संसद के न चलने का खतरा: जनादेश का सुविधाजनक निहितार्थ दोनों पक्षों के बीच तकरार
जनादेश का यही सुविधाजनक निहितार्थ दोनों पक्षों के बीच तकरार की वजह बनकर संसदीय गतिरोध को बढ़ा रहा है। इसलिए आने वाले दिनों में संसद में सत्तापक्ष और विपक्ष में तकरार बढ़ती दिखे तो उस पर कोई हैरानी नहीं होनी चाहिए। चूंकि केंद्र में अभी एक गठबंधन सरकार सत्ता में है अतः सहयोगी दलों को साधकर रखना उसके लिए बहुत आवश्यक है।
राहुल वर्मा। लोकसभा चुनाव नतीजों के बाद जो राजनीतिक परिदृश्य उभरा, उसकी अनुगूंज बीते दिनों संसद में भी सुनाई पड़ी। 18वीं लोकसभा गठन के बाद आयोजित संसद के पहले सत्र में राष्ट्रपति के अभिभाषण पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के प्रत्युत्तर के बाद दोनों सदनों को अनिश्चितकाल के लिए स्थगित कर दिया गया।
मूल रूप से नए लोकसभा सदस्यों की शपथ विधि और लोकसभा अध्यक्ष चुनाव के नाम रहा यह सत्र इस बात के संकेत भी दे गया कि आने वाले दिनों में सत्ता पक्ष और विपक्ष के बीच तकरार और तल्ख होती जाएगी। संसद में हुई इस गहमाहमी को दो नजरियों से देखा जा सकता है। एक इसका सकारात्मक पक्ष भी है और वह यह कि हालिया चुनाव के बाद विपक्षी दलों विशेषकर मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस का संख्याबल बढ़ा है।
इससे संसद में विपक्ष की आवाज मुखर हुई है, जो लोकतांत्रिक परंपराओं के लिए एक सकारात्मक संकेत कहा जा सकता है। पिछली दो लोकसभा में विपक्ष की स्थिति बहुत लचर थी। मुख्य विपक्षी दल को नेता-प्रतिपक्ष का पद हासिल करने की अर्हता जितनी सीटें भी नहीं मिलीं। इस दौरान विपक्ष हाशिये पर रहा और सरकार का पूरा दबदबा रहा।
संसद के बीते सत्र में तकरार के नकारात्मक पहलू अधिक हैं। इससे संसदीय लोकतंत्र पर आशंकाओं के बादल मंडराते दिख रहे हैं। इस तकरार के पीछे एक प्रमुख वजह यह भी है कि सत्तापक्ष और विपक्ष, दोनों ने हाल के संसदीय जनादेश के वास्तविक मर्म को नहीं समझा है। जहां भाजपा अपनी सीटें घटने एवं पूर्ण बहुमत न मिलने के बावजूद गठबंधन सरकार को अपनी पारंपरिक आक्रामक शैली में चलाने के संकेत दे रही है, वहीं विपक्ष को लगता है कि यदि उसने सरकार के साथ थोड़ी भी सहजता दिखाई तो चुनावों में उसे जो संजीवनी मिली है, उसका असर धीरे-धीरे जाता रहेगा।
एक ओर भाजपा को यह लगता है कि उसकी अपेक्षा से कम सीटों के पीछे कुछ स्थानीय पहलू प्रभावी रहे और वह फिर से राष्ट्रीय विमर्श खड़ा करके अपनी राजनीतिक ताकत वापस हासिल कर लेगी। दूसरी ओर कांग्रेस के नेतृत्व में विपक्षी दलों को लगता है कि उन्होंने सरकार का एक स्तंभ हिला दिया है और अगली बार थोड़ा अधिक जोर लगाकर वह उसे गिराकर सत्ता में वापसी भी कर लेंगे।
जनादेश का यही सुविधाजनक निहितार्थ दोनों पक्षों के बीच तकरार की वजह बनकर संसदीय गतिरोध को बढ़ा रहा है। इसलिए आने वाले दिनों में संसद में सत्तापक्ष और विपक्ष में तकरार बढ़ती दिखे तो उस पर कोई हैरानी नहीं होनी चाहिए। चूंकि केंद्र में अभी एक गठबंधन सरकार सत्ता में है अतः सहयोगी दलों को साधकर रखना उसके लिए बहुत आवश्यक है।
गठबंधन सरकारों के दौर में सहयोगी दलों के साथ-साथ विपक्षी दलों के साथ समन्वय बनाना भी आवश्यक हो जाता है, क्योंकि कई मामलों पर सहमति बनानी पड़ती है। हालांकि दोनों पक्षों की ओर से खिंची तलवारों को देखकर लगता नहीं कि संसद में किसी प्रकार का राजनीतिक सौहार्द बनता दिखाई देगा।
