डा. एके वर्मा। पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों में भाजपा की विजय से विपक्षी इंडी गठबंधन यानी इंडियन नेशनल डेवलपमेंटल इंक्लूसिव अलायंस के भविष्य पर प्रश्नचिह्न लग गया है। कांग्रेस को तेलंगाना में विजय प्राप्त हुई, पर राजस्थान और छत्तीसगढ़ में सत्ता गंवाने, मिजोरम में भाजपा से पीछे रहने तथा मध्य प्रदेश में 18 वर्ष से सत्तासीन भाजपा से अप्रत्याशित हार के बाद इस गठबंधन के घटकों-सपा, जदयू, राजद, पीडीपी, नेकां, टीएमसी, शिवसेना(ठाकरे) आदि ने हार का ठीकरा कांग्रेस पर फोड़ा।

उनका आरोप है कि कांग्रेस ने चुनावों को भाजपा बनाम इंडी गठबंधन होने नहीं दिया। उसने अकेले मुकाबला किया और घटक दलों की अनदेखी की। इंडी गठबंधन ने मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में भाजपा को चुनौती देने का अवसर खो दिया। छह दिसंबर को दिल्ली में कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे द्वारा गठबंधन की बैठक में ममता बनर्जी, नीतीश कुमार और अखिलेश यादव का भाग न लेना विपक्षी खेमे में फूट और स्पर्धा की कहानी कहता है।

विपक्षी गठबंधन शुरू से ही अंतर्विरोधों का शिकार रहा और उसने एक बेमेल राजनीतिक खिचड़ी का आभास दिया। न कोई समरूप विचारधारा दिखी, न संगठनात्मक एकता और न ही कोई सर्वमान्य नेतृत्व। इसके राष्ट्रीय और क्षेत्रीय घटक दल विभिन्न राज्यों में घोर विरोधी हैं, जैसे बंगाल, पंजाब, उत्तर प्रदेश, दिल्ली आदि में।

जो दल राज्यों में घोर प्रतिद्वंद्वी हैं, उनसे राष्ट्रीय स्तर पर एका की उम्मीद कैसे की जा सकती है? इंडी गठबंधन में राष्ट्रीय बनाम क्षेत्रीय दल की भी समस्या है। कांग्रेस की कमजोर स्थिति के बावजूद उसमें राष्ट्रीय नेतृत्व का दंभ क्षेत्रीय दलों की महत्वाकांक्षाओं पर भारी पड़ता जा रहा है। शायद घटक दल यह स्वीकार कर लेते, लेकिन वे सभी राहुल गांधी की नेतृत्व क्षमता को लेकर आशंकित और चिंतित हैं।

विपक्षी गठबंधन के पास भाजपा को विस्थापित करने की न कोई ठोस रणनीति है, न शासन की वैकल्पिक नीतियां। वे भाजपा विरोधी ‘सेफोलाजिस्टों’ के इस आकलन पर निर्भर हैं कि भाजपा 2019 में अनेक राज्यों में अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन कर चुकी है और अब उसे दोहरा नहीं सकेगी और उसे दक्षिणी राज्यों में पैठ बनाने में भी समय लगेगा। इंडी गठबंधन के पास भाजपा विरोध के तीन तीर हैं-सांप्रदायिकता, राष्ट्रवाद और हिंदुत्व, लेकिन ये तीनों बहुत घिस-पिट चुके हैं और अब जनता को प्रभावित नहीं करते। इंडी गठबंधन को भाजपा से स्पर्धा के लिए कुछ नए मुद्दे तलाशने होंगे।

ऐसा नहीं कि भाजपा या मोदी शासन में कोई कमी नहीं, लेकिन विपक्षी गठबंधन के नेता उन कमियों की ओर जनता का ध्यान खींच नहीं पा रहे हैं। इस गठबंधन का उद्देश्य एकदम नकारात्मक है-मोदी हटाना। इसमें संभवतः जनता की रुचि न हो। यह गठबंधन शासन की सकारात्मक रणनीतियां उद्घोषित नहीं कर सका है। जनता को पता नहीं कि यदि इंडी गठबंधन को सत्ता सौंपी जाए तो उसकी आर्थिक, वैदेशिक, प्रतिरक्षा, कृषि संबंधी नीतियां क्या होंगी और वे मोदी सरकार की नीतियों से कैसे बेहतर होंगी?

