डॉ. एनके सोमानी। वैश्विक अर्थव्यवस्था के एक चौथाई हिस्से का प्रतिनिधित्व करने वाले देशों के समूह ब्रिक्स का विस्तार हो गया है। मिस्र, इथियोपिया, ईरान, सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात (यूएई) के इस समूह का हिस्सा बनने के बाद पांच सदस्य देशों वाले ब्रिक्स की सदस्य संख्या बढ़कर दस हो गई है। हालांकि अर्जेंटीना ने भी पूर्णकालिक सदस्यता के लिए आवेदन किया था, लेकिन वहां के नए राष्ट्रपति जेवियर मिलेई ने ऐन वक्त पर यह कहते हुए अपना प्रस्ताव वापस ले लिया था कि हमारे लिए सदस्यता का यह सही समय नहीं है। मालूम हो कि पिछले वर्ष अगस्त में जोहानिसबर्ग में आयोजित ब्रिक्स शिखर सम्मेलन में समूह के नेताओं ने एक जनवरी से अर्जेंटीना समेत छह देशों को इससे जोड़ने के प्रस्ताव को मंजूरी दी थी। इससे पहले समूह में सिर्फ ब्राजील, रूस, भारत, चीन और दक्षिण अफ्रीका शामिल थे।

पश्चिम एशिया एवं उत्तरी अफ्रीका के देशों के ब्रिक्स का हिस्सा बनने के बाद अब ब्रिक्स की क्षेत्रीय गतिशीलता को बदलने की क्षमता बढ़ गई है। अमेरिका और यूरोप के आर्थिक साम्राज्य को चुनौती देने वाले देशों के एक मंच पर एकत्रित होने से पश्चिमी देशों के माथे पर भी चिंता की लकीरें दिखने लगी हैं। इसकी बड़ी वजह यह है कि ब्रिक्स देशों की जीडीपी वृद्धि काफी तेज है, जबकि विकसित देशों की वृद्धि थम सी चुकी है। वैश्विक जीडीपी में पश्चिम एशिया एवं उत्तरी अफ्रीका के देशों की हिस्सेदारी 2011 में 20.51 प्रतिशत से बढ़कर वर्ष 2023 में 26.62 प्रतिशत हो गई।

वैसे जिस तरह से अमेरिका और यूरोप के प्रभाव से निकलकर ये देश एक मंच पर आ रहे हैं, उससे यह सवाल उठने लगा है कि अन्य संगठनों की तरह कहीं ब्रिक्स का विस्तारित रूप भी आपसी कलह का केंद्र न बन जाए। यह सवाल इसलिए अहम हो जाता है, क्योंकि ब्रिक्स की दो बड़ी शक्तियों चीन और भारत के बीच संबंध हमेशा से उतार-चढ़ाव वाले रहे हैं। इसका एक कारण यह भी है कि अमेरिका के कथित आर्थिक आभामंडल को भेदकर जो देश ब्रिक्स का हिस्सा बने हैं या बनना चाहते हैं, उनमें से कुछ देश चीन के प्रभाव में आ सकते हैं। भारत के लिए यह स्थिति सहज नहीं होगी।

पिछले कुछ वर्षों में ब्रिक्स जिस तरह वैश्विक आर्थिक विकास का उत्प्रेरक बनकर उभरा है, उससे विकासशील देशों को इसमें अपना भविष्य दिखने लगा है। इन्हें ब्रिक्स में दोतरफा लाभ नजर आ रहा है। पहला, आर्थिक और दूसरा, रणनीतिक। दोनों ही स्तर पर ब्रिक्स के सदस्य देशों के लिए यह फायदे का सौदा हो सकता है। सऊदी अरब और यूएई अपनी मजबूत अर्थव्यवस्था के जरिये ब्रिक्स से लाभ लेना चाहेंगे। पिछले कुछ समय से जिस तरह से ब्रिक्स देशों का मुख्य फोकस आर्थिक विकास और गरीबी उन्मूलन पर रहा है, मिस्र जैसी उभरती अर्थव्यवस्था को इसका लाभ मिल सकता है।

