भारत के आर्थिक उत्थान का दस्तावेज, सरकार के प्रयासों को रेखांकित करता श्वेत पत्र
White Paper समग्रता को समर्पित यह दृष्टिकोण शासन में गतिशीलता भारत की आर्थिक संभावनाओं में प्रखरता और भविष्य की वृद्धि को लेकर आशावादिता को झलकाता है। कुल मिलाकर भारतीय अर्थव्यवस्था पर श्वेत पत्र न केवल अतीत में की गई गलतियों को दर्शाता है बल्कि उन्हें सुधारने की दिशा में उठाए गए मौजूदा सरकार के प्रयासों को भी रेखांकित करता है।
विवेक देवराय और आदित्य सिन्हा। वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने बीते दिनों लोकसभा में ‘भारतीय अर्थव्यवस्था पर श्वेत पत्र’ प्रस्तुत किया। श्वेत पत्र में भारत के आर्थिक परिदृश्य की गहन समीक्षा है। यह मुख्य रूप से वर्ष 2004 से 2014 के बीच केंद्र की सत्ता में रही संप्रग सरकार की आर्थिक नीतियों पर केंद्रित है। यह दौर ऐसी आर्थिक कुनीतियों का था, जिसमें अर्थव्यवस्था पटरी से उतर गई थी। भ्रष्टाचार और वित्तीय अनुशासनहीनता चरम पर थी।
परिणामस्वरूप भारत की गिनती ‘फ्रैजाइल फाइव’ में होने लगी। तब फ्रैजाइल फाइव विश्व की उन पांच नाजुक अर्थव्यवस्थाओं वाले ऐसे समूह के रूप में कुख्यात हो गया था, जिनकी आर्थिकी बदहाली की ओर बढ़ रही थी। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी अक्सर उस दौर की नीतियों का स्मरण कराते रहते हैं और हाल में एक कार्यक्रम के दौरान भी उन्होंने याद दिलाया कि कैसे उस दौर में दिशाहीन आर्थिक नीतियों ने देश की आर्थिकी में निवेशकों का भरोसा घटा दिया था। चारों ओर अव्यवस्था, अस्थिरता और अनिश्चितता का माहौल था।
श्वेत पत्र में उन तीन प्रमुख चुनौतियों को चिह्नित किया है, जो मौजूदा सरकार को संप्रग शासन से विरासत में मिली थीं। पत्र में चर्चा है कि वर्तमान सरकार ने उन चुनौतियों से निपटने के लिए क्या उपाय किए। पहला मुद्दा बैंकों में बढ़ रही गैर-निष्पादित आस्तियों यानी एनपीए का था। यह कोई छिपी बात नहीं कि संप्रग सरकार में राजनीतिक हस्तक्षेप के चलते अस्तित्व में आई ‘फोन बैंकिंग’ यानी सिफारिशों पर मिलने वाले कर्जों के कारण बैंकों का एनपीए निरंतर बढ़ता गया।
सरकारी बैंकों की वित्तीय सेहत बहुत खराब हो गई थी। खास तौर से 2006 से 2008 के बीच उनके फंसे हुए कर्ज का मर्ज बढ़ने पर ही रहा। इस चुनौती से पार पाने के लिए मोदी सरकार ने ‘फोर आर’ यानी रिकग्निशन, रिजोल्यूशन, रीकैपिटलाइजेशन और रिफार्म्स का सहारा लिया। इस चहुंमुखी रणनीति से आशय था चुनौती की पहचान, उसके लिए संभावित समाधान, पुनर्पूंजीकरण और आवश्यक एवं अपेक्षित सुधार। इस रणनीति की परिणति पारदर्शी बैंकिंग प्रणाली और ऋणशोधन एवं दिवालिया संहिता यानी आइबीसी जैसी विधायी पहल के रूप में सामने आई, जिसके व्यापक स्तर पर सुफल प्राप्त हुए।
दूसरी चुनौती 2008 के वैश्विक वित्तीय संकट से उबरने के लिए अपनाई गई संप्रग सरकार की गलत आर्थिक नीतियों के प्रभाव से निपटने की थी। आर्थिक मंदी से निपटने के लिए संप्रग सरकार ने आवश्यकता एवं अर्थव्यवस्था की क्षमता से कहीं अधिक राजकोषीय प्रोत्साहन दिए। इसने सरकारी खजाने पर भारी दबाव बढ़ा दिया। राजकोषीय घाटा खतरनाक स्तर पर पहुंच गया था। सरकार द्वारा बड़े पैमाने पर लिया जा रहा कर्ज अपनी कहानी खुद कह रहा था। ऐसी बदरंग स्थिति को सुधारने के लिए राजग सरकार ने कर सुधारों और खर्च के ढांचे को दुरुस्त करने की दिशा में व्यापक पहल कीं। वस्तु एवं सेवा कर यानी जीएसटी का सूत्रपात भी इसी दौर में हुआ। यहां तक कि कोविड-19 जैसी आपदा के दौरान भी राजकोषीय अनुशासन को लेकर प्रतिबद्धता जारी रही।
