शंकर शरण। देश-विदेश में हिंदुओं के दमन एवं उत्पीड़न पर हमारे नेताओं और बुद्धिजीवियों का शुतुरमुर्गी रवैया रहा है। वे अंगोला, वियतनाम, फलस्तीन और कोसोवो आदि के उत्पीड़ितों के लिए व्यथित होते रहे हैं, परंतु देश के अंदर ही लाखों कश्मीरी हिंदुओं के अपमान, पलायन और नरसंहार का उन्होंने नोटिस तक नहीं लिया। संसद का रिकार्ड भी इसकी गवाही देता है।

इसलिए कोई आश्चर्य नहीं कि बांग्लादेश के हिंदुओं की दुर्दशा पर भी किसी भारतीय ने नहीं, बल्कि एक अमेरिकी विद्वान डा. रिचर्ड बेंकिन ने व्यापक एवं प्रामाणिक शोध किया। वह बांग्लादेश जाकर भी वहां की सत्ता और संस्थाओं से हिंदुओं के लिए संघर्ष करते रहे। उनके प्रयासों का ही परिणाम रहा कि अमेरिकी संसद में बांग्लादेशी हिंदुओं की स्थिति पर प्रस्ताव पारित हुआ, जिससे बांग्लादेश पर दबाव पड़ा और हिंदुओं को कुछ राहत हुई। यह भारतीय संसद में आज तक नहीं हुआ।

बेंकिन की पुस्तक ‘ए क्वाइट केस आफ एथनिक क्लींजिंग: द मर्डर आफ बांग्लादेश’स हिंदूज’ का ब्योरा पढ़कर पाठक विचलित हो सकते हैं। इसे लिखने के दस वर्ष पहले से बेंकिन बांग्लादेशी हिंदुओं के लिए संघर्ष कर रहे थे। उनकी जान भी खतरे में पड़ी। उन्होंने विविध मामलों पर बांग्लादेश सरकार, अमेरिकी प्रशासन और सीनेट आदि में सुनवाई के प्रयत्न किए। उनकी पुस्तक प्रत्यक्ष अनुभवों और गहन शोध पर आधारित है। उस क्रम में उन्होंने बंगाल में भी हिंदुओं की हालत देखी और दिखाई।

इसके उलट भारत में बुद्धिजीवी इस मामले में मौन रहे। जबकि बांग्लादेश में एक समय अच्छी खासी तादाद में रही हिंदू आबादी अब हाशिए पर पहुंचकर विलुप्ति के कगार पर है। ताजा घटनाक्रम के बाद उन पर नए सिरे से ग्रहण लगता दिख रहा है। पूरी दुनिया में इतनी बड़ी आबादी कहीं और खत्म नहीं हुई। हिटलर के नाजीवाद ने करीब 60 लाख यहूदियों का खात्मा किया था, जबकि पूर्वी पाकिस्तान या बांग्लादेश में 1951-2008 के बीच करीब पांच करोड़ हिंदू ‘लुप्त’ हो गए। यह संख्या न्यूयार्क स्टेट यूनिवर्सिटी के प्रो. सची दस्तीदार ने दी है।

सारी दुनिया इस पर चुप्पी साधे रही, क्योंकि भारत चुप रहा, जो इससे सबसे अधिक प्रभावित होने वाला देश है। अन्यथा बोस्निया या रवांडा में कुछ हजार लोगों के संहार पर दुनिया भर के मीडिया, संयुक्त राष्ट्र और दिग्गज हस्तियों ने व्यापक चिंता व्यक्त की। कुछ लोग नाजीवाद के हाथों यहूदियों और जिहादियों के हाथों बांग्लादेशी हिंदुओं के संहार की तुलना को अतिरंजना मानते हैं, किंतु डा. बेंकिन के अनुसार, ‘यहूदियों और बांग्लादेश के हिंदुओं के मामले की तुलना करने में सारे संकेतों और प्रमाणों को पहचानना सत्यनिष्ठा की मांग करता है।

कुछ साहस की भी, क्योंकि सच्चाई समझने पर कुछ करने का कर्तव्य बनता है। चाहे वे नेता हों, या बुद्धिजीवी या मीडिया।’ ऐसे में, यही कहा जा सकता है कि बांग्लादेशी हिंदू सबसे अभागे हैं। पूर्व आइपीएस अधिकारी केपीएस गिल ने अपने अनुभव से दशकों पहले ही यह कह दिया था। बांग्लादेश में 1971, 1989 और 1993 में हिंदुओं के नरसंहार हुए। इसके बावजूद भारत का राजनीतिक-बौद्धिक वर्ग संवेदनहीन बना रहा। न्यूयार्क टाइम्स के पत्रकार सिडनी शानबर्ग की 1971 की रिपोर्ट के अनुसार केवल उसी साल 20 लाख से अधिक हिंदू मारे गए थे।

