ए. सूर्यप्रकाश। भारतीय लोकतंत्र ने विश्व भर में प्रशंसा एवं प्रतिष्ठा प्राप्त की है। हालांकि लोकतंत्र की इस समृद्ध यात्रा में आपातकाल जैसा एक कलंकित अध्याय भी जुड़ा है। कांग्रेस पार्टी की शीर्ष नेता और पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी द्वारा देश पर आपातकाल को थोपे हुए आज पूरे 49 वर्ष बीत गए हैं। आपातकाल की भयावहता करीब 21 महीनों तक चली और 1977 के लोकसभा चुनावों में कांग्रेस की हार के साथ ही उससे मुक्ति मिल पाई।

आपातकाल के दौरान लोकतंत्र पर ग्रहण लगा हुआ था। आपातकाल के विरोधियों और लोकतांत्रिक अधिकारों की बहाली के समर्थकों का हद दर्जे तक उत्पीड़न किया गया। पुलिस ने उन पर भयंकर अत्याचार किए। आपातकाल की अवधि के बाद दो पीढ़ियां बड़ी हो चुकी हैं तो उन्हें इसकी भनक नहीं होगी कि तब देश में कितने खराब हालात रहे। जबकि उस दौर का स्मृतियां हमें यही याद दिलाती हैं कि जब कोई सरकार अपनी जनता के लोकतांत्रिक अधिकारों का दमन कर खुद को तानाशाह के रूप में स्थापित करती है तो उसके क्या परिणाम हो सकते हैं।

बीते कुछ दिनों से राहुल गांधी लगातार संविधान की एक किताब को सार्वजनिक रूप से लहराकर यह दावा करते रहते हैं कि कांग्रेस पार्टी ही संविधान एवं लोकतांत्रिक मूल्यों की वास्तविक संरक्षक है, जबकि सच्चाई यही है कि कांग्रेस ने आपातकाल के दौरान संविधान के आत्मा को क्षति पहुंचाने में कोई कसर नहीं छोड़ी।

अपने इसी रवैये के कारण कांग्रेस ने हालिया चुनावों में यही दुष्प्रचार किया कि भाजपा भी अपने भारी बहुमत का इस्तेमाल संविधान को बदलने के लिए करेगी। राहुल गांधी ने अपनी फर्जी आशंका से एक हौवा खड़ा किया। वह शायद यह भूल गए कि इसी भाजपा के पुराने दिग्गजों ने ही आपातकाल का पुरजोर विरोध किया और लंबा समय जेल में काटा, जबकि आपातकाल के खिलाफ आवाज बुलंद करने के मामले में आइएनडीआइए में शामिल अधिकांश दलों और उनके नेताओं का अतीत जरूर संदिग्ध रहा।

आपातकाल के काले अध्याय को एक आलेख में समेटना मुश्किल है, लेकिन कुछ प्रसंगों से इसकी बर्बरता समझी जा सकती है। इससे कम से कम नई पीढ़ी को यह समझने में मदद मिलेगी कि असली आपातकाल कैसा होता है और उसके कितने विध्वसंक नतीजे देखने को मिलते हैं। उस दौरान संविधान में किए गए परिवर्तनों के पीछे की मंशा को जानकर मौजूदा पीढ़ी के पैरों तले जमीन खिसक सकती है।

नवंबर 1976 में कांग्रेस ने संसद में अपने भारी बहुमत के जरिये उस आपत्तिजनक 42वें संविधान संशोधन को मूर्त रूप दिया, जिसने न्यायिक स्वतंत्रता पर अंकुश लगाकर पूर्ण तानाशाही की राह खोली। इंदिरा गांधी पर चुनाव में कदाचार से जुड़े इलाहाबाद हाई कोर्ट के फैसले को निष्प्रभावी करना ही 39वें संविधान संशोधन का एकमात्र मकसद था।

भारतीय संवैधानिक व्यवस्था में अनुच्छेद 368 के अंतर्गत संविधान संशोधन की सुस्पष्ट प्रक्रिया है। इसके लिए संसद के दोनों सदनों में दो तिहाई बहुमत के साथ ही कम से कम आधी विधानसभाओं की स्वीकृति आवश्यक होती है। इस प्रक्रिया में महीनों या कई बार साल भी लग सकते हैं, लेकिन 42वें संविधान संशोधन ने भारत के राष्ट्रपति को दो वर्षों के लिए यह शक्ति प्रदान कर दी कि एक कार्यकारी आदेश के माध्यम से संविधान संशोधन किया जा सकता है।

