संजय गुप्त। जिला अदालतों के राष्ट्रीय सम्मेलन के समापन दिवस पर राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मु ने लंबित मुकदमों और न्याय में देरी का उल्लेख कर न्यायिक तंत्र की एक गंभीर समस्या को नए सिरे से रेखांकित करने का ही काम किया। उन्होंने लंबित मुकदमों को न्यायपालिका के लिए एक बड़ी चुनौती बताते हुए ऐसे मुकदमों के कारण आम आदमी को होने वाली समस्याओं का विस्तार से जो जिक्र किया, उस पर कार्यपालिका और न्यायपालिका को तत्काल प्रभाव से ध्यान देना चाहिए। ऐसा किया जाना इसलिए आवश्यक हो गया है, क्योंकि निचली अदालतों से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक में लंबित मुकदमों की संख्या बढ़ती चली जा रही है।

एक आंकड़े के अनुसार ऐसे मुकदमों की संख्या पांच करोड़ तक पहुंच गई है। यह ठीक है कि लंबित मुकदमों के बोझ को कम करने के लिए लोक अदालतें सक्रिय हैं, लेकिन अभी वांछित नतीजे नहीं मिल पा रहे हैं। यह ठीक नहीं कि स्वतंत्रता के इतने वर्षों बाद भी हमारा न्यायिक तंत्र विकसित और कई विकासशील देशों जैसा नहीं बन पाया है। न्याय में देरी केवल सामाजिक कुंठा ही नहीं बढ़ा रही है, बल्कि विकास के कार्यों पर भी विपरीत असर डाल रही है, क्योंकि अपराध के मामलों की तरह जमीन-जायदाद और कारपोरेट जगत के मामले भी अदालतों में लंबित हैं। एक समस्या यह भी है कि केंद्र-राज्य सरकारें सबसे बड़ी मुकदमेबाज हैं। आखिर इससे खराब बात और क्या हो सकती है कि सरकारें ही अपने लोगों से अदालतों में उलझी रहें?

यह अच्छा है कि न्याय में देरी की समस्या से सुप्रीम कोर्ट के प्रधान न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ भी अच्छी तरह परिचित हैं। उन्होंने जिला अदालतों के राष्ट्रीय सम्मेलन में यह बताया कि जिला स्तर पर न्यायिक कर्मियों की रिक्तियां 28 प्रतिशत और गैर-न्यायिक कर्मचारियों की 27 प्रतिशत हैं। उन्होंने लंबित मामलों को कम करने के लिए गठित एक समिति का जिक्र करते हुए ऐसे मामलों को कम करने के लिए एक कार्ययोजना भी रेखांकित की। तीन चरणों वाली इस कार्ययोजना के तहत ऐसे उपाय किए जाएंगे, जिनसे अदालतें पूरी क्षमता से काम कर सकें। इस कार्ययोजना में कुशल न्यायिक अधिकारियों की भर्ती करना और लंबित मुकदमों को हल करना भी शामिल है। यह कार्ययोजना प्रभावी तो नजर आती है, लेकिन बात तब बनेगी, जब उस पर समय रहते सही ढंग से अमल हो और उसके अनुकूल नतीजे सामने आएं।

प्रधानमंत्री मोदी ने 2014 में जब सरकार की बागडोर अपने हाथ में ली थी, तब उन्होंने पुराने कानूनों को खत्म करने का वादा किया था। इस वादे पर अमल करते हुए तमाम पुराने और अप्रासंगिक पड़ चुके कानूनों को खत्म भी किया गया है, लेकिन लंबित मुकदमों का बोझ और न्याय में देरी की समस्या का समाधान नहीं हो पा रहा है। अपने देश में निचली अदालतों की जैसी कार्यप्रणाली है, वह चिंतित करने वाली है। यह कार्यप्रणाली न्यायिक तंत्र का उपहास सी उड़ाती है। निचली अदालतें न्यायाधीशों की कमी के साथ ही संसाधनों के अभाव से भी जूझ रही हैं और इसके कारण भी लोगों को समय पर न्याय नहीं मिल पाता। न्याय में देरी का एक कारण न्यायाधीशों और अधिवक्ताओं के काम करने का तौर-तरीका भी है। इसी तौर-तरीके के कारण तारीख पर तारीख का सिलसिला कायम है। यह सिलसिला आम आदमी को हतोत्साहित करने वाला है। इस संदर्भ में राष्ट्रपति ने यह बिल्कुल सही कहा कि अब आम आदमी अदालतों का दरवाजा खटखटाने में घबराता है। इस घबराहट को उन्होंने ब्लैक कोट सिंड्रोम की जो संज्ञा दी, वह बिल्कुल सही है।

