विजय क्रांति। माओ ने 1949 में कम्युनिस्ट हिंसा के माध्यम से चीनी सत्ता पर कब्जा करने से बहुत पहले ही चीन के विस्तारवादी इरादों को जाहिर कर दिया था। उनकी यह घोषणा कि ‘तिब्बत चीन की हथेली है और लद्दाख, नेपाल, सिक्किम, भूटान और नेफा (अरुणाचल) इस हाथ की अंगुलियां। इस मुट्ठी के बंधते ही पूरे एशिया पर चीन का प्रभुत्व हो जाएगा।’

माओ के इस मंसूबे के पीछे यही धारणा काम कर रही थी कि एशिया पर जिसका प्रभुत्व होगा, वही दुनिया पर राज करेगा। माओ भले ही गुजर गए, लेकिन उनके अनुवर्ती चीनी शासक उसी दिशा में आगे बढ़ रहे हैं। माओ की इस नीति को समझे बिना चीन और भूटान के बीच ‘सीमा विवाद’ को हल करने को लेकर बीजिंग की हालिया घोषणा के पीछे की असलियत समझ पाना मुश्किल होगा।

चीनी विदेश मंत्रालय ने 23 अक्टूबर को बीजिंग में चीन और भूटान के विदेश मंत्रियों की बैठक के बाद यह घोषणा कर भारत सरकार को चौंका दिया कि दोनों देश सीमा विवाद को सुलझाने के लिए सहमत हो गए हैं और जल्द ही न केवल दोनों के बीच सीमा निर्धारण की बारीकियां तय हो जाएंगी, बल्कि दोनों देशों के बीच औपचारिक स्तर पर कूटनीतिक संबंध स्थापित भी होंगे।

चीन ने अपने बयान में भूटानी विदेश मंत्री टांडी दोरजी को भी यह कहते हुए उद्धृत कर दिया कि, ‘भूटान वन-चाइना नीति का पालन करता है और दोनों देशों के बीच सीमाओं का शीघ्र निर्धारण करने तथा कूटनीतिक रिश्ते स्थापित करने के लिए तैयार है।’ सतही तौर पर ये बयान रचनात्मक लगेंगे, लेकिन जो लोग चीन और दक्षिण एशिया के प्रति उसकी नीति को थोड़ा भी समझते हैं, उनके हिसाब से यह भारत के लिए अनर्थ का संकेत है। यदि भूटान सरकार चीन की बातें मानकर उसे अपनी सीमा क्षेत्र का वह हिस्सा देने को तैयार हो जाती है, जिस पर वह आंख गड़ाए हुए है तो पूर्वोत्तर भारत के राज्यों की सुरक्षा के समक्ष खतरा और कई गुना बढ़ जाएगा।

चीन और भूटान के बीच पक रही इस खिचड़ी का भारत के लिए यही निष्कर्ष है कि जिस तरह चीन ने नेपाल और पाकिस्तान को भारत-विरोधी हरकतों के लिए अपना उपनिवेश सरीखा बना लिया है, वही हालत अब भूटान की होने वाली है। भूटान की राजधानी थिंपू में अभी तक भारत के अलावा किसी अन्य देश का दूतावास नहीं है और वह नई दिल्ली में अपने दूतावास एवं भारत सरकार के माध्यम से ही अपने अंतरराष्ट्रीय रिश्तों को चलाता आ रहा है। हाल तक चीन के साथ अपनी बातचीत को भी भूटान सरकार भारत के माध्यम से चलाती थी।

पिछले कुछ समय से चीन ने भूटान की सीमा से लगने वाले कई इलाकों पर जिस हेकड़ी के साथ अपना हक जताना शुरू किया, उससे भूटान भयभीत हुआ और वह चीन से सीधा संपर्क साधने को विवश हुआ। चीन और भूटान के बीच जो सहमति बनने की पुष्टि भूटानी विदेश मंत्री ने की है, उसके केंद्र में भूटान के वे इलाके हैं जिन पर चीन सौदेबाजी चाहता है।

