बदले हुए समय की साक्षी अयोध्या, राम मंदिर का निर्माण आहत भारतीय स्वाभिमान की पुनर्स्थापना के सपने का साकार होना भी
जब 1992 में अयोध्या में विवादित ढांचा ढहा दिया गया तब सेक्युलर-लिबरल तत्वों और वामपंथी इतिहासकारों को यह प्रचारित करने का अवसर मिल गया कि राम मंदिर आंदोलन एक विध्वंसकारी आंदोलन था। उस समय प्रधानमंत्री नरसिंह राव थे। उनके बारे में यह दुष्प्रचार किया गया कि जिस क्षण विवादित ढांचे को ढहाया जा रहा था उस वक्त वह सो रहे थे।
राजीव सचान। समय कैसे बदलता है, इसका सटीक उदाहरण है देश भर में राम मंदिर को लेकर चर्चा। अयोध्या में निर्मित राम मंदिर को लेकर जो उत्साह है, उसमें आम लोगों के साथ मीडिया की भी हिस्सेदारी है। एक समय था और विशेष रूप से 1990 के आसपास का, जब एक-दो समाचार पत्रों को छोड़कर कोई भी इसके पक्ष में नहीं था कि अयोध्या में विवादित स्थल पर राम मंदिर बनना चाहिए।
आज स्थिति यह है कि दो-चार मीडिया संस्थानों को छोड़कर सब रामधुन गाने में लगे हुए हैं। इन्हीं में से अनेक मीडिया समूह 1990-2000 में अयोध्या में राम मंदिर निर्माण की चाह को केवल सांप्रदायिक ही नहीं बताते थे, बल्कि राम मंदिर की बात करने वालों का उपहास उड़ाने के साथ उन्हें हेय दृष्टि से भी देखते थे। अयोध्या में राम मंदिर की मांग को खारिज करने के लिए कथित सेक्युलर और लिबरल लोग ऐसे तर्क देते थे कि कल को कोई मेरे घर आकर यह कहने लगे कि राम यहीं जन्मे थे और हम यहीं उनका मंदिर बनाएंगे तो क्या यह स्वीकार कर लिया जाएगा?
इन सेक्युलर-लिबरल तत्वों में वामपंथी इतिहासकार भी शामिल हो गए थे। वे अपनी झूठी स्थापनाओं के जरिये यह सिद्ध करने की कोशिश करते थे कि विवादित स्थल पर राम मंदिर की मांग क्यों निरर्थक, सांप्रदायिक और खारिज करने योग्य है। ऐसे तत्व यह भी साबित करते थे कि अयोध्या में मंदिर तोड़कर मस्जिद बनाए जाने के कहीं कोई प्रमाण नहीं। वे पूरी निर्लज्जता के साथ इसकी अनदेखी करते थे कि आखिर बाबर और उसके सिपहसालारों का अयोध्या से क्या नाता हो सकता था? यद्यपि उनके पास इस प्रश्न का कोई उत्तर नहीं होता था कि बाबर को अयोध्या में मस्जिद बनाने की क्या आवश्यकता थी, फिर भी वे उन इतिहासकारों को झूठा बताने के लिए तत्पर रहते थे, जो यह स्थापित करने की कोशिश करते थे कि अयोध्या ही नहीं, अन्य अनेक स्थानों पर भी मंदिरों का ध्वंस करके मस्जिदें बनाई गईं और बाबर एक मूर्तिभंजक आक्रमणकारी ही था।
सेक्युलर-लिबरल तत्वों ने ऐसा माहौल बनाया हुआ था कि मुसलमानों का एक वर्ग खुद को बाबर से जोड़ने लगा और उसके दुष्कृत्यों का बचाव भी करने लगा। फिर वह यह शिकायत भी करने लगा कि उसे बाबर की गलतियों के लिए जिम्मेदार ठहराया जा रहा है। कथित बाबरी मस्जिद में दशकों नहीं, बल्कि सदियों तक नमाज नहीं पढ़ी गई, लेकिन उसे मस्जिद बताने की धुन सवार थी।