न्याय में देरी अन्याय ही है। कभी-कभी तो ऐसा लगता है कि न्याय आम आदमी से दूर होता चला जा रहा है। अपने देश में जो जितना निर्धन और असहाय है, उसके लिए न्याय पाना उतना ही कठिन है। हमारे नीति-नियंता यह ध्यान रखें तो बेहतर कि यदि न्यायिक तंत्र पर से लोगों का भरोसा उठा तो यह लोकतंत्र के लिए शुभ नहीं होगा। निःसंदेह ऐसा नहीं है कि सामान्य मामलों में ही फैसला होने में देरी होती हो। गंभीर मामलों में भी समय पर न्याय नहीं मिल पाता। उदाहरणस्वरूप नेताओं और नौकरशाहों के भ्रष्टाचार के जिन मामलों की सुनवाई प्राथमिकता के आधार पर होनी चाहिए और फैसला जल्द दिया जाना चाहिए, उनमें भी आवश्यकता से अधिक देरी होती है। इसका लाभ उठाकर भ्रष्टाचार के मामलों का सामना कर रहे अथवा जेल भेजे गए नेताओं के समर्थक यह माहौल बनाते हैं कि उन्हें झूठे मामले में बदले की राजनीति के तहत फंसाया गया है।

भ्रष्टाचार के आरोपों का सामना कर रहे नेताओं को जब कभी जमानत मिल जाती है तो ऐसे नेता और उनके समर्थक यह प्रचारित करने लगते हैं कि उन्हें क्लीनचिट मिल गई। दिल्ली के आबकारी घोटाले में गिरफ्तार लोगों को जमानत मिलने के बाद ऐसा ही माहौल बनाया जा रहा है। इन लोगों को जमानत इसलिए मिली, क्योंकि उनके ट्रायल शुरू होने में देरी हो रही थी। एक अन्य कारण जांच एजेंसियों की ओर से अदालतों के समक्ष पुख्ता प्रमाण न रख पाना भी है। यदि जांच एजेंसियां अपना काम सही तरह से नहीं कर पाएंगी तो फिर राजनीतिक भ्रष्टाचार पर प्रहार नहीं किया जा सकता। राजनीतिक भ्रष्टाचार की तरह ही महिलाओं के खिलाफ होने वाले अपराधों और विशेष रूप से यौन अपराधों के मामलों की सुनवाई में भी देरी होती है। कई बार तो ऐसे कुछ मामलों में भी देरी होती है, जो गंभीर होते हैं और जिन्होंने सारे देश का ध्यान आकर्षित किया होता है। यह एक तथ्य है कि दिल्ली के बहुचर्चित निर्भया कांड के दोषियों की सजा पर अमल करने में आठ वर्ष का समय लग गया। इसी तरह उन्नाव के एक चर्चित मामले में अभी तक अंतिम फैसला नहीं हो सका है।

न्याय में देरी के कारणों का उल्लेख कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका के लोग जब-तब करते ही रहते हैं, लेकिन इन कारणों का निवारण कैसे हो, इस पर उनमें आम राय कायम नहीं हो पा रही है। उन्हें न केवल आम राय कायम करनी होगी, बल्कि आपस में मिलकर ऐसी कोई व्यवस्था भी बनानी होगी, जिससे न्याय में देरी की समस्या का प्रभावी तरीके से समाधान हो सके। यदि ऐसा नहीं हो सका तो भ्रष्टाचार और अपराधों पर अंकुश लगाना तो कठिन होगा ही, देश के विकास की गति को आगे बढ़ाना और विकसित भारत के सपने को साकार करना भी मुश्किल होगा।

[लेखक दैनिक जागरण के प्रधान संपादक हैं]