लोकसभा चुनाव के बाद संसद का विशेष सत्र जिस तरह समाप्त हुआ, उससे सत्तापक्ष और विपक्ष के बीच टकराव की आशंका बढ़ गई है। इस टकराव से केवल संसद की गरिमा ही प्रभावित नहीं होगी, बल्कि संसदीय कामकाज को सही तरह से संचालित करना भी कठिन होगा। इसके आसार इसलिए दिख रहे हैं, क्योंकि पिछले दो-तीन दिनों में लोकसभा और फिर राज्यसभा में एक नहीं अनेक निराशाजनक और संसद की गरिमा गिराने वाले दृश्य देखने को मिले।

चूंकि इस बार लोकसभा में कांग्रेस और उसके सहयोगी दल अपना संख्याबल बढ़ाने में समर्थ रहे, इसलिए इसकी पूरी संभावना थी कि विपक्ष कहीं अधिक उत्साहित दिखेगा, लेकिन इसकी आशा कम ही थी कि यह उत्साह अनावश्यक आक्रामकता के रूप में नजर आएगा।

दुर्भाग्य से ऐसा ही नजर आया और इसकी शुरुआत तभी हो गई, जब लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष के रूप में राहुल गांधी ने अपने पहले ही संबोधन में सत्तापक्ष को विभिन्न मुद्दों पर कठघरे में खड़ा करने की कोशिश में प्रधानमंत्री पर व्यक्तिगत आक्षेप किए। वह हिंदुओं को अपमानित करने से भी नहीं चूके।

उन्होंने बलिदानी अग्निवीरों के स्वजनों को मुआवजा देने के मामले में भी गलतबयानी की और एमएसपी को लेकर भी। इसी कारण उनके संबोधन के कई अंश सदन की कार्यवाही से निकालने पड़े।

राहुल गांधी के असंसदीय रवैये के बाद भी सत्तापक्ष ने उन्हें अपेक्षाकृत शांति से सुना, लेकिन जब प्रधानमंत्री के बोलने की बारी आई तो विपक्ष लगातार नारेबाजी करता रहा। इसके चलते उन्हें सुनना कठिन हो गया। चूंकि राहुल गांधी टकराव की राह पर चल निकले थे, इसलिए सत्तापक्ष की ओर से भी विपक्ष पर तंज कसे गए। इससे कटुता बढ़ी।

आमतौर पर राज्यसभा के बारे में यह धारणा है कि यहां अपेक्षाकृत धीर-गंभीर चर्चा होती है, लेकिन यह धारणा पहले ही ध्वस्त हो चुकी है। इस बार यह और ध्वस्त होती दिखी। राज्यसभा में विपक्ष ने प्रधानमंत्री को सुनने के बजाय सदन का बहिष्कार कर बाहर नारेबाजी करना बेहतर समझा। संसद के अगले सत्र में सत्तापक्ष एवं विपक्ष के बीच की कटुता और बढ़ सकती है।

बेहतर हो कि दोनों पक्ष यह समझें कि संसद में हंगामा और नारेबाजी होते रहने से किसी को कुछ भी हासिल नहीं होता। संसद इसलिए नहीं चलनी चाहिए कि वहां व्यर्थ का शोर-शराबा और हंगामा देखने को मिलता रहे। इसमें कम से कम आम जनता की कोई दिलचस्पी नहीं। आखिर विपक्ष हंगामा करने के बजाय सरकार से जवाब-तलब करने की रणनीति क्यों नहीं अपनाता?

निःसंदेह ऐसी कोई रणनीति तभी कारगर हो सकती है, जब वह संसदीय परंपराओं का पालन करे और अपनी बात कायदे से कहे। ऐसा करके ही वह सरकार को जवाब देने और उसे कठघरे में खड़ा करने में सफल हो सकता है। यह निराशाजनक है कि वह यह दिखा रहा है कि उसकी रुचि तो केवल सरकार को नीचा दिखाने में है।