हलाल होते संवैधानिक मूल्य, भारत ही नहीं यूरोपीय देशों में भी छिड़ी बहस
हलाल उत्पादों को लेकर केवल भारत में ही बहस नहीं छिड़ती रही है। इस तरह की बहस यूरोपीय देशों में भी समय-समय पर छिड़ती रही है। यहूदियों और मुसलमानों की मजहबी मान्यताओं में उन जानवरों का सिर एक झटके में अलग करने की मनाही है जिनके मांस का भक्षण करना होता है। एक समय था जब हलाल के दायरे में केवल मांस आता था।
राजीव सचान। उत्तर प्रदेश सरकार की ओर से अवैध तरीके से हलाल प्रमाणन पर प्रतिबंध लगाए जाने के बाद हलाल कारोबार का विषय एक बार फिर सतह पर आ गया है। इसके पहले यह विषय तब चर्चा में आया था, जब पिछले वर्ष कर्नाटक विधानसभा में हलाल उत्पादों पर पाबंदी के लिए एक निजी विधेयक लाया गया था। चूंकि यह एक निजी विधेयक था, इसलिए वह पारित नहीं हो सका। हलाल उत्पादों को लेकर केवल भारत में ही बहस नहीं छिड़ती रही है। इस तरह की बहस यूरोपीय देशों में भी समय-समय पर छिड़ती रही है। कुछ यूरोपीय देशों जैसे कि जर्मनी, ग्रीस, बेल्जियम आदि ने जानवरों को हलाल करने पर प्रतिबंध लगा दिया है। यह प्रतिबंध इसलिए लगाया गया है, क्योंकि जानवरों को हलाल करने का तरीका उनके लिए अत्यधिक पीड़ादायी होता है।
किसी जानवर को हलाल करने का मतलब है कि उसकी सांस नली काट देना और उसका रक्त धीरे-धीरे बहने देना। मांस के लिए जानवरों के वध के इसी तरीके को शरिया सम्मत यानी हलाल माना गया है। इस तरीके में यह भी अनिवार्य है कि जानवर को हलाल करने का काम किसी मुस्लिम को ही करना होगा और उसे एक विशेष इबादत के साथ जानवर को जिबह करना होगा। मांस के लिए जानवर को मारने का जो तरीका मुस्लिम अपनाते हैं, कुछ उसी तरह का तरीका यहूदी भी अपनाते हैं। वे इसे कोशर कहते हैं। यहूदियों और मुसलमानों की मजहबी मान्यताओं में उन जानवरों का सिर एक झटके में अलग करने की मनाही है, जिनके मांस का भक्षण करना होता है। इसके विपरीत अन्य समुदायों में जानवर को एक झटके के साथ मारने का चलन है। इन समुदायों का यह मानना है कि इससे जानवर को कम पीड़ा होती है।
एक समय था, जब हलाल के दायरे में केवल मांस आता था, लेकिन धीरे-धीरे मांस के साथ मांस जनित उत्पाद, सौंदर्य प्रसाधन सामग्री और वे दवाएं भी आने लगीं, जिनमें अल्कोहल का उपयोग होता है। धीरे-धीरे हलाल उत्पादों का दायरा बढ़ने लगा और उनमें शाकाहारी उत्पाद, जैसे कि दाल, चावल, आटा, मैदा, शहद, चायपत्ती, बिस्किट और मसाले आदि भी आने लगे। इसके बाद साबुन, टूथपेस्ट जैसे उत्पाद भी उसके दायरे में आ गए। अब तो स्थिति यह है कि हलाल फ्लैट भी बनने लगे हैं। अब बस हवा, पानी को हलाल और हराम घोषित करना शेष रह गया है। पहले जहां हलाल मांस वाले विशेष भोजनालय और रेस्त्रां ही होते थे, वहीं अब हलाल होटल भी होने लगे हैं। क्या यह सब इस्लामी देशों में होता है? नहीं, यह सब अब भारत में भी होता है। आप गूगल कर यह पता कर सकते हैं कि गोवा, केरल आदि में कौन से हलाल होटल और रेस्त्रां हैं। गूगल करके आप यह भी जान सकते हैं कि कौन सी टूर एंड ट्रैवल कंपनियां हलाल पर्यटन की सुविधा उपलब्ध कराती हैं।
