धर्मकीर्ति जोशी : वैश्विक अर्थव्यवस्था में उथल-पुथल और अस्थिरता का रुख बना हुआ है। इस कारण आर्थिक वृद्धि के अनुमान भी प्रभावित हो रहे हैं। बीते दिनों कई संस्थाओं ने भारत की आर्थिक वृद्धि के अनुमान को घटाया है। इस साल के लिए ये अनुमान उतने नहीं घटाए गए, जितने अगले साल के लिए। यह दर्शाता है कि बदलते वैश्विक घटनाक्रम का प्रभाव अगले साल को और अनिश्चित बनाने जा रहा है। भारत के नजरिये से यही सकारात्मक है कि यहां स्थिति उतनी बुरी नहीं हैं। यही कारण है कि दुनिया की तमाम अर्थव्यवस्थाओं के मुकाबले भारत की आर्थिक वृद्धि के लिए 6.5 प्रतिशत से सात प्रतिशत का अनुमान अभी भी कायम है। यह दुनिया की बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में सबसे ऊंची वृद्धि दर है।

वृद्धि के अनुमानों में बार-बार संशोधन-परिवर्तन दर्शाता है कि स्थितियां कितनी विकट हो चली हैं। अर्थव्यवस्था कब दिशा बदलकर अपनी दशा बदलेगी, यह कह पाना मुश्किल हो रहा है। महंगाई ने पूरी दुनिया में हाहाकार मचाया हुआ है, जिससे निपटने के लिए केंद्रीय बैंक ब्याज दरें बढ़ाने में लगे हैं। पता नहीं महंगाई पर इससे कितना अंकुश लग पा रहा है, मगर आर्थिक गतिविधियां जरूर प्रभावित हो रही हैं। अमेरिका और यूरोप में मंदी के कुछ संकेत मिलने लगे हैं, जिनका असर देर-सबेर दुनिया भर में देखने को मिलेगा। इसके बावजूद कोई आसार नहीं दिखते कि निकट भविष्य में पश्चिमी केंद्रीय बैंक ब्याज दरें बढ़ाने पर कोई विराम लगाएंगे। दूसरे देश भी कुछ हद तक इसी राह पर चलते दिखाई पड़ सकते हैं।

दुनिया की बिगड़ी आर्थिक सेहत में भारत की तबीयत भले कुछ बेहतर हो, लेकिन इसका यह अर्थ नहीं कि उसे मौजूदा बीमारी से मुक्ति मिल गई है। जब भी दुनिया किसी आर्थिक भंवर में फंसती है तो अमेरिकी डालर में मजबूती का रुख देखा जाता है और मौजूदा स्थिति भी इसमें कोई अपवाद नहीं। डालर के सामने रुपये की हालत गड़बड़ है। उसे संभालने में भारतीय रिजर्व बैंक ने अभी तक सधे हुए कदम उठाए हैं, लेकिन इसका दबाव विदेशी मुद्रा भंडार पर दिख रहा है।

वैश्विक मांग में नरमी से निर्यात भी दबाव में हैं, जबकि आयात में मामूली सी नरमी दिखी है। इससे व्यापार घाटा और चालू खाता घाटा बढ़ने की आशंका बढ़ी है। कुछ वस्तुओं के आयात को सीमित या प्रतिबंधित करने के विकल्प सुझाए जा रहे हैं, लेकिन उसका कोई खास असर नहीं दिखेगा। एक तो उनमें से तमाम लक्जरी वस्तुओं का बाजार बेहद सीमित है और दूसरा उनमें से कई ऐसी चीजें भी हो सकती हैं, जिनसे तैयार होने वाले उत्पादों के निर्यात ही प्रभावित होने लगेंगे। मिसाल के तौर पर देश में अभी भी अधिकांश मोबाइल फोन असेंबल हो रहे हैं। ऐसे में यदि उनके पुर्जों के आयात पर प्रतिबंध लगा तो उनके निर्यात पर असर पड़ेगा। उल्लेखनीय है कि सितंबर में भारत से पहली बार एक अरब डालर के मोबाइल हैंडसेट निर्यात किए गए। आयात नियंत्रण का व्यापक असर दूसरे क्षेत्रों पर भी होगा।