ईरान के लिए आर्थिक और रणनीतिक, दोनों ही मोर्चों पर ब्रिक्स का साथ मिलना फायदेमंद होगा। पश्चिमी देशों द्वारा लगाए गए आर्थिक प्रतिबंधों के कारण ईरान अकेला पड़ गया था। अब ब्रिक्स देशों के साथ आने से उसकी अर्थव्यवस्था इससे उबर सकेगी। प्रतिबंधों के बावजूद ईरान का तेल उत्पादन बढ़ा है। मीडिया रिपोर्ट के अनुसार पिछले साल अकेले अगस्त माह में ईरान ने 2.2 करोड़ बैरल तेल का प्रतिदिन उत्पादन किया।

ईरान ने इस तेल का अधिकांश हिस्सा चीन को बेचा है। सऊदी अरब के साथ भी अब ईरान के संबंध पहले जैसे शत्रुतापूर्ण नहीं हैं। गत वर्ष मार्च में चीन की मध्यस्थता से दोनों देशों के बीच हुए समझौते के बाद ईरान अब पूरी तरह से खाड़ी के दूसरे देशों, लाल सागर और अफ्रीका में अपनी स्थिति मजबूत कर रहा है। ईरान का प्रवेश ब्रिक्स के लिए भी लाभकारी है। ईरान के चाबहार बंदरगाह के जरिये उत्तर-दक्षिण के देशों में कनेक्टिविटी बढ़ेगी। भारत पहले से ही चाबहार परियोजना से जुड़ा हुआ है।

पश्चिमी देशों का यह कहना सही नहीं है कि ब्रिक्स का अपना कोई साझा दृष्टिकोण नहीं है और यह केवल ‘बातचीत की दुकान’ है। ब्रिक्स के देश आज वैश्विक आर्थिक विकास के अगुआ बनकर उभर रहे हैं।

ब्रिक्स की आलोचना करने के बजाय उन्हें इसके शिखर सम्मेलनों और बैठकों में उठाए जा रहे मुद्दों पर भी गौर करना चाहिए। इसमें शामिल देश बहुध्रुवीय विश्व व्यवस्था की वकालत करते हैं। इन देशों का मानना है कि संसाधनों पर कुछ गिने-चुने देशों का प्रभाव होने के बजाय वे समस्त मानवता के लिए उपलब्ध होने चाहिए। इसके ठीक विपरीत पश्चिमी देश विश्व बैंक, अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष और संयुक्त राष्ट्र जैसे विभिन्न निकायों पर नियंत्रण के पक्षधर रहे हैं। रूस-यूक्रेन संघर्ष के दौरान पश्चिम की पूंजीवादी ताकतों ने जिस तरह से रूस पर प्रतिबंध लगा कर उसे आर्थिक लेन-देन में मददगार स्विफ्ट प्रणाली से बाहर कर दिया, उससे विकासशील देशों की आशंका और अधिक बढ़ गई। इस प्रकार की मनमानी के चलते विकासशील देश नए विकल्प खोजने लगे।

परिणामस्वरूप अब पश्चिम एशिया एवं उत्तरी अफ्रीका के देशों के प्रवेश के बाद ब्रिक्स वैश्विक जीडीपी का 29.6 प्रतिशत और दुनिया की कुल जनसंख्या के 46 प्रतिशत हिस्से का प्रतिनिधित्व करेगा। साथ ही 43.1 प्रतिशत तेल भंडार पर इसका नियंत्रण होगा। शायद यही वजह है कि अभी भी 30 से अधिक देश ब्रिक्स से जुड़ने के लिए आतुर हैं। उम्मीद है रूस की अध्यक्षता के दौरान कई और देश ब्रिक्स के बहुपक्षीय एजेंडे में शामिल होंगे। ऐसा होता है तो बहुध्रुवीय, बहुपक्षीय और टिकाऊ विश्व व्यवस्था की स्थापना की ब्रिक्स की आवाज और अधिक मुखर होगी।

(लेखक अंतरराष्ट्रीय मामलों के प्राध्यापक हैं)