केवल कठोर कानून पर्याप्त नहीं: पेपर लीक की घटनाओं को रोकने के लिए करने होंगे पुख्ता इंतजाम
शिक्षा का विषय केंद्र-राज्य संबंधों से भी जुड़ा हुआ है। शिक्षा और संस्कृति के मामले विकेंद्रित रखने पर विचार होना चाहिए। भारत जैसे विशाल देश में हर चीज का केंद्रीकरण करके गुणवत्ता की गारंटी सुनिश्चित करना कठिन है। अतः हर क्षेत्र और विभाग के विशिष्ट संस्थानों में कार्य-भार बांटकर गुणवत्ता सुनिश्चित करने और आदर्श बनाकर दिखाने को प्रोत्साहन देने पर विचार करना चाहिए।
प्रो. कपिल कपूर। प्रतियोगी परीक्षाओं में गड़बड़ी और पर्चा लीक होने के मामले पहले भी सामने आए थे, लेकिन इस बार जिस तरह राष्ट्रीय परीक्षा एजेंसी यानी एनटीए की ओर से कराई जाने वाली कई परीक्षाओं और विशेष रूप से मेडिकल कालेजों में प्रवेश की परीक्षा यानी नीट में कदाचार एवं अव्यवस्था ने गंभीर रूप ले लिया, वह चिंता की बात है।
वास्तव में परीक्षाओं की विश्वसनीयता पर संदेह पैदा होना राष्ट्रीय चिंता का विषय है। सरकार ने कुछ तात्कालिक कदम उठाए हैं। एनटीए के उच्चाधिकारी को हटाया गया है, नीट पर्चा लीक मामले की जांच सीबीआइ को सौंपी गई है और उसने कई लोगों को गिरफ्तार भी किया है। प्रतियोगी परीक्षाओं के प्रश्नपत्र लीक होने से रोकने के लिए एक नया कानून भी लागू किया गया है, लेकिन क्या ये कदम छात्रों और अभिभावकों की परेशानी दूर कर सकेंगे?
ये सभी कदम संतोष की बात हो सकते हैं, लेकिन यह कवायद मात्र रोग के लक्षणों का उपचार करना है। मूल समस्या कहीं अधिक गहरी है, जिसे राजनीति से ऊपर उठकर देखने की जरूरत है। इसलिए और भी, क्योंकि राज्य सरकारों की ओर से आयोजित प्रतियोगी परीक्षाओं के प्रश्नपत्र भी लीक होते रहते हैं और उनसे भी लाखों छात्र प्रभावित हुए हैं।
संसद में सभी दलों के जिम्मेदार नेताओं को मिलकर इस पर विचार करना चाहिए। इस विषय को दलीय राजनीति की उठापटक से अलग रखकर गहन मंथन से ही समाधान मिल सकेगा। इसमें सत्तापक्ष और प्रतिपक्ष दोनों को गंभीरता दिखानी होगी। सभी दलों को विशेषकर सत्तारूढ़ दल को देश के सबसे गंभीर प्रश्नों पर दलबंदी के घेरे से उठकर विचार-विमर्श की मर्यादा बनानी चाहिए। शिक्षा और संस्कृति ऐसे ही विषय हैं।
शिक्षा, परीक्षा एवं प्रतिभाओं का चयन-प्रशिक्षण और सुयोग्य युवाओं को उचित स्थान देना देश के प्रत्येक वर्ग के हित में है। सभी दलों के छोटे-बड़े नेताओं, कार्यकर्ताओं के बाल-बच्चे, संबंधी, मित्र-पड़ोसी भी इससे प्रभावित होते हैं। अतः हर हाल में ऐसी समस्याओं को दलबंदी का मुद्दा बनाना बुद्धिमानी नहीं है।
शिक्षा को राष्ट्रीय महत्व का विषय मानना इससे जुड़ी समस्याओं के वास्तविक और पुख्ता समाधान के लिए एक पूर्वनिर्धारित शर्त जैसा है। इतने बड़े स्तर पर और तरह-तरह की प्रतियोगी परीक्षाओं का आयोजन एक ही केंद्रीय एजेंसी से कराने में तमाम समस्याएं जुड़ी हैं। देश भर में हजारों-हजार लोगों की भागीदारी से ही इनका आयोजन होता है।
यदि ऐसे कार्यों में किसी पवित्रता की भावना न हो तो तरह-तरह के निहित स्वार्थी लोग इसे भी अन्य व्यापार-धंधों की तरह एक लाभ का व्यवसाय भर मान लेते हैं। सैकड़ों परीक्षा केंद्रों में से यदि दो-चार जगह भी कदाचार हुआ तो असंख्य छात्रों के परिश्रम, प्रतिभा और विश्वास के साथ खिलवाड़ होता है। इस प्रकार, यह एक आम सामाजिक चरित्रहीनता का मामला भी बनता है, जिसे केवल कठोर कानून के भरोसे ठीक करने का प्रयास कारगर नहीं हो सकेगा।
