[राहुल वर्मा]। कांग्रेस पिछले कुछ हफ्तों में एक साथ बेहतरीन और बदतरीन दौर से गुजरी है। बेहतरीन इसीलिए कि उसे लंबे समय के बाद पूर्णकालिक अध्यक्ष मिला है। राहुल गांधी के नेतृत्व में भारत जोड़ो यात्रा को बढ़िया प्रतिक्रिया मिल रही है। इससे कांग्रेस समर्थकों में उत्साह का संचार हुआ है। बदतरीन इस कारण कि मल्लिकार्जुन खड़गे का अध्यक्ष बनना यथास्थितिवाद का ही उदाहरण है। वह उम्मीद जगाने और आवश्यक सुधारों का सूत्रपात करने वाला चेहरा नहीं दिखते। वहीं भारत जोड़ो यात्रा अभी अपने शुरुआती दौर में है और दक्षिण में कांग्रेस के पारंपरिक गढ़ों से गुजर रही है। ऐसे में देखना होगा कि आगे भी उसमें उत्साह की यही निरंतरता कायम रहेगी और उसे इसी प्रकार समर्थन मिलेगा या नहीं?

जो भी हो, नए अध्यक्ष की नियुक्ति पार्टी के लिए बहुत महत्वपूर्ण है। पिछले आम चुनाव में करारी हार के बाद राहुल गांधी के अध्यक्ष पद छोड़ने के बाद से पार्टी का सांगठनिक ढांचा कामचलाऊ व्यवस्था का शिकार था। अस्वस्थ होते हुए भी सोनिया गांधी पार्टी की प्रमुख प्रभारी बनी हुई थीं। खांटी राजनीतिक पृष्ठभूमि वाले खड़गे 2019 से पहले कोई चुनाव नहीं हारे थे। वह कई बार विधायक और सांसद रहे। कर्नाटक के गृहमंत्री रहे। केंद्र सरकार में रेल और श्रम मंत्रालय संभाले। लोकसभा और राज्यसभा में नेता-प्रतिपक्ष का दायित्व संभालने के साथ ही पार्टी के लिए कई राजनीतिक संकट सुलझाए। ऐसे में उनकी राजनीतिक समझ और अनुभव को लेकर कोई संदेह नहीं, लेकिन बड़ा सवाल यही है कि क्या वह कांग्रेस पार्टी को उसके सबसे मुश्किल दौर से उबार पाएंगे?

इसका उत्तर काफी हद तक इस पर निर्भर करेगा कि अध्यक्ष के रूप में खड़गे अपना कद किस प्रकार गढ़ते हैं, क्योंकि यह स्पष्ट है कि वह गांधी परिवार की मेहरबानी से ही अध्यक्ष बने हैं। ऐसे में क्या वह पार्टी के प्रथम परिवार की छाया से बाहर निकलकर अपनी मर्जी से टीम बनाने के साथ ही पार्टी को अपने हिसाब से चला सकते हैं? उन अहम सुधारों को सिरे चढ़ा सकते हैं, जो पार्टी की खिसकती राजनीतिक जमीन को बचाने के लिए आवश्यक हो चले हैं?

कांग्रेस इस समय अपने अस्तित्व के सबसे बड़े संकट से जूझ रही है। वह कभी इतने लंबे समय तक लगातार केंद्र की सत्ता से बाहर नहीं रही। पिछले पांच साल से उसने किसी बड़े राज्य की सत्ता भी हासिल नहीं की। आम आदमी पार्टी जैसे नए दल उसकी राजनीतिक जमीन हथिया रहे हैं। इस बीच पार्टी में गांधी परिवार का प्रभाव भी कमजोर पड़ने के संकेत मिले हैं। भले ही खड़गे परिवार की पसंद के रूप में अध्यक्ष बन गए हों, लेकिन यह सब आसान नहीं रहा।

राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत अध्यक्ष पद के लिए गांधी परिवार की पहली पसंद थे, लेकिन उन्होंने परिवार के विरुद्ध ही एक प्रकार का राजनीतिक विद्रोह कर दिया। फिर नए अध्यक्ष के लिए करीब आधा दर्जन नाम चले और अंत में खड़गे का नाम तय हुआ। चुनाव में शशि थरूर को जितने मत प्राप्त हुए, वह भी चौंकाने वाला है, क्योंकि इतने वोट तो शरद पवार, राजेश पायलट और जितिन प्रसाद जैसे दिग्गजों को भी नहीं मिले थे, जो दशकों से राजनीति में सक्रिय रहे। थरूर महज तीसरी बार के सांसद हैं। यह दर्शाता है कि पार्टी में क्रांतिकारी सुधारों को लेकर थरूर का जो राजनीतिक दर्शन है, उसके साथ सहमति जताने और बदलाव चाहने वालों की संख्या भी अच्छी-खासी है।