पहले तो चीन का दावा भूटान-तिब्बत की उत्तरी सीमा पर जारकूलुंग और पासामलुंग तथा पश्चिम में भारत के साथ सिक्किम-भूटान सीमा पर लगने वाले डोकलाम पर ही था, लेकिन जून 2020 से चीन ने पूर्वी भूटान में साकतेंग वाइल्डलाइफ सेंक्चुरी पर भी अपना दावा ठोक दिया, जो उसकी सीमा से बहुत दूर है। उसके साथ केवल अरुणाचल प्रदेश की सीमा लगती है। इस बेतुके दावे को सही ठहराने के लिए चीन की दलील है कि अरुणाचल भी चीन का हिस्सा है।

चीन की विस्तारवादी नीति उसकी कम्युनिस्ट सरकार के कारण नहीं, बल्कि मूल हान चीनी सोच के कारण है। चीन ने 1919 में पहले दक्षिणी मंगोलिया पर कब्जा किया। उसके बाद 1945 में मंचूरिया पर, 1949 में ईस्ट-तुर्किस्तान (शिनजियांग) पर और 1951 में तिब्बत पर कब्जा कर अपनी सीमाओं को 11 नए देशों के साथ मिला लिया, जिनमें भूटान और भारत भी हैं। अपने कुल 14 पड़ोसियों में से 12 देशों के साथ उसने अपनी शर्तों पर ऐसे मौकों पर सीमा समझौते किए, जब वे कमजोर हालत में थे। उसने जानबूझकर भारत और भूटान के साथ सीमा समझौता नहीं किया। अब भूटान की नाजुक हालत में उसके साथ समझौता करके चीन भारत को मात देने की फिराक में है। तिब्बत पर कब्जे के बाद से ही उसने भूटान के साथ लगने वाली 477 किमी सीमा को विवादित रहने दिया।

भारत को आशंका है कि चीन सरकार भूटान को विशेष रियायत देने के नाम पर उसके उत्तरी इलाकों पर अपना दावा छोड़ने की पेशकश कर सकती है, बशर्ते भूटान सरकार भारत से लगने वाला डोकलाम चीन को सौंप दे। इसी कारण चीन ने डोकलाम पर अपने दावे में वहां से भारतीय सीमा की दिशा में सात किलोमीटर दूर बातांग दर्रे को भी शामिल कर लिया है, जो शेष भारत को पूर्वोत्तर से जोड़ने वाले एकमात्र 22 किमी चौड़े गलियारे के सिर पर स्थित है। भारत के इस पतले से नाजुक गलियारे को सामरिक हलकों में ‘चिकन नेक’ भी कहा जाता है। इन इलाकों पर चीन की गिद्ध दृष्टि 1962 से ही लगी हुई है।

ध्यान रहे कि चीन ने भारत में नक्सली कम्युनिस्ट आंदोलन चलाया। नक्सल मुहिम की शुरुआत बंगाल के जिस नक्सलबाड़ी गांव से हुई, वह इसी ‘चिकन नेक’ के मुहाने पर है। इस हिस्से पर कब्जे के लिए ही चीनी सेना ने 2017 में भूटान के डोकलाम पर अतिक्रमण किया था, जिसे बचाने के लिए भारतीय सेना ने चीनी सेना को 74 दिन तक रोके रखकर पीछे हटने पर मजबूर कर दिया था। दिल्ली के शाहीन बाग में चले सीएए विरोधी धरने के दौरान भी शरजील इमाम ने इसी ‘चिकन-नेक’ के घेराव और उसे भारत से अलग करने की धमकी दी थी। उसके इस बड़बोलेपन से भारतीय सुरक्षा एजेंसियों को एक बड़े अंतरराष्ट्रीय षड्यंत्र की भनक मिली थी।

अब भारत सरकार की चिंता इस बात से और बढ़नी चाहिए कि अगर भूटान सरकार इस इलाके को चीन को सौंपने के लिए तैयार हो जाती है तो भारत की अखंडता के लिए भारी खतरा पैदा हो जाएगा। चीन के रवैये ने भूटान को हमेशा से छोटा भाई और मित्र मानने वाली भारत सरकार के सामने नई कूटनीतिक और सामरिक चुनौती पैदा कर दी है।

(लेखक सेंटर फार हिमालयन एशिया स्टडीज एंड एंगेजमेंट के चेयरमैन एवं वरिष्ठ पत्रकार हैं)