जागरण संपादकीय: पुरानी तारीख से टैक्स के दुष्परिणाम, रेट्रोस्पेक्टिव टैक्स के बजाय पारदर्शी एवं सुस्पष्ट नीतियों को अपनाना होगा
रेट्रोस्पेक्टिव टैक्स से करदाताओं के अधिकार भी प्रभावित होते हैं क्योंकि प्रत्येक करदाता मौजूदा व्यवस्था के अनुरूप ही आर्थिक नियोजन करता है। इन अधिकारों का क्षरण टैक्स प्रणाली के प्रति अविश्वास बढ़ाता है जिससे कर अनुपालन की प्रक्रिया प्रभावित हो सकती है क्योंकि करदाता को टैक्स प्रणाली अनुचित एवं अनिश्चित प्रतीत हो सकती है। यह टैक्स प्रशासनिक मोर्चे पर भी तमाम चुनौतियां बढ़ाता है।
विवेक देवराय और आदित्य सिन्हा। रेट्रोस्पेक्टिव टैक्स यानी पुरानी तारीख से लगाए जाने वाले टैक्स का मुद्दा हमेशा विवादों में रहा है। हाल के इतिहास में देखें तो वर्ष 2012 में वोडाफोन-हचिसन एस्सार सौदे में रेट्रोस्पेक्टिव टैक्स के झटके अर्थव्यवस्था में काफी लंबे समय तक महसूस किए गए थे। उस मामले में पूंजीगत लाभ कर से जुड़ी मांग को लेकर सुप्रीम कोर्ट के फैसले ने निवेशकों के हौसले पर गहरा आघात किया था।
उस फैसले से निवेश के एक ठिकाने के रूप में भारत की स्थिति को बड़ा धक्का लगा था। संप्रग सरकार द्वारा लाए गए उस कर प्रस्ताव को दफन करने में करीब दशक भर का समय लग गया। शीर्ष अदालत के एक हालिया फैसले से उस डरावने दौर ने नए सिरे से दस्तक दी है। यह ताजा मामला खनिजों और खनन भूमि पर राजस्व के मामले में राज्यों द्वारा कर वसूलने से जुड़ा है, जिसे एक अप्रैल, 2005 से लागू किया गया है।
इस फैसले से खनन कंपनियों पर 1.5 लाख से लेकर 2 लाख करोड़ रुपये तक का वित्तीय बोझ पड़ेगा, जिसमें सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों को ही करीब 70,000 रुपये का वित्तीय बोझ उठाना पड़ सकता है। इस फैसले से जहां झारखंड, ओडिशा और छत्तीसगढ़ जैसे खनिज संपदा से समृद्ध राज्यों के खजाने की झोली भरेगी, लेकिन इससे मुकदमेबाजी के लंबे सिलसिले के जोर पकड़ने की आशंका भी बढ़ गई है।
साथ ही भारत में प्रतिकूल एवं अप्रत्याशित नियामकीय परिवेश को लेकर जो धारणाएं बनेंगी, वे आर्थिकी को लंबे समय तक डराती रहेंगी। रेट्रोस्पेक्टिव टैक्स के गुण-दोषों पर एक लंबी चर्चा हो सकती है, लेकिन इस प्रतिगामी टैक्स की प्रकृति को लेकर कुछ तथ्यों को बिल्कुल अनदेखा नहीं किया जा सकता। पहली बात तो यही कि रेट्रोस्पेक्टिव टैक्स किसी भी देश के आर्थिक परिदृश्य एवं कानूनी सुनिश्चितता की राह में अवरोधक बनने के साथ ही तात्कालिक वित्तीय प्रभावों से परे भी अपना दूरगामी असर दिखाता है।
ऐसे टैक्स से निवेशकों में एक अनिश्चितता बनी रहती है कि पता नहीं उन्हें किस मामले में पिछली तारीख से कर अदा करना पड़ जाए। इससे उनका संभावित निवेश प्रभावित होने की आशंका बढ़ जाती है। विशेष तौर से प्रत्यक्ष विदेशी निवेश यानी एफडीआइ के मामले में यह और ज्यादा दिख सकता है, क्योंकि विदेशी निवेशक ऐसे विवादों से बचना चाहते हैं।
अर्थशास्त्री देसाई और धर्मपाल (2009) द्वारा यह रेखांकित भी किया गया कि कर अनिश्चितता का एफडीआइ में गिरावट से सीधा संबंध होता है। यह बहुत स्वाभाविक भी है, क्योंकि कंपनियां अपना निवेश वहां करना चाहेंगी, जहां उन्हें नीतिगत मोर्चे पर अधिक स्थायित्व एवं स्थिरता महसूस होगी। रेट्रोस्पेक्टिव टैक्स के तमाम मामले ऐसी मिसालों से भरे हुए हैं, जहां बाद में उसके आर्थिक दुष्प्रभाव भुगतने पड़े।
इस प