निराश करने वाली न्याय प्रक्रिया, देश की प्रगति में भी बन रही बड़ी बाधा
आम तौर पर यह माना जाता है कि न्याय में देरी निचली अदालतों के स्तर पर होती है लेकिन देरी उच्चतर अदालतों की ओर से भी होती है। जो जनहित याचिकाएं एक समय जल्द न्याय देने का जरिया बनी थीं वे अब एक उद्योग का रूप ले चुकी हैं।
राजीव सचान : पिछले दिनों प्रधानमंत्री ने कानून मंत्रियों के सम्मेलन में कहा कि न्याय में देरी देश की सबसे बड़ी समस्याओं में से एक है। यह पहली बार नहीं है जब उन्होंने ऐसा कहा हो। इसके पहले इसी वर्ष अप्रैल में उच्च न्यायालयों के मुख्य न्यायाधीशों और मुख्यमंत्रियों के सम्मलेन में उन्होंने सरल, सुलभ, शीघ्र न्याय की दिशा में आगे बढ़ने की आवश्यकता जताई थी। वास्तव में यह सिलसिला लंबे समय से कायम है। शायद बीते तीन दशकों से भी अधिक समय से। कभी त्वरित न्याय की जरूरत जताई जाती है, कभी न्यायाधीशों की नियुक्ति वाली कोलेजियम व्यवस्था पर सवाल उठाए जाते हैं, कभी लंबित मुकदमों के बोझ का उल्लेख किया जाता है, कभी न्याय के महंगा होने पर चिंता व्यक्त की जाती है, कभी अपनी भाषा में न्याय मांगा जाता है और कभी न्याय में देरी को अन्याय बताया जाता है। ये बातें इतनी बार दोहराई गई हैं कि अब लोग न केवल बोर होने लगे हैं, बल्कि निराश भी। कारण यह है कि न्यायिक तंत्र में कारगर सुधार के ठोस कदम उठाए जाने के बजाय कोरी और घिसी-पिटी बातें हो रही हैं।
न्यायिक सुधार की दिशा में एक बड़ा कदम न्यायिक नियुक्ति आयोग की स्थापना का था। इस आयोग को सुप्रीम कोर्ट ने असंवैधानिक करार दिया और उस कोलेजियम व्यवस्था को जारी रखा, जिसके तहत जज ही जजों की नियुक्ति करते हैं। अब इस व्यवस्था से मुक्ति की आशा क्षीण हो चुकी है। न्यायाधीश यह मानने को तैयार ही नहीं कि जजों द्वारा जजों की नियुक्ति लोकतांत्रिक मूल्यों और मर्यादाओं के विरुद्ध है।
दुनिया के किसी भी प्रतिष्ठित लोकतांत्रिक देश में जज जजों की नियुक्ति नहीं करते, फिर भी अपने देश में इस सत्य से मुंह मोड़ा जा रहा है। इसका प्रमाण तब मिला था, जब एनवी रमना ने कहा था कि यह धारणा गलत है कि भारत में जज ही जजों की नियुक्ति करते हैं। उनके इस कथन से सहमति जताने का अर्थ है जीती मक्खी निगलना, क्योंकि सच यह है कि भारत में जज ही जज की नियुक्ति करते हैं। इसमें सरकार केवल मूकदर्शक होती है।
निःसंदेह 2015 में सुप्रीम कोर्ट की ओर से न्यायिक नियुक्ति आयोग को खारिज किया जाना केंद्र सरकार के लिए एक बड़ा झटका था, लेकिन इसका यह मतलब नहीं था कि वह नए सिरे से ऐसे किसी आयोग के गठन की दिशा में आगे न बढ़ती। दुर्भाग्य से ऐसा ही हुआ। कोलेजियम व्यवस्था को खत्म करने की नए सिरे से कोई पहल नहीं हो रही है। सरकार को यह समझना होगा कि न्यायपालिका इस व्यवस्था को खत्म करने अथवा उसमें सुधार करने के लिए आगे आने वाली नहीं है। वह न्याय को सस्ता और सुलभ बनाने के लिए भी कुछ नहीं कर रही है।