चूंकि राष्ट्रपति एक प्रकार से इंदिरा गांधी की कठपुतली थे तो संसद की पूरी शक्ति प्रधानमंत्री के पास आ गई जो अपनी इच्छा से संविधान में संशोधन करने में सक्षम हो गईं। उन्होंने कुछ मनमाने संशोधन किए। जैसे राज्य सरकार की सहमति के बिना ही वहां केंद्रीय पुलिस बलों की नियुक्ति में केंद्र को मिला एकाधिकार या उच्च न्यायालयों से संवैधानिक याचिकाओं पर सुनवाई का अधिकार छीनना।

इसमें एक प्रविधान तो ऐसा था जिसने विधायी संस्थाओं की आभा को ही समाप्त कर दिया था। इसके अंतर्गत सदन की बैठक और किसी प्रस्ताव को पारित करने के लिए न्यूनतम कोरम की सीमा ही समाप्त कर दी गई। इसका अर्थ था महज एक सांसद या कुछ सांसदों का समूह ही 70 करोड़ लोगों (उस समय देश की आबादी) की नियति तय करने वाले किसी कानून पर मुहर लगा सकता था।

आपातकाल के दौरान न्यायपालिका पर भी जबरदस्त आघात किए गए। कांग्रेस के कई वरिष्ठ सदस्यों ने 42वें संविधान संशोधन पर संसद में हुई बहस के दौरान न्यायपालिका पर टिप्पणियां कीं। सीएम स्टीफन ने कहा, ‘इस संशोधन के माध्यम से अब इस संसद की शक्ति किसी भी अदालत की सीमा से परे हो गई है। अब यह अदालतों पर छोड़ दिया गया है कि इसकी अवहेलना करनी है या नहीं। मेरे विचार से वे ऐसा दुस्साहस करने से बचेंगी और अगर उन्होंने ऐसा किया तो...वह न्यायपालिका के लिए बहुत बुरा दिन होगा।

न्यायाधीशों के आचरण पर नजर रखने के लिए सदन की कमेटी सक्रिय हो रही है। हमने अपने तौर-तरीके और ढांचा भी बना लिया है।’ क्या किसी लोकतंत्र में सत्तारूढ़ दल के किसी सदस्य ने न्यायपालिका पर इससे अधिक तल्ख टिप्पणी की होगी। मानो इतना ही काफी नहीं था। स्वर्ण सिंह ने कहा कि यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि अदालतों ने अपने लिए निर्धारित लक्ष्मण रेखा को लांघ दिया, जो अतिक्रमण का खराब उदाहरण है।

एनकेपी साल्वे ने कहा कि हर देश के समक्ष वह क्षण आता है जब संविधान की अदालतों से और अदालतों की खुद अदालतों से रक्षा करनी पड़ती है। इससे समझा जा सकता है कि आपातकाल के दौरान न केवल लोकतांत्रिक संस्थाओं, बल्कि न्यायपालिका पर भी सुनियोजित हमले किए गए। तब कांग्रेस नेताओं ने अपनी मनमानी करने के लिए प्रेस की स्वतंत्रता का निर्ममता से दमन किया और संपादकों को जेल भेजा।

आपातकाल के दौर में भारत को फासीवादी राष्ट्र में बदल देने वालों को न कभी भूलना चाहिए और न ही वे क्षमा के पात्र हैं। महत्वपूर्ण सवाल यह है कि जिस पार्टी के लोगों ने आपातकाल में हर तरह की मनमानी की, उनके मुंह से क्या लोकतंत्र की रक्षा का दावा विश्वसनीय लग सकता है? क्या किसी लोकतंत्र में एक समय लोकतांत्रिक मूल्यों की बलि चढ़ाने वाले कुछ समय बाद खुद को उसके रक्षक के रूप में पेश कर सकते हैं?

(लेखक लोकतांत्रिक एवं संवैधानिक विषयों के जानकार हैं)