अराजकता के आगे असहाय देश, सुप्रीम कोर्ट की नाक के नीचे किसान संगठनों की अंधेरगर्दी जारी
अड़ियल किसान संगठनों से कोई उम्मीद नहीं पर क्या लोग पुलिस सरकार और अदालतों से भी कोई उम्मीद न रखें? सुप्रीम कोर्ट यह नहीं देख पा रहा कि किस तरह उसकी नाक के नीचे किसान संगठनों की अंधेरगर्दी जारी है।
राजीव सचान। लोकतंत्र की आड़ लेकर किस तरह लोकतंत्र को ही नष्ट करने का काम किया जाता है, इसका सटीक उदाहरण है तथाकथित किसान संगठनों का आंदोलन। इस आंदोलन की ओर से बीते दस माह में दूसरी बार भारत बंद का आयोजन किया गया और इस दौरान जानबूझकर लोगों की नाक में दम किया गया। किसान संगठनों और उन्हें समर्थन दे रहे दलों के कार्यकर्ताओं की ओर से हरसंभव यह कोशिश की गई कि भारत बंद के दौरान लोगों को जाम में फंसना पड़े और उनका सड़कों पर निकलना दूभर हो जाए। लोगों को तंग करने के उद्देश्य से इस बार ट्रेनों को भी रोका गया। किसान संगठन ऐसा बार-बार करने में इसीलिए समर्थ हैं, क्योंकि एक तो वे किसानों की फर्जी आड़ लेने में लगे हुए हैं और दूसरे, इसलिए कि लोगों को तंग करने, उनकी रोजी-रोटी पर लात मारने और अर्थव्यवस्था को नुकसान पहुंचाने वाले अपने अराजक आंदोलन को लोकतांत्रिक बताने में लगे हुए हैं। वे ऐसा करने में तब समर्थ हैं, जब इसी साल 26 जनवरी को उन्होंने दिल्ली में देश को नीचा दिखाने और आम किसानों को कलंकित करने वाला घृणित काम किया था। उन्होंने गणतंत्र दिवस पर जबरन ट्रैक्टर रैली निकालकर जमकर नंगा नाच किया, लेकिन उन्हें जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सका। किसान नेता जिस सफाई और ढिठाई के साथ कथित तौर पर ‘बाहर से आए उत्पातियों’ को कुसूरवार ठहराकर बच निकले, वह कानून एवं व्यवस्था के मुंह पर एक तमाचा ही था।
कायदे से पुलिस को ट्रैक्टर रैली शांतिपूर्ण रहने का भरोसा देने वालों के खिलाफ कठोर कार्रवाई करनी चाहिए थी, लेकिन वह उन्हें नोटिस देने के अलावा कुछ नहीं कर सकी। किसान नेताओं ने यह नोटिस रद्दी की टोकरी में फेंक दिया हो तो हैरानी नहीं। 26 जनवरी को जैसी हिंसा लाल किले में हुई थी, कुछ वैसी ही 6 जनवरी को अमेरिका के संसद भवन (कैपिटल हिल) में हुई थी और उसके लिए तत्कालीन राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के खिलाफ महाभियोग लाया गया। क्या यह विचित्र नहीं कि जैसी हिंसा के लिए जिम्मेदार माने गए अमेरिकी राष्ट्रपति के खिलाफ महाभियोग लाया गया, वैसी ही हिंसा के लिए जिम्मेदार समङो गए किसान नेताओं के खिलाफ भारत में कुछ भी नहीं किया जा सका। इसका एक बड़ा कारण पिलपिली कानून एवं व्यवस्था रही और दूसरा यह कि किसान नेता यह नकली आड़ लेने में समर्थ रहे कि वे तो ट्रैक्टर रैली के नाम पर अपने लोकतांत्रिक अधिकारों का इस्तेमाल कर रहे थे।