आर्थिक अनुमानों में बार-बार बदलाव के पीछे मुख्य कारण भू-राजनीतिक या मानव जनित है। वहीं जलवायु परिवर्तन के कारण प्रतिकूल मौसमी परिघटनाओं में निरंतर होती वृद्धि भी इसकी जटिलताएं बढ़ा रही हैं। रूस-यूक्रेन युद्ध के अनुमान से अधिक लंबा खिंचने के चलते आपूर्ति में गतिरोध का असर पूरी दुनिया पर दिख रहा है। इससे जहां आर्थिक वृद्धि सुस्त पड़ रही है, वहीं जिंसों के दाम नरम होने का नाम नहीं ले रहे। कच्चे तेल में भी अस्थिरता कायम है। दाम कुछ घटते हैं तो तेल उत्पादक देश उत्पादन में कटौती के संकेत देने लगते हैं। दुनिया भर में ऊर्जा स्रोतों की कीमतें आसमान पर हैं। धातुओं का उत्पादन भी प्रभावित हो रहा है।

इस बदरंग स्थिति के लिए युद्ध के अलावा चीन की शून्य कोविड नीति भी जिम्मेदार है, जिससे उत्पादन बुरी तरह प्रभावित हुआ है। वैश्विक आपूर्ति शृंखला दबाव में आ गई है। इलेक्ट्रानिक्स चिप्स के लिए मारामारी की स्थिति है। इन कारणों ने वैश्विक आपूर्ति शृंखला के ढांचे को नए सिरे से गढ़ने पर मजबूर किया है। चीन पर अत्यधिक निर्भरता को दूर करने के लिए अब बहुराष्ट्रीय कंपनियां ‘चीन प्लस वन’ यानी चीन से इतर किसी और देश में भी विनिर्माण के विकल्प तलाश रही हैं। इसके मूल में आपूर्ति को लचीला बनाने की मंशा है। वैश्विक विनिर्माण की धुरी अभी तक इस मामले में सबसे सक्षम देश चीन के बजाय नव-सक्षम देशों की ओर झुक रही है। इस व्यवस्था के आकार लेने से वैश्विक आपूर्ति शृंखला न केवल लचीली होगी, बल्कि उसमें स्थायित्व भी आएगा। हालांकि, इसे मूर्त रूप लेने में कुछ समय लगेगा और तब तक पूरी दुनिया को मौजूदा मुश्किल की तपिश झेलनी ही होगी।

आर्थिक चुनौतियों और अनिश्चितता की चर्चा जलवायविक पहलुओं के बिना अधूरी रहेगी। जलवायु परिवर्तन का स्पष्ट असर कृषि और अन्य क्षेत्रों पर दिख रहा है। उत्पादन प्रभावित होने से आपूर्ति तंग होती है और उसका असर कीमतों पर पड़ता है। इस साल मार्च 1901 के बाद सबसे गर्म रहा, जिसका असर गेहूं के दाने पर पड़ा और उत्पादन में करीब सात से आठ प्रतिशत की गिरावट आई। फिर मानसून का मिजाज भी बिगड़ा रहा। वर्षा जरूर सामान्य स्तर पर रही, मगर असमान वर्षा वितरण ने उत्पादन का गणित बिगाड़ दिया। धान से लेकर तिलहन पर इसका असर दिखेगा। अक्टूबर में सामान्य से 50 प्रतिशत अधिक वर्षा ने तैयार फसल को नुकसान पहुंचाया है। ईंधन के दामों ने महंगाई की इस स्थिति को और मुश्किल बना दिया है।

यह स्वीकार करने में कोई संकोच नहीं होना चाहिए कि जलवायु परिवर्तन से जुड़ी स्थितियों ने आर्थिक अनुमान लगाने में विश्लेषकों की मुश्किलें बढ़ा दी हैं। केवल भारत ही नहीं, बल्कि पूरा दक्षिण एशिया प्रतिकूल मौसमी परिघटनाओं के लिहाज से संवेदनशील है। ऐसे में, पूरी दुनिया के नीति-नियंता इस समय भले ही महंगाई से निपटने में जुटे हैं, लेकिन उन्हें जलवायु परिवर्तन से जुड़ी चुनौती का समाधान भी खोजना होगा। महंगाई से निपटना एक तात्कालिक चुनौती है, लेकिन जलवायु परिवर्तन की चुनौती ऐसी है, जिसका असर बार-बार देखने को मिलता रहेगा।

(लेखक क्रिसिल में मुख्य अर्थशास्त्री हैं)