यह समझ आता है कि मांस और मांस से बने उत्पादों को तैयार करने वाली कंपनियां हलाल सर्टिफिकेट हासिल करें, लेकिन इसका कोई औचित्य नहीं कि ऐसे प्रमाणपत्र हलाल इंडिया, जमीयत उलमा-ए-हिंद हलाल ट्रस्ट या हलाल काउंसिल आफ इंडिया जैसी निजी संस्थाएं प्रदान करें। आखिर उन्हें यह अधिकार किसने दिया? क्या भारत सरकार ने? यदि सरकार की सहमति से हलाल इंडिया या हलाल काउंसिल आफ इंडिया जैसी संस्थाएं हलाल सर्टिफिकेट दे रही हैं तो इसका मतलब है कि उसकी ओर से एक समानांतर व्यवस्था चलाने की छूट प्रदान कर दी गई है। इस पर आश्चर्य नहीं कि इसी के चलते यह मांग होने लगी है कि कंपनियां अपने उत्पादों के बारे में यह भी बताएं कि उन्हें सात्विक तरीके से बनाया गया है या नहीं? यह मुहिम चलाने वालों का तर्क है कि आखिर उन्हें अन्य मजहबी रीति-रिवाजों से तैयार उत्पादों का उपयोग करने के लिए क्यों विवश किया जा रहा है? एक प्रश्न यह भी उठ रहा है कि आखिर शाकाहारी उत्पादों को हलाल घोषित करने का क्या मतलब? हलाल प्रमाणन की पूरी प्रक्रिया एक देश दो विधान वाली तो है ही, संवैधानिक मूल्यों के खिलाफ भी है। यह प्रक्रिया एक तरह से जबरन की जाने वाली हफ्ता वसूली जैसी है। यह कुछ वैसा ही है, जैसे कोई स्वयंभू संगठन सड़क पर बैरियर लगाकर टोल टैक्स लेने लगे। हलाल प्रमाणन का मामला यह भी बताता है कि अपने देश में सेक्युलरिज्म के नाम पर कैसे-कैसे मनमाने काम हो रहे हैं।
यदि मांस और मांस से बने उत्पादों को हलाल सामग्री का प्रमाणपत्र देना ही है तो यह काम भारतीय खाद्य सुरक्षा एवं मानक प्राधिकरण यानी एफएसएसएआइ को करना चाहिए। इसलिए और भी, क्योंकि कोई उत्पाद हलाल है अथवा उसे हलाल तरीके से बनाया गया है, इसका प्रमाणपत्र हासिल करने के लिए कंपनियों को फीस चुकानी पड़ती है। यह रकम कितनी होगी, इसका अनुमान शायद सरकार को भी नहीं है और इसीलिए यह मांग उठ रही कि यह पता चलना चाहिए कि आखिर हलाल प्रमाणपत्र देने वाली संस्थाएं इस प्रक्रिया से प्राप्त धन का उपयोग कहां करती हैं? यह हलाल उत्पादों के बढ़ते दायरे का ही प्रमाण है कि अपनी सामग्री का निर्यात करने वाली हर भारतीय कंपनी को हलाल सर्टिफिकेट लेना ही पड़ता है। जहां इस्लामी देशों में हलाल सर्टिफिकेट देने का काम सरकारी एजेंसियां करती हैं, वहीं भारत में यह काम इस्लामी संगठनों ने अपने हाथ में ले रखा है। चूंकि करीब-करीब हर किस्म के उत्पादों का हलाल प्रमाणन आवश्यक होता जा रहा है, इसलिए जड़ी-बूटियों से बनने वाली आयुर्वेदिक दवाओं को भी यह प्रमाणपत्र लेना पड़ता है। यदि इस सिलसिले को रोका नहीं गया तो कल को ऐसा कोई उत्पाद नहीं बचेगा, जिसे हलाल होने का सर्टिफिकेट न लेना पड़े।
(लेखक दैनिक जागरण में एसोसिएट एडिटर हैं)