पाकिस्तानी दमन से आजाद होकर बांग्लादेश बनने के बाद हिंदुओं के संरक्षण की जो उम्मीद जगी थी, वह भी वक्त के साथ दम तोड़ती गई। बांग्लादेश सरकार ने 1974 में ‘वेस्टेड प्रापर्टी एक्ट’ बनाया, जिसके अनुसार जो हिंदू बांग्लादेश से चले गए अथवा जिन्हें सरकार ने शत्रु घोषित कर दिया, उनकी संपत्ति सरकार जब्त करके मुसलमानों को देने लगी। इसका असर कुछ ऐसा हुआ कि किसी हिंदू को जबरन मार-भगाकर या उसे शत्रु बताकर उसके परिवार की जमीन छीनकर किसी मुसलमान को दे दी जाती।

बेंकिन ने अपनी पुस्तक में ढाका विश्वविद्यालय के प्रो. अब्दुल बरकत की किताब इन्क्वायरी इंटू काजेज एंड कांसिक्वेंसेज आफ डिप्राइवेशन आफ हिंदू माइनारिटीज इन बांग्लादेश थ्रू द वेस्टेड प्रापर्टी एक्ट’ से भी विवरण दिए हैं। उस कानून की आड़ में राजनीतिक दलों के नेताओं और कार्यकर्ताओं ने भी जहां-तहां हिंदुओं की संपत्ति हड़पी। इस प्रकार हिंदुओं की तमाम संपत्ति डकार ली गई।

बांग्लादेश द्वारा 1988 में इस्लाम को ‘राजकीय मजहब’ घोषित करने के बाद से तो हिंदुओं की दशा और दयनीय होती गई। उनके साथ हिंसा, दुष्कर्म, जबरन मतांतरण, संपत्ति छीनने जैसी घटनाएं और बढ़ गईं। हिंदू लड़कियों और स्त्रियों को निशाना बनाकर उनके परिवार को आतंकित कर उनकी संपत्ति पर कब्जा या मतांतरित कराना आम बात हो गई।

तसलीमा नसरीन ने अपनी पुस्तक ‘लज्जा’ में ऐसी घटनाओं का चित्रण किया था, जिसके चलते ही उनकी हत्या का फतवा जारी किया गया, क्योंकि तसलीमा ने पहली बार उस अत्याचार को दुनिया के सामने उजागर किया, जो बांग्लादेश में हो रहा था। बांग्लादेश से किसी तरह पलायन कर बंगाल में आए हिंदुओं को यहां भी कोई राहत नहीं मिली, क्योंकि पहले वाम सरकार और अब तृणमूल के राज में मुस्लिम तुष्टीकरण का बोलबाला रहा।

डा. बेंकिन ने लिखा कि हिंदू शरणार्थियों से उनके मिलने पर माकपा कार्यकर्ताओं ने उन्हें धमकाया था कि वे अपना मुंह बंद रखें। डा. बेंकिन ने ऐसी कल्पना भी नहीं की थी। उन्होंने समझा था कि बांग्लादेशी हिंदुओं को भारत में तो मदद मिलेगी, किंतु उनका अनुभव उलटा रहा।

भारत के कई नेता और बड़े-बड़े संगठन पूरी जानकारी के बावजूद बांग्लदेशी हिंदुओं के प्रति उदासीन हैं। भारत की उदासीनता से ही पश्चिमी सरकारें और अंतरराष्ट्रीय एजेंसियां भी मामले को महत्व नहीं देतीं। यह कड़वा सच है कि बंगाल के दोनों भाग में बहुआयामी जिहाद से हिंदू घटते और मरते जा रहे हैं।

बांग्लादेश में हिंदुओं के खात्मे के बाद यहां बंगाल में उसकी पुनरावृत्ति होगी। कश्मीर में पहले ही ऐसा हो चुका है। उसी धीमी और आकस्मिक दोनों प्रकियाओं से, जिसे हमारे नेता और बुद्धिजीवी देखना नहीं चाहते या अनदेखा करते हैं। बांग्लादेशी हिंदुओं पर उनकी चुप्पी ने ही उनके संहार को जारी रखा, किंतु वहां यह अभियान पूरा हो जाने पर सबकी बारी आएगी।

(लेखक राजनीतिशास्त्र के प्राध्यापक एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं)