श्रीराम चौलिया : पिछले दो दशकों के दौरान में चीन का उभार बीते अंतरराष्ट्रीय पटल पर सबसे अहम परिवर्तन रहा है। चीन के उभार ने 21वीं सदी में विश्व राजनीति की दशा और दिशा बदली है। चीन के उदय ने उस विश्व व्यवस्था को हिला दिया, जिसे पश्चिमी विश्लेषक अमेरिकी नायकत्व के अंतर्गत 'एकध्रुवीय' और 'स्थिर' माना करते थे। आज भूराजनीतिक प्रतिस्पर्धा, संघर्ष और तनाव का सिलसिला कायम है और इसका मूल कारण भी चीन ही है।

इस समय अंतरराष्ट्रीय अनिश्चितता का जो व्यापक परिवेश बना हुआ है, उसके पीछे चीनी दादागीरी और अपने सिद्धांतों के अनुरूप नई विश्व व्यवस्था के निर्माण की चेष्टा है। मूलतः चीन ने अत्यंत तेज आर्थिक विकास दर के जरिये छलांग लगाकर स्वयं को चोटी पर पहुंचाया है। बीते कुछ दशकों के दौरान तीव्र आर्थिक वृद्धि से चीन ने एक प्रकार का चमत्कार ही कर दिखाया। उद्योगीकरण, शहरीकरण और निर्यात को प्रोत्साहित करने वाले वैश्वीकरण के माध्यम से चीन एक उभरती शक्ति से 'महाशक्ति' में बदल गया।

राष्ट्रपति शी चिनफिंग के कार्यकाल में सैन्य शक्ति में बढ़ोतरी, अस्त्र-शस्त्रों में भारी निवेश और पड़ोसी देशों के प्रति धमकाने वाला रवैया चीन के सतत आर्थिक विकास के आत्मविश्वास की नींव से ही उपजा। यदि चीन लंबी अवधि तक आर्थिक वृद्धि के दम पर सफलता हासिल नहीं कर पाता और इतनी पूंजी नहीं जुटाता तो आज वहां बड़े पैमाने पर अराजकता देखने को मिलती।

चूंकि मार्क्सवादी और माओवादी विचारधारा में भौतिक कारकों को प्रधानता दी जाती है इसलिए चीनी नेता अक्सर भौतिक शक्ति के आधार पर अंतरराष्ट्रीय समीकरणों और संभावनाओं का आकलन करके नीतियां अपनाते हैं। विशेषकर शी चिनफिंग ने अति राष्ट्रवादी और आक्रामक विदेश नीति से चीनियों को यही आश्वासन देने का प्रयास किया है कि चीन का आर्थिक इंजन न रुकेगा और न थमेगा। उनके नेतृत्व में चीन ने अपनी विशिष्ट कूटनीति की यही अवधारणा प्रस्तुत की है कि वह निरंतर तेज आर्थिक वृद्धि के दम पर अगले 25 वर्षों में अमेरिका और यूरोप से काफी आगे निकल जाएगा।

कोविड महामारी के दौरान और उसके बाद चीन यही समझाता रहा कि अन्य बड़े देशों के मुकाबले वह जल्दी पटरी पर आ जाएगा और बाकी देशों को पछाड़कर अपने 'मार्क्सवादी-नियंत्रित पूंजीवादी' प्रतिरूप की श्रेष्ठता सिद्ध करेगा। ऐसा नहीं हुआ। उलटे शी चिनफिंग की बढ़ती तानाशाही प्रवृत्ति, वैचारिक कट्टरता और उनकी नीतियों के विरुद्ध घरेलू एवं अंतरराष्ट्रीय प्रतिरोध ने चीनी आर्थिक करिश्मे पर ग्रहण लगा दिया है।

2022 में चीन की आर्थिक वृद्धि दर केवल तीन प्रतिशत रही, जो चार दशकों में सबसे कम थी। अर्थशास्त्रियों का मानना है कि चीन के लिए अब वह दौर बीत गया, जब वह साल दर साल सात से दस प्रतिशत तक की वृद्धि हासिल करने में सफल रहता था। अनुमान है कि चीन की वार्षिक आर्थिक वृद्धि 2030 तक केवल तीन प्रतिशत और 2040 तक दो प्रतिशत रह जाएगी, जबकि अब से 2050 तक कुल मिलाकर विकास दर औसतन दो से तीन प्रतिशत के दायरे में रहेगी।