किसी भी लोकतंत्र को उस अवस्था में आदर्श कहा जा सकता है, जब सत्तापक्ष और विपक्ष राष्ट्र को आगे ले जाने के लिए किसी साझा दृष्टिकोण पर सहमत हों। संभव है कि राजनीतिक मुद्दों पर सहमति न बन पाए, लेकिन राष्ट्रीय महत्व के कुछ मुद्दे ऐसे होते हैं, जिन्हें राजनीति से परे रखा जाना चाहिए।
सुरक्षा बलों का विषय भी ऐसा ही एक क्षेत्र है, लेकिन पिछले कुछ समय से विशेष रूप से सेना में अग्निपथ योजना और किसी अग्निवीर के बलिदान होने की स्थिति में मुआवजे को लेकर सत्तापक्ष-विपक्ष में आरोप-प्रत्यारोप जारी हैं। ऐसे ही एक मामले के तूल पकड़ने के बाद भारतीय सेना को औपचारिक रूप से स्पष्टीकरण तक देना पड़ गया।
मुआवजे के साक्ष्य रखने पड़े। इस पर भी यह मामला रफा-दफा होता नहीं दिख रहा। राजनीति में विचारों की लड़ाई सामान्य मुद्दा है, लेकिन फिलहाल सत्तापक्ष और विपक्ष एक दूसरे को राजनीतिक विरोधी न मानकर शत्रु मान बैठे हैं। इसी कवायद में वे एक-दूसरे को नीचा दिखाने के लिए किसी भी हद तक जाने से गुरेज नहीं कर रहे।
जो विपक्षी सांसद संसद परिसर में संविधान की प्रतियां लहराने में लगे हुए हैं, क्या उन्होंने उसमें उल्लिखित मूल्यों को भी आत्मसात करने का कोई प्रयास किया है? इसी प्रकार हिंदुत्व को लेकर सत्ता पक्ष के एकाधिकार वाले आक्रामक रवैये का भी बहुत सकारात्मक संदेश नहीं जाता। यह स्थिति स्वस्थ लोकतांत्रिक परंपराओं के लिए शुभ संकेत नहीं।
पहले टीवी और बाद में इंटरनेट मीडिया के आगमन ने भी संसद में बहस की गुणवत्ता को प्रभावित किया है। ऐसा लगता है कि नेता अब किसी विषय पर संवाद करने के बजाय व्यक्तिगत हमलों से जुड़ी टीका-टिप्पणियों को प्राथमिकता देते हैं। संसद में उनकी उपस्थिति से आभास ही नहीं होता कि वे नीति-निर्माण के सर्वोच्च मंच पर अपनी जनता का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं। इसके बजाय उनके आचरण से यही अनुभूति होती है कि संसद में भी उनका चुनावी-मोड आन है और वे अपने मतदाताओं को संबोधित कर रहे हैं।
सदन में आसन के निकट आकर हंगामा करना और तख्तियां लहराना ही मानो विपक्षी सांसदों का प्रिय शगल बन गया है। सत्तापक्ष के सांसद भी कम नहीं हैं। उनका ध्यान भी ऐसी राजनीतिक बयानबाजी में रहता है, जो इंटरनेट मीडिया पर वायरल हो सके। निजी और दलगत आस्था से जुड़े सांसदों के इस आचरण से व्यापक हितों की बलि चढ़ रही है।
अच्छी बात है कि अस्थिर वैश्विक परिस्थितियों के बीच भारत की स्थिति अपेक्षाकृत स्थिर एवं सुदृढ़ बनी हुई है, लेकिन इसके बावजूद देश के समक्ष कायम चुनौतियों को अनदेखा नहीं किया जा सकता। देश में जाति, मजहब, क्षेत्र और समाज जैसी तमाम विभाजक रेखाओं के अलावा रोजगार एवं महंगाई जैसी तमाम शाश्वत समस्याएं भी हैं।
इन सभी का समय रहते उपाय तलाशना बेहद जरूरी है। चूंकि संसद भारतीय नागरिकों के कल्याण के लिए नीति निर्माण की सबसे बड़ी इकाई है, इसलिए इस मोर्चे पर उसका दायित्व और बढ़ जाता है, लेकिन मौजूदा परिस्थितियों में जिस प्रकार की स्थितियां आकार लेती दिख रही हैं उससे बहुत उम्मीद नहीं जगती।
(लेखक राजनीतिक विश्लेषक एवं सेंटर फार पालिसी रिसर्च में फेलो हैं)