बाबा साहेब डॉ. भीमराव आंबेडकर ने देश के संविधान के लोकार्पण के अवसर पर बहुत सारगर्भित टिप्पणी की थी। उन्होंने कहा था कि कैसा भी उत्तम संविधान या विधान क्यों न बना लिया जाए, उसका परिणाम उन लोगों के चरित्र और योग्यता पर निर्भर करेगा, जो उसे लागू करेंगे और करवाएंगे। इस अमृत वचन को हमारे नेताओं और नीति निर्माताओं को सदैव गांठ बांधकर रखनी चाहिए।
उन्हें समझना होगा कि हर महत्वपूर्ण स्थान, संस्थान और एजेंसी के कार्य तभी उत्तम स्तर के होंगे, जब सर्वोत्तम एवं सुयोग्य व्यक्तियों को उनकी जिम्मेदारी दी जाए। इसका शिक्षा क्षेत्र में सर्वाधिक ध्यान रखना आवश्यक है, जिससे अंततः सभी अन्य क्षेत्र स्वतः प्रभावित होते हैं। विदेश में भारत की छवि भी इससे जुड़ी है।
चूंकि देश में भी अच्छी स्कूली शिक्षा, बेहतर उच्च शिक्षा और उत्तम प्रशिक्षण की संस्थाओं से ही हर क्षेत्र को अपने अधिकारी एवं कर्मचारी मिलते हैं, इसलिए हमें और सतर्क रहना होगा। शिक्षा क्षेत्र को पवित्र क्षेत्र मानकर ही हमारे नेताओं और अधिकारियों को काम करने की जरूरत है। इसे राजनीति, गुटबाजी, निजी स्वार्थ अथवा दल या संगठन के स्वार्थ-साधन से मुक्त करना समय की आवश्यकता है।
यही वह बिंदु है, जहां सत्तापक्ष और प्रतिपक्ष को सच्ची उदारता और राष्ट्रीय भावना रखने की अपरिहार्य आवश्यकता है। आशा करें कि संसद में जब इस विषय पर बहस हो तब सबके बीच यह भावना दिखे। हमारे नेताओं एवं नीति-नियंताओं को कम से कम शिक्षा क्षेत्र को स्वार्थी राजनीति, संकीर्णता और लोभ से मुक्त रखने का प्रण लेना चाहिए।
यह लाखों बच्चों, युवाओं, और उनके अभिभावकों के विश्वास की रक्षा करने का भी विषय है। यदि हमारे नेता इस पर सच्ची भावना दिखाएंगे तो पूरे समाज को भी बल मिलेगा। शिक्षा के क्षेत्र में सक्रिय धंधेबाजों, चरित्रहीन दलालों आदि पर अंकुश लगाना आवश्यक ही नहीं, अपितु अनिवार्य हो चला है।
शिक्षा का विषय केंद्र-राज्य संबंधों से भी जुड़ा हुआ है। शिक्षा और संस्कृति के मामले विकेंद्रित रखने पर विचार होना चाहिए। भारत जैसे विशाल देश में हर चीज का केंद्रीकरण करके गुणवत्ता की गारंटी सुनिश्चित करना कठिन है। अतः हर क्षेत्र और विभाग के विशिष्ट संस्थानों में कार्य-भार बांटकर गुणवत्ता सुनिश्चित करने और आदर्श बनाकर दिखाने को प्रोत्साहन देने पर विचार करना चाहिए।
इसे खानापूरी नहीं, अपितु अच्छी शिक्षा, अच्छी परीक्षा, अच्छा प्रशिक्षण और अच्छे शिक्षकों-व्यवस्थापकों को सम्मानित करने का भी ध्यान करना चाहिए। इससे अच्छे परिणाम मिल सकते हैं। इस पूरे प्रसंग में दुनिया के अग्रणी देशों के मानक और आदर्श चलन से भी सीखना उपयोगी हो सकता है। विकेंद्रित व्यवस्था से ही दुनिया के देशों में विश्वप्रसिद्ध शैक्षिक, तकनीकी और प्रबंधन संस्थान बने और उनका विस्तार हुआ है।
दूसरी ओर, कम्युनिस्ट देशों में हर चीज का केंद्रीकरण करने से अधिकांश क्षेत्रों में गुणवत्ता चौपट हुई थी। अतः हमारे नेताओं और नीति-निर्माताओं को देश-विदेश के सच्चे गुणियों और विशेषज्ञों से सलाह लेकर शिक्षा क्षेत्र की विभिन्न समस्याओं का समाधान करना चाहिए। इसमें जल्दबाजी या त्वरित समाधान की अधीरता से बचना चाहिए।
(लेखक जेएनयू में प्रोफेसर एवं डीन के साथ भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान के अध्यक्ष भी रहे हैं)