ऐसे लोग एक ओर यह कहते थे कि झगड़े या फिर दूसरे की इबादत वाली जगह पर बनाई गई मस्जिद में नमाज पढ़ना जायज नहीं है, लेकिन दूसरी ओर इस पर भी जोर देते थे कि एक बार कहीं मस्जिद बन जाए तो फिर वह कयामत तक मस्जिद ही रहती है। सेक्युलर-लिबरल तत्व मुस्लिम पक्ष के ऐसे नेताओं को बरगलाने और अपनी जिद पर अड़े रहने के लिए तैयार करने में भी समर्थ हो गए, जो एक समय अयोध्या विवाद पर सुलह-समझौते के लिए इच्छुक थे।
जब 1992 में अयोध्या में विवादित ढांचा ढहा दिया गया, तब सेक्युलर-लिबरल तत्वों और वामपंथी इतिहासकारों को यह प्रचारित करने का अवसर मिल गया कि राम मंदिर आंदोलन एक विध्वंसकारी आंदोलन था। उस समय प्रधानमंत्री नरसिंह राव थे। उनके बारे में यह दुष्प्रचार किया गया कि जिस क्षण विवादित ढांचे को ढहाया जा रहा था, उस वक्त वह सो रहे थे। यह निरा झूठ था, लेकिन बिना पांव वह काफी समय तक चलता रहा।
चूंकि तब न फेसबुक था, न ट्विटर (एक्स) और न ही इसी तरह के अन्य प्लेटफार्म, इसलिए सेक्युलर-लिबरल तत्वों और वामपंथी इतिहासकारों की मनगढंत स्थापनाओं से असहमत लोगों के पास यह सुविधा ही नहीं थी कि वे अपने विचार व्यक्त कर सकें, क्योंकि मीडिया का बड़ा हिस्सा न तो उन्हें स्थान देता था और न ही महत्व। यह वह दौर था, जब अंग्रेजी मीडिया श्रेष्ठता का पर्याय था और राष्ट्रीय विमर्श पर उसका आतंक की हद तक ही आधिपत्य था। इसी कारण किसी भी विषय और विशेष रूप से राम मंदिर जैसे विषयों पर पक्ष में विचारों के प्रकटीकरण के लिए गुंजाइश न के बराबर थी।
यह वह दौर भी था, जब किसी लेखक, विचारक, इतिहासकार और नेता आदि को सेक्युलर होने का प्रमाण पत्र इस आधार पर मिलता था कि वह अयोध्या में राम मंदिर की मांग का विरोध करता है या नहीं? यदि वह विरोध नहीं करता था तो उसे सांप्रदायिक होने के साथ ही सामाजिक सद्भाव का बैरी भी करार दिया जाता था। तब वामपंथी अवधारणा वाले विकृत सेक्युलरिज्म की ऐसी धमक थी कि लोग चाहकर भी राम मंदिर की मांग का समर्थन करने से कतराते थे कि कहीं उन्हें सांप्रदायिक न करार दिया जाए। यह धमक इस हद तक थी कि जब गोधरा में ट्रेन में सवार कारसेवकों को जिंदा जला दिया गया तो कथित सेक्युलर नेताओं के मुंह से संवेदना के दो शब्द भी नहीं निकले।
अयोध्या आंदोलन ने केवल राम मंदिर के निर्माण का मार्ग ही प्रशस्त नहीं किया, बल्कि यह भी सिद्ध किया कि यह महज राम के नाम पर बनने वाले एक मंदिर के लिए संघर्ष नहीं था, बल्कि भारत की अस्मिता और उसकी सभ्यता एवं संस्कृति के पुनरुत्थान की भी अभिलाषा थी। अयोध्या आंदोलन ने राम जन्मभूमि पर केवल मंदिर का निर्माण ही नहीं कराया, बल्कि यह भी स्थापित किया कि मंदिर आस्था के केंद्र होने के साथ-साथ भारतीय सभ्यता के प्रतिनिधि भी हैं। दुर्भाग्य से अभी भी तमाम लोग जाने-अनजाने यह समझने को तैयार नहीं कि अयोध्या आंदोलन महज राम मंदिर निर्माण के लिए नहीं था। वह आहत भारतीय स्वाभिमान की पुनर्स्थापना का सदियों पुराना स्वप्न भी था। ऐसा न होता तो देश आज राममय नहीं होता।
(लेखक दैनिक जागरण में एसोसिएट एडिटर हैं)