मुकदमों के लंबित बोझ को खत्म करने के लिए भी कुछ ठोस नहीं किया जा रहा है। इस सबके बीच निचली अदालतों से लेकर उच्चतर अदालतों तक तारीख पर तारीख का सिलसिला कायम है। लोक अदालतों, विशेष अदालतों और फास्ट ट्रैक अदालतों की अपनी एक भूमिका है, लेकिन यह नहीं कहा जा सकता कि न्याय आम लोगों की पहुंच में आ रहा है और वह समय पर मिल रहा है। ऐसा कुछ नहीं हो रहा है।
यह सुनिश्चित करना सभी की जिम्मेदारी है कि न्याय समय पर मिले और वह सस्ता हो, लेकिन सबसे अधिक जिम्मेदारी सरकार में बैठे लोगों की है, क्योंकि देश की जनता उन्हें इसी अपेक्षा के साथ चुनकर भेजती है, न कि न्यायपालिका के लोगों को। सरकार की यह नैतिक और आधिकारिक जिम्मेदारी है कि वह न्यायिक तंत्र में सुधार के लिए कदम उठाए, क्योंकि न्यायपालिका सुधारों के प्रति संवेदनशील नहीं दिखती। इसका उदाहरण केवल न्यायिक नियुक्ति आयोग को खारिज किया जाना ही नहीं है। इसके पहले जब वाजपेयी सरकार ने दंड प्रक्रिया संहिता में उल्लेखनीय बदलाव किए और दीवानी मामलों के स्थगन, समन जारी करने और लिखित टिप्पणियों की सीमा तय की तो सुप्रीम कोर्ट ने यह कहते हुए उन्हें महत्व नहीं दिया कि ये तो केवल दिशानिर्देश हैं।
आम तौर पर यह माना जाता है कि न्याय में देरी निचली अदालतों के स्तर पर होती है, लेकिन देरी उच्चतर अदालतों की ओर से भी होती है। जो जनहित याचिकाएं एक समय जल्द न्याय देने का जरिया बनी थीं, वे अब एक उद्योग का रूप ले चुकी हैं। विधानमंडलों और सरकारों के फैसले अब जनहित याचिकाओं की शक्ल में उच्चतर अदालतों तक पहुंचने लगे हैं। स्थिति यह है कि संसद से पारित कानूनों की समीक्षा किए बिना उनके अमल पर रोक लगा दी जाती है। कृषि कानूनों के साथ यही किया गया। यदि ये कानून वापस लेने पड़े तो इसका कारण सुप्रीम कोर्ट की अति सक्रियता और एक तरह से अपने अधिकारों का अतिक्रमण था।
कभी-कभी ऐसा लगता है कि सुर्खियां बटोरने वाली जनहित याचिकाओं की सुनवाई में खास दिलचस्पी दिखाई जाती है। ऐसे सवालों का जवाब तो कभी नहीं मिलता कि आखिर कोई जज चार साल की बच्ची से दुष्कर्म और उसकी हत्या के अपराधी की सजा कम करते हुए यह कैसे कह सकता है कि जैसे संत का अतीत होता है, वैसे ही पापी का भी भविष्य होता है?
यह सही है न्यायिक ढांचे को सुदृढ़ करने और जजों की संख्या बढ़ाने की आवश्यकता है, लेकिन यदि तारीख पर तारीख का सिलसिला इसी तरह कायम रहा और छोटे-छोटे मामले वर्षों तक खिंचते रहते हैं तो फिर कुछ हासिल होने वाला नहीं है। न्याय में देरी केवल करोड़ों लोगों को हताश-निराश ही नहीं कर रही है, बल्कि देश की प्रगति में एक बड़ी बाधा भी बन रही है। इस बाधा को दूर करने की जिम्मेदारी सरकार पर है और वह उसे उठानी ही होगी।
(लेखक दैनिक जागरण में एसोसिएट एडिटर हैं)