गिरीश्वर मिश्र। पूरे देश की जनता ने बड़ा भरोसा जताते हुए अपने प्रतिनिधियों को चुनकर 18वीं लोकसभा में भेजा है, ताकि वे सांसद के रूप में देश की भलाई के लिए नीति एवं नियम बनाएं, उसे लागू कराएं और जनजीवन को सुरक्षित तथा खुशहाल बनाएं। संसद की सदस्यता की शपथ लेते समय सांसदगण इन सब बातों को ध्यान में रखने की कसम भी खाते हैं।

कहना न होगा कि देश की संसद लोकतंत्र के वैचारिक शिखर और देश की संप्रभुता को रेखांकित करती है। इसलिए इसकी गरिमा बनाए रखना सभी सांसदों का मूल कर्तव्य बन जाता है। इसके लिए जनप्रतिनिधियों से यह अपेक्षा होती है कि वे संसद की बैठकों में नियमित भाग लेंगे, अपना आचरण शुद्ध एवं व्यवस्थित रखेंगे और व्यर्थ की बयानबाजी की जगह सार्थक बहस करेंगे।

चूंकि जनता के समर्थन से ही वे सांसद का दर्जा पाते हैं इसलिए संसद तक पहुंचने पर उनको सिर्फ और सिर्फ आम जनता की नुमाइंदगी ही करनी चाहिए। यही उनका फर्ज बनता है। लोकसभा की सदस्यता पांच साल की और राज्यसभा की छह साल की होती है। इस अवधि के दौरान सांसदों से अपना लोक-दायित्व निभाना अपेक्षित होता है। संसद के बजट, मानसून और शीतकालीन-तीन मुख्य सत्र होते हैं।

संसदीय बैठक में प्रश्नकाल और शून्यकाल की व्यवस्था भी होती है, जो सांसदों को भागीदारी का अवसर देती है। सांसदों की उपस्थिति अक्सर समस्या होती है। इसे सुनिश्चित करने के लिए खास मौकों पर जब सदन में किसी विषय पर मतगणना की जरूरत पड़ती है तो सांसदों की घेरेबंदी भी करनी पड़ती है। उनको पकड़ में बनाए रखने के लिए पार्टियों द्वारा ह्विप जारी किया जाता है।

पहली लोकसभा में हर साल 135 दिन बैठकें आयोजित हुई थीं। आज स्थिति कितनी नाजुक हो गई है, इसका अनुमान इसी से लगा सकते हैं कि पिछली यानी सत्रहवीं लोकसभा में 2014-19 के बीच हर साल औसतन 55 दिन ही बैठकें आयोजित हुईं। यह दुखद है कि 1952 के बाद सबसे कम संसदीय काम सत्रहवीं लोकसभा में हुआ। 35 प्रतिशत बिल एक घंटे से कम की चर्चा के बाद पास हुए।

अब तो बिल स्टैंडिंग कमेटी के पास भी नहीं जाते। पिछली लोकसभा के काल में कुल 16 प्रतिशत बिल ही उसके पास विचार के लिए भेजे गए। सांसदगणों ने 729 निजी बिल प्रस्तुत किए, जिनमें से केवल दो पर ही विचार हुआ। और तो और डेढ़ सौ सांसद निलंबित भी हुए थे। औसतन सांसदों ने 45 बहसों में भाग लिया। केवल दो सांसद ही शत प्रतिशत उपस्थित रहे।

120 सांसदों की उपस्थिति ही 90 प्रतिशत से अधिक थी। राहुल गांधी की उपस्थिति पिछली लोकसभा में 51 प्रतिशत ही थी। अब तो विपक्ष भी अपनी जिम्मेदारी से विमुख होता दिख रहा है। वह सरकार को घेरने और आरोपित करने के उद्देश्य से संसद के कार्य में अक्सर व्यवधान डालता है। लगता है विपक्ष का मकसद यही हो गया है कि संसद की कार्यवाही सुचारु रूप से न चल सके और सरकार की विफलता दर्ज हो।

