हरीश बड़थ्वाल

जंगल के दूसरे किनारे जाती मक्खी को उसी दिशा में अग्रसर एक हाथी दिखा। वह उसके कान पर सवार हो गई। गंतव्य पर पहुंचने पर उसने साथ निभाने और सफर को खुशनुमा बनाने के लिए हाथी को कोटि-कोटि आभार जताया तो हाथी को कान में गुंजन सी महसूस हुई। मक्खी अपने रास्ते चली गई। अहंकार से सराबोर व्यक्ति भी

उस मक्खी की भांति अपनी छोटी सी दुनिया को संपूर्ण सृष्टि मान कर आजीवन भ्रम में जीता है। दूसरों के कष्टों,

जरूरतों और हर्षोल्लास का उसे अहसास नहीं होता और उनके कार्यों में सक्रिय सहभागिता निभाने में वह असमर्थ होता है। सीमित सोच के कारण उसके हृदय में आनंद, उत्साह, प्रेम और शांति के भाव नहीं फूटते।

अहंकारी अपने कार्य या निर्णय को सही ठहराने में कोई कसर नहीं छोड़ता, झुकने से उसकी शान घटती है। उसे नहीं कौंधता कि गलती करने पर क्षमायाचना से उसका गलत या दूसरे का सही होना सिद्ध नहीं होता, बल्कि आपसी संबंध सुदृढ़ होते हैं। अपनी बड़ाई सुनते वह नहीं अघाता। उसकी बातें ‘मैं’ से शुरू हो कर ‘मैं’ से विस्तार पाती और मैं पर खत्म होती हैं। अपने यांत्रिक आचरण और व्यवहार से अहंकारी व्यक्ति के परिजनों, सहकर्मियों व अन्य साथियों से संबंध होते भी हैं तो केवल सतही। उनमें अंतरंगता या प्रगाढ़ता नहीं होती। किसी से उसे सरोकार रहता है तो उसी हद तक जहां तक निजी स्वार्थ सधते हों। वह किसी को सम्मान नहीं देता, इसीलिए सम्मान पाने का अधिकार खो देता है। दिखावटी प्रतिष्ठा पर इतराता ऐसा व्यक्ति लोगों से अलग-थलग पड़ जाता है और उनकी हार्दिक दुआओं से वंचित रहता है।

अहंकार ही शक्तिशाली रावण, दानवीर कर्ण सरीखी विभूतियों के विनाश का कारण बना। जो सच्चे ज्ञानी होते हैं उन्हें अपने ज्ञान पर अहंकार नहीं होता चूंकि उन्हें अपने अज्ञान का पता रहता है। मूर्ख या अहंकारी को अपने सिवा प्रत्येक व्यक्ति में खोट दिखते रहते हैं। जितना तुच्छ बुद्धि उतना अधिक अहंकार। उसका नाम गूगल न हो तो भी वह सब कुछ जानने का स्वांग करता है। कब्रिस्तान के बाहर लिखी यह इबारत उसके पल्ले नहीं पड़ती,स ‘सैकड़ों दफन हैं यहां जो सोचते थे कि दुनिया उनके बिना नहीं चल सकती।’ अहंकार दैविक विधान के प्रतिकूल है, आत्मघाती है, व्यक्ति के पतन का कारण है।