किसान नेताओं की सेहत पर तब भी कोई फर्क नहीं पड़ा था, जब उनके आंदोलन में शामिल होने आई एक युवती के साथ दुष्कर्म किया गया। यह दुष्कर्म भी इस कथित लोकतांत्रिक आंदोलन के साये में छिप गया। इस पर गौर करें कि अपने भारत में किसी आंदोलन को लोकतांत्रिक बताकर किस तरह के दुष्कृत्य किए जा सकते हैं। गौर इस पर भी करें कि ऐसे अराजक आंदोलनों के खिलाफ पुलिस और सरकारें किस तरह कुछ नहीं कर पातीं। पंजाब में सैकड़ों मोबाइल टावर नष्ट कर दिए गए, किसी का कुछ नहीं बिगड़ा। अराजक किसान संगठनों ने कई जगहों पर टोल प्लाजा पर कब्जा किया। इसके चलते प्रतिदिन करोड़ों रुपये का नुकसान हुआ, लेकिन किसी के कान पर जूं नहीं रेंगी, क्योंकि इस अराजक आंदोलन पर बड़ी चतुराई के साथ लोकतांत्रिक आंदोलन का ठप्पा लगा दिया गया है।
बीते दस माह से पंजाब, हरियाणा और दिल्ली में लाखों लोगों को अपने गंतव्य तक जाने में अतिरिक्त समय जाया करना पड़ रहा है, लेकिन कहीं कोई सुनवाई नहीं हो रही है, क्यों? क्योंकि किसान संगठन अपने आंदोलन को लोकतांत्रिक बताने में लगे हुए हैं। कथित किसान नेताओं के अराजक आंदोलन के कारण दिल्ली, हरियाणा एवं पंजाब में अब तक अरबों रुपये का नुकसान हो चुका है और हजारों लोगों की रोजी-रोटी पर बन आई है, लेकिन सरकारें और अदालतें इसलिए कुछ नहीं कर पा रही हैं, क्योंकि इस घोर अराजक और आम आदमी विरोधी आंदोलन को लोकतांत्रिक कहा जा रहा है। यह आंदोलन शासन व्यवस्था के लिए किस तरह भस्मासुर बन गया है, इसका प्रमाण है पंजाब के पूर्व मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह का यह बयान कि किसान संगठन राज्य से बाहर जाकर आंदोलन करें।
हालांकि, सुप्रीम कोर्ट के यह कहने से साफ है कि यह आंदोलन अराजक है कि धरने-प्रदर्शन के नाम पर सार्वजनिक स्थलों पर कब्जा नहीं किया जा सकता। बावजूद इसके किसान नेताओं पर इसलिए कोई असर नहीं, क्योंकि सुप्रीम कोर्ट यह कहने का साहस नहीं जुटा पा रहा कि सड़कों पर कब्जा करना आम लोगों के अधिकारों को कुचलना है। यह तब है जब एक तरह से सुप्रीम कोर्ट की नाक के नीचे यानी दिल्ली के सीमांत इलाकों में सड़कों पर कब्जा करके रखा गया है। यह कुछ वैसा ही है जैसे नक्सली संगठन अपनी नाकाबंदी को लोकतांत्रिक बताने लगें। इस पर हैरानी नहीं कि किसान संगठनों के भारत बंद को इस बार कई नक्सली संगठनों ने भी अपना समर्थन दिया। क्या किसान नेता उस दिन का इंतजार कर रहे हैं, जब उनके आंदोलन को अन्य देश विरोधी ताकतें समर्थन देने की घोषणा करेंगी?
बेशक अड़ियल किसान संगठनों से कोई उम्मीद नहीं की जा सकती। वे अपनी सनक के साथ विपक्षी दलों के समर्थन पर सवार हैं, लेकिन क्या देश के लोग पुलिस, सरकार और अदालतों से भी कोई उम्मीद न रखें? यह सवाल इसलिए, क्योंकि किसान संगठनों के आगे वे भी असहाय-निरुपाय नजर आ रही हैं। यह हास्यास्पद ही नहीं, शर्मनाक भी है कि कानून के शासन को लेकर नित नए उपदेश देने वाला सुप्रीम कोर्ट यह नहीं देख पा रहा कि किस तरह उसकी नाक के नीचे किसान संगठनों की अंधेरगर्दी जारी है।
(लेखक दैनिक जागरण में एसोसिएट एडीटर हैं)