भारत की परंपरा कहती है कि वह सभा, सभा नहीं, जिसमें कोई वृद्ध न हो। वे वृद्ध, वृद्ध नहीं, जो धर्म की बात न बोलते हों। वह धर्म, धर्म नहीं, जिसमें सत्य न हो। वह सत्य, सत्य नहीं जो कपटपूर्ण हो। आज संसदीय सौंध में वृद्ध महानुभावों की संख्या कम है और सत्य की तो बात ही भूल जाएं। आज नई भारतीय संसद की औसत आयु 56 वर्ष है, जो सत्रहवीं की तुलना में तीन वर्ष कम है।

80 प्रतिशत सांसद स्नातक या उससे अधिक की शिक्षा प्राप्त हैं। आपराधिक पृष्ठभूमि से नाता घना होता गया है। आज 46 प्रतिशत सांसदों पर आपराधिक मामले दर्ज हैं। 25 सांसद सौ करोड़ से अधिक की घोषित संपत्ति के स्वामी हैं। गौर करने की बात है कि संसद को चलाने का खर्च लगभग 2.5 लाख रुपये प्रति मिनट का आता है। इसलिए इस समय का सदुपयोग होना चाहिए।

सार्थक और उत्पादक संवाद के लिए हर सांसद को संविधान का ज्ञान और संसदीय परंपराओं की जानकारी भी होनी चाहिए। दुर्भाग्य से बहुत कम सांसद ही इस ओर ध्यान देते हैं। मुखर प्रवक्ता के रूप में विपक्ष के कई सांसद अक्सर बेलगाम आरोप-प्रत्यारोप दर्ज कराने में जुट जाते हैं। आधी-अधूरी सूचनाओं या गलत जानकारी के साथ विपक्ष के नेता गण सरकारी पक्ष को आरोपित करने में जुट जाते हैं।

बीते कुछ समय से धरना-प्रदर्शन के साथ सड़क पर राजनीतिक दमखम दिखाने वाले नजारे संसद के दोनों सदनों में भी दिखने लगे हैं। भौतिक रूप से छीना-झपटी और हाथापाई की नौबत भी दिखती रही है और विचाराधीन विषय से दूर एक-दूसरे को हीन साबित करना ही उद्देश्य बन गया है। कई सांसद बिना आवश्यक तैयारी के आते हैं तो कई बड़े नाटकीय अंदाज में अपना वक्तव्य रखते हैं।

संसद को इस समस्या से निजात दिलाने की कोई पुख्ता व्यवस्था होनी चाहिए। इस बार संख्याबल की दृष्टि से विपक्ष पहले की तुलना में अधिक ताकतवर है। यह संसदीय बहसों के स्तर को वैचारिक दृष्टि से समृद्ध करने वाला हो सकता है, बशर्ते खुले मन से बातचीत हो। आशा है कि नए-पुराने सभी सांसद अपने उत्तरदायित्व को समझेंगे और कामकाज के प्रति सकारात्मक और गंभीर रुख अपनाएंगे।

संसद में वाद-विवाद तो होंगे, पर कटुता की जगह विमर्श और विचार की गंभीरता से ही लोकतंत्र की शक्ति बढ़ेगी। दलगत पसंद और नापसंद स्वाभाविक है, किंतु उससे ऊपर उठकर रचनात्मक भूमिका निभाने का साहस भी जरूरी है। याद रहे कि संसद का संचालन किसी एक की नहीं, पक्ष-विपक्ष दोनों की साझा जिम्मेदारी होती है। दोनों के ध्यान के केंद्र में अंतत: सुशासन और लोक कल्याण ही होना चाहिए। न भूलें कि प्रजा के सुख में ही राजा का भी सुख निहित होता है।

(लेखक शिक्षाविद् एवं पूर्व कुलपति हैं)