विपक्षी गठबंधन में अधिकतर दल जातीय जनगणना को प्रभावी हथियार के रूप में प्रयोग करना चाहते हैं। उनका मानना है कि ‘ओबीसी-कार्ड’ खेल कर वे भाजपा को परास्त कर सकेंगे। वे अभी भी अस्मिता की राजनीति के तिलिस्म में फंसकर जातीय गणित में उलझे हुए हैं। उन्हें बोध नहीं कि मोदी सरकार ने समावेशी राजनीति को अमलीजामा पहना कर भारतीय राजनीति को जातीय समीकरणों के भंवर से निकाल कर ‘वर्ग-राजनीति’ की ओर धकेल दिया है।

बिहार में जातीय सर्वे जदयू और राजद के गले की हड्डी बन गया है। उससे स्पष्ट हुआ कि सामाजिक न्याय की दुहाई देने वाली पार्टियों ने अत्यंत पिछड़े वर्ग के साथ घोर अन्याय किया है। जिस तेजी से भाजपा ने पिछड़ों, अति पिछड़े वर्ग और दलितों को अपनी ओर आकृष्ट किया है, वह इसका संकेत है कि जातीय जनगणना से भाजपा को नहीं, वरन सामाजिक न्याय की दुहाई देने वाले दलों-सपा, बसपा, जदयू और राजद आदि को चिंतित होना चाहिए।

दक्षिणी राज्यों में भाजपा ने अपनी स्थिति मजबूत करने के लिए कदम बढ़ाए हैं। कर्नाटक तो दक्षिण में भाजपा का प्रवेश द्वार है। पार्टी ने 2018 और 2023 विधानसभा चुनावों में वहां 38 प्रतिशत का ठोस जनाधार बनाए रखा। यह 2019 के लोकसभा चुनावों में बढ़ कर 52 प्रतिशत हो गया था। परिणामस्वरूप पार्टी कर्नाटक की 28 में 25 सीटें जीत सकी। तेलंगाना के चुनाव परिणामों में भाजपा ने अपना जनाधार 2018 के मुकाबले दोगुना अर्थात 14 प्रतिशत कर लिया है।

काशी-तमिल संगमम्, अन्नामलाई के लोकप्रिय भाजपाई नेता के रूप में उभार और मोदी के प्रति युवाओं के आकर्षण के कारण भाजपा तमिलनाडु में भी अपने पैर पसार रही है। केरल में प्रधानमंत्री मोदी ने ईसाई समुदाय के धर्मगुरुओं से संवाद किया, स्वयं को विकास की गारंटी के रूप में पेशकर युवाओं को आकृष्ट किया और सनातन के अपमान के प्रयास को मुद्दा बनाकर पार्टी के वर्तमान जनाधार को बढ़ाने का प्रयास किया है। हो सकता है कि 2024 के लोकसभा चुनाव में इसका उसे सीमित लाभ मिले, पर कर्नाटक, तमिलनाडु, केरल और तेलंगाना आदि राज्यों में भाजपा को भविष्य में लाभ अवश्य मिलेगा।

इंडी गठबंधन प्रत्येक लोकसभा निर्वाचन क्षेत्र में साझा उम्मीदवार उतारना चाहता है। यह प्रयास इस चुनावी गणित की बुनियाद पर टिका है कि घटक दल अपने-अपने मतों को भाजपा के विरुद्ध और गठबंधन प्रत्याशी के पक्ष में हस्तांतरित करा सकेंगे, लेकिन ऐसी राजनीतिक गणित चुनावों में फेल हो जाती है।

उत्तर प्रदेश इसका जीवंत प्रमाण है, जहां 2017 में सपा-कांग्रेस और 2019 में सपा-बसपा एक-दूसरे को अपने-अपने वोट हस्तांतरित नहीं करा पाए। दोनों बार भाजपा की भारी विजय हुई। इंडी गठबंधन भाजपा की संगठनात्मक शक्ति, सकारात्मक प्रचार, समावेशी राजनीति, सशक्त एवं सर्वमान्य नेतृत्व की काट खोज नहीं पा रहा है। वास्तव में विपक्षी गठबंधन से कांग्रेस का नुकसान हो रहा है। क्षेत्रीय दलों के आगे उसका राष्ट्रीय चरित्र निस्तेज पड़ता जा रहा है।

(लेखक सेंटर फार द स्टडी आफ सोसायटी एंड पालिटिक्स के निदेशक एवं राजनीतिक विश्लेषक हैं)