई।
हिंदुत्व के मुद्दे पर अपने सबसे पुराने और मुखर साथी रहे बाला साहेब के उत्तराधिकारी उद्धव को मुख्यमंत्री न बनाने वाली भाजपा ने उनकी शिवसेना तोड़ने वाले एकनाथ शिंदे को मुख्यमंत्री और अपने पूर्व मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस को उप मुख्यमंत्री बना कर अपनी साख फिर सवालिया निशान स्वयं लगा लिया।
80 घंटे की फडणवीस सरकार में उप मुख्यमंत्री रह कर राकांपा में लौट गए अजित में फिर बगावत ने अंगड़ाई ली और वह विधायकों के बहुमत के साथ पार्टी तोड़ कर भाजपा-शिंदे शिवसेना की महायुति सरकार संग जाकर पांचवीं बार राज्य के उप मुख्यमंत्री बन गए। सत्ता के इस खेल में नीति-सिद्धांत-विचारधारा न इधर थी, न उधर। बस सत्ता की धारा ही सभी के सिर चढ़ कर बोल रही थी। जब जैसे जिसको मौका मिल रहा था, वह सत्ता की धारा में डुबकी लगा रहा था।
महाराष्ट्र में परिवार भी टूटे। अब अजित पवार ने कहा है कि 2019 के नाटक के रचयिता तो शरद पवार ही थे। मान चाचा ने भी लिया है कि हां, वह भाजपा के साथ सरकार बनाने की विचार प्रक्रिया में शामिल थे, पर उस पर भरोसा नहीं कर पाए। महाराष्ट्र के चुनावी परिदृश्य में भाजपा और कांग्रेस ही दो बड़े दल हैं।
भाजपा की महायुति और कांग्रेस की महाविकास आघाड़ी, दोनों में ही गिनती के लिए तीन-तीन दल हैं, लेकिन दरअसल शेष दो दल विभाजित गुट हैं, जिनकी राजनीतिक स्वीकार्यता की परीक्षा हैं ये चुनाव। शिंदे के नेतृत्ववाली शिवसेना और अजित पवार के नेतृत्ववाली राकांपा, महायुति में है तो उद्धव के नेतृत्ववाली शिवसेना और शरद पवार के नेतृत्ववाली राकांपा, महाविकास आघाड़ी में है।
विचित्र स्थिति है कि दोनों बड़े दल इन गुटों पर ज्यादा निर्भर नजर आ रहे हैं, जबकि उनकी विश्वसनीयता संदिग्ध बनी हुई है। शरद पवार अपने विधायकों की संख्या से भी कई गुणा सीटें अपनी राकांपा के लिए हासिल करने में सफल रहे। अजित पवार महायुति में होते हुए भी भाजपा की चुनावी रणनीति का मुखर विरोध कर रहे हैं।
भाजपा जिन नबाव मलिक पर अंडरवर्ल्ड से रिश्तों के आरोप लगाती रही, उन्हें और उनकी बेटी को भी अजित ने विधानसभा टिकट दिया। यह कौन-सा गठबंधन धर्म है? शिंदे के साथ भाजपा के रिश्ते सहज नजर आते हैं, पर उन्हें दी गईं ज्यादा सीटों में राजनीतिक जोखिम भी है। खुद सत्ता के दावेदारों में ऐसे भ्रम के बीच मतदाता के लिए किसी दल-उम्मीदवार का चयन आसान तो नहीं होगा।
झारखंड का चुनावी परिदृश्य भी जोड़तोड़ और वायदों के मायाजाल से मुक्त नहीं है। तमाम आशंकाओं के बीच झारखंड मुक्ति मोर्चा-कांग्रेस-राजद गठबंधन सरकार कार्यकाल पूरा करने में सफल रही, लेकिन इस बीच एक ‘मनी लांड्रिंग’ मामले में मुख्यमंत्री पद छोड़ कर हेमंत सोरेन को कुछ महीने जेल में गुजारने पड़े।
उस दौरान मुख्यमंत्री बनाए गए चम्पाई सोरेन ही इस चुनाव में भाजपा के लिए आदिवासी क्षेत्रों में ‘ट्रंप कार्ड’ बनते नजर आए। महाराष्ट्र में अगर पवार परिवार विभाजित हुआ तो झारखंड में भी मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन का परिवार टूट चुका है। उनकी भाभी सीता सोरेन भाजपा में हैं।
चुनाव पूर्व दलबदल तो अब भारतीय राजनीति का स्थायी चरित्र बन गया है, लेकिन आदिवासी क्षेत्रों में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की लंबे समय से सक्रियता तथा बाबूलाल मरांडी और अर्जुन मुंडा सरीखे मुख्यमंत्री रह चुके आदिवासी नेता होते हुए भी भाजपा के लिए चम्पाई सोरेन का इतना महत्वपूर्ण हो जाना बताता है कि बढ़त के संकेतों के बावजूद वह जीत के प्रति आश्वस्त नहीं।
शायद महाराष्ट्र की तरह झारखंड में भी लोकसभा चुनाव में लगा झटका इसका कारण हो। कांग्रेस और राजद की उदारता से विपक्षी गठबंधन आइएनडीआइए वामपंथियों को भी साथ लेने में सफल हो गया है। गैर आदिवासी क्षेत्रों में भाजपा की बेहतर स्थिति के बावजूद माना जा रहा है कि सत्ता की जंग में आदिवासी बहुल विधानसभा सीटें निर्णायक साबित हो सकती हैं। ध्यान रहे कि लोकसभा चुनाव में आदिवासी बहुल सभी पांच सीटों पर आइएनडीआइए जीत हासिल करने में सफल हो गया था। शायद इस बार घुसपैठ के मुद्दे से समीकरण बदल जाएं।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं राजनीतिक विश्लेषक हैं)