चिनफिंग की गलत नीतियों के चलते आती आर्थिक सुस्ती के अलावा चीन की वृद्ध होती जनसंख्या भी उसके लिए एक चिंताजनक पहलू है। चीन की जन्म दर गिरकर 1.28 हो गई है, जो बुढ़ापे की व्यापक समस्या से जूझ रहे जापान से भी कम है। इसके अलावा पश्चिमी देशों द्वारा चीन में निवेश घटाने के संकेत भी यही दर्शाते हैं कि आने वाले दशक में चीन की विकास दर पर धीरे-धीरे विराम लगता जाएगा। चीन के आवास बाजार में गंभीर मंदी, युवा बेरोजगारी में बढ़ोतरी और प्रांतीय सरकारों के अत्यधिक कर्ज जैसी समस्याओं को चीन की केंद्रीय सरकार सुलझा नहीं पा रही है। इस नीतिगत अक्षमता और लाचारी को हल करने के लिए बीजिंग के हाथ में कोई जादुई छड़ी भी नहीं। ऐसे में बड़ा सवाल है कि चिनफिंग जैसे निरंकुश शासक विदेश नीति के मोर्चे पर क्या करेंगे?

अगर चीन आर्थिक तौर पर कमजोर होता जाएगा तो क्या अंतरराष्ट्रीय राजनीति में शी चिनफिंग नरमी का रुख अपनाकर बुद्धिमानी दिखाएंगे या फिर सत्ता में आजीवन बने रहने की लालसा और अहंकार के चलते वह और अधिक विस्तारवादी एवं सैन्यवादी चेहरा दिखाएंगे? इस संदर्भ में अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन ने बड़ी रोचक टिप्पणी की है।

उन्होंने कहा है कि जब बुरे लोगों को समस्या होती है, तो वे बुरे काम करते हैं। शी चिनफिंग के चरित्र और मानसिकता से यही स्वाभाविक लगता है कि वह आर्थिक विफलता की भरपाई विदेश नीति में दुस्साहस से करेंगे, ताकि चीन की असंतुष्ट जनता को राष्ट्रवादी पुनर्जागरण के स्वप्न के जरिये काबू में रखा जाए। ताइवान, जापान, दक्षिण चीन सागरीय देशों और भारत के विरुद्ध चीन की मोर्चाबंदी आने वाले समय में और खतरनाक हो सकती है। वह भारत से संबंध सुधारने का इच्छुक नहीं और इसीलिए विदेश मंत्री एस जयशंकर ने एक बार फिर यह कहा कि चीन के साथ रिश्ते असामान्य हैं।

आर्थिक तरक्की के आधार पर जो देश पड़ोसियों पर नियंत्रण जमाने की कोशिश करता था, वह अब ताकत में आती कमी के नशे में उन्मुक्त हाथी की तरह हिंसक व्यवहार कर सकता है। चीन की कमजोर होती अर्थव्यवस्था के कारण विरोधियों पर हमले की गुंजाइश और अवसर धीरे-धीरे घटते जाएंगे। चूंकि इधर भारत भी तेजी से प्रगति करते हुए चीन के साथ शक्ति संतुलन को पाट रहा है, इसलिए भारत पर नियंत्रण की मंशा चिनफिंग जैसे निरंकुश शासक के मन में स्वाभाविक ही होगी। इसलिए भारत को चीन की आर्थिक कमजोरी के रुझान पर पैनी नजर रखनी पड़ेगी।

इसके साथ ही प्रत्येक मोर्चे पर खुद को सशक्त रखना होगा। चीन के रवैये से पीड़ित भारत सहित अन्य देशों को यह मानकर रणनीति बनानी होगी कि जब तक शी चिनफिंग सत्ता में हैं, तब तक सीमाओं पर टकराव और भू-राजनीतिक प्रतिस्पर्धा बढ़ती ही जाएगी। चीन की आर्थिक मंदी दीर्घकालिक दृष्टिकोण से वैश्विक शक्ति संतुलन और बहुध्रुवीय अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था बनाने में सहायक अवश्य है, लेकिन इस गंतव्य तक पहुंचने की राह में भारत और उसके मित्र देशों को अग्निपरीक्षा के पड़ाव से भी गुजरना होगा।

(लेखक जिंदल स्कूल आफ इंटरनेशनल अफेयर्स में प्रोफेसर और डीन हैं)