बुनियादी ढांचे की अनदेखी और अनुत्पादक खर्चों की हिमायत आर्थिक मोर्चे पर संप्रग सरकार की तीसरी कमजोर कड़ी साबित हुई। संसाधनों की बंदरबांट में पूंजीगत व्यय के लिए आवंटन कम होता गया। इसके असर भी दिखे। महंगाई से लेकर चालू खाते का घाटा बढ़ता गया तो मुद्रा अवमूल्यन की शिकार हो रही थी। इसके उलट राजग सरकार ने बुनियादी ढांचे और परिसंपत्ति सृजन पर ध्यान केंद्रित करते हुए पूंजीगत व्यय में भारी बढ़ोतरी की। इसका आर्थिकी पर व्यापक चक्रीय प्रभाव देखने को मिला।
संतुलित एवं समावेशी वृद्धि को सुनिश्चित करने में इस उत्पादक खर्च की अहम भूमिका रही। वित्त वर्ष 2014 की तुलना में वित्त वर्ष 2024 के लिए पूंजीगत व्यय में चार गुना अधिक आवंटन हुआ। संप्रग सरकार के दौरान कुल व्यय में जहां पूंजीगत व्यय की हिस्सेदारी 12 प्रतिशत रही तो राजग सरकार में यह औसतन 14.5 प्रतिशत और गत पांच वर्षों में 15.8 प्रतिशत रही। इसका परिणाम यह हुआ कि 2014 से पहले खर्च की गुणवत्ता में जो कमी का सिलसिला बना हुआ था, वह रुझान पलटा। अब राजस्व व्यय भी कहीं अधिक रणनीतिक रूप से किया जा रहा है, जो राज्य की कल्याणकारी भूमिका का निर्वहन करने पर केंद्रित है।
ठोस आर्थिक सुधारों की दिशा में शिथिलता के लिए भी संप्रग सरकार की आलोचना होती है। वह अतीत के सुधारों और अनुकूल वैश्विक परिस्थितियों के भरोसे ही रही। इस दौरान ऊंची मुद्रास्फीति और बेलगाम राजकोषीय घाटे ने आम लोगों के लिए जीवनयापन महंगा कर दिया। साथ ही भारत की दीर्घकालिक आर्थिक बुनियाद को मजबूत करने का अवसर भी गंवा दिया गया। इसके विपरीत मौजूदा सरकार पारदर्शी शासन को प्राथमिकता बनाए हुए है। नीति-निर्माण में जनसामान्य की भी सहभागिता हो रही है।
शृंखलाबद्ध सुधारों के अतिरिक्त डिजिटलीकरण, बुनियादी ढांचा विस्तार और कारोबारी सुगमता के साथ ही सरकार आर्थिकी को नई ऊर्जा देने एवं सतत वृद्धि सुनिश्चित करने के उपाय कर रही है। व्यय सुधार आयोग की स्थापना राजकोषीय कुशलता और राष्ट्र के विकास में राजकीय निधि के सदुपयोग की प्रतिबद्धता को दर्शाता है। इन प्रयासों से वृहद आर्थिक स्थायित्व की स्थिति निर्मित हुई है। आइएमएफ जैसी कई अन्य अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं ने भी इसे सराहा है। इससे घरेलू एवं विदेशी निवेशकों का भरोसा बहाल हुआ है।
समग्रता को समर्पित यह दृष्टिकोण शासन में गतिशीलता, भारत की आर्थिक संभावनाओं में प्रखरता और भविष्य की वृद्धि को लेकर आशावादिता को झलकाता है। कुल मिलाकर, भारतीय अर्थव्यवस्था पर श्वेत पत्र न केवल अतीत में की गई गलतियों को दर्शाता है, बल्कि उन्हें सुधारने की दिशा में उठाए गए मौजूदा सरकार के प्रयासों को भी रेखांकित करता है। ऐसे प्रयास भविष्य के दृष्टिकोण से अनुकरणीय हैं, जो आर्थिक नीतियों को लेकर जनता की समझ एवं उनकी सहभागिता बढ़ाने के साथ ही भविष्य की वृद्धि एवं समृद्धि की दृष्टि से उनके निहितार्थों को भी समझाते हैं।
(देवराय प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद के प्रमुख और सिन्हा परिषद में ओएसडी-अनुसंधान हैं)