बतौर अध्यक्ष खड़गे क्या कर सकते हैं, इसके जवाब कई पहलुओं पर निर्भर करते हैं। एक यह कि खड़गे अपनी भूमिका को कितना विस्तार दे पाते हैं। दूसरा यह कि खड़गे की पारी के दौरान गांधी परिवार का क्या रुख रहता है? अभी तक के संकेत यही दर्शाते हैं कि गांधी परिवार पार्टी पर अपना नियंत्रण नहीं छोड़ना चाहता और उसका यही रवैया अध्यक्ष के रूप में खड़गे की भूमिका एवं सीमा का निर्धारण करेगा। यह देखना भी दिलचस्प होगा कि बदलाव के हिमायती थरूर जैसे नेता खड़गे को किस प्रकार सहयोग करते हैं। स्मरण रहे कि कोई भी कप्तान तभी सफल हो सकता है, जब उसे अपनी टीम की क्षमताओं का पूरा समर्थन मिले। खड़गे का रिपोर्ट कार्ड भी इसी आधार पर तैयार होगा।

कई चुनौतियां नए कांग्रेस अध्यक्ष की प्रतीक्षा कर रही हैं। हिमाचल और गुजरात में चुनाव होने जा रहे हैं। गुजरात में पार्टी की हालत पतली दिख रही है। आम आदमी पार्टी उसका विकल्प बनने एवं भाजपा को मुख्य चुनौती देने के लिए भरसक जोर लगा रही है। ये चुनाव खड़गे की पहली परीक्षा हैं। याद रहे कि राजनीतिक परिदृश्य पर जीत ही किसी नेता के कद को निर्धारित करती है और वही पार्टी से किनारा कर रहे नेताओं को जोड़े रखने में मददगार बनेगी। खड़गे को लुंजपुंज पड़े कांग्रेस संगठन को नई धार देनी होगी।

कर्नाटक से लेकर राजस्थान और छत्तीसगढ़ सहित लगभग हर जगह चरम पर पहुंची आंतरिक गुटबाजी पर लगाम लगानी होगी। चूंकि आम चुनाव की उलटी भी गिनती एक तरह से शुरू हो गई है, अतः कांग्रेस के पक्ष में अविलंब कोई कारगर अभियान छेड़ना होगा। भाजपा विरोधी किसी संभावित गठजोड़ को आकार देने में विपक्षी नेताओं को भी साधना होगा। यह सब आसान नहीं। इसके लिए उन्हें अपने राजनीतिक कद को ऊंचा उठाना होगा। चूंकि उनकी उम्र 80 के करीब है तो दीर्घकालिक योजनाओं की दृष्टि से अगली पीढ़ी के नेतृत्व को भी तराशना होगा।

भले ही खड़गे अध्यक्ष बन गए हों, लेकिन यह किसी से छिपा नहीं कि कांग्रेस में गांधी परिवार की ही तूती बोलती रहेगी और राहुल गांधी पार्टी के सबसे बड़े नेता बने रहेंगे। ऐसे में कांग्रेस यह जो उम्मीद कर रही होगी कि खड़गे के अध्यक्ष बनने से भाजपा द्वारा राहुल और गांधी परिवार पर निशाना साधना बंद हो जाएगा तो वह उसका भ्रम ही होगा।

भाजपा अभी भी वंशवाद को लेकर हमलावर रुख बनाए रखेगी। वैसे भी उसके इस प्रयोजन में निशाने पर केवल कांग्रेस ही नहीं, बल्कि वे क्षेत्रीय दल भी हैं, जिनके प्रभाव वाले राज्यों में भाजपा पैठ बनाने पर काम कर रही है। बहरहाल, खड़गे के रूप में कांग्रेस के पास शायद एक अंतिम अवसर है और यदि वह उसके हाथ से निकला तो फिर सबसे पुरानी पार्टी इतिहास में सिमटने की राह पर जा सकती है।

(लेखक सेंटर फार पालिसी रिसर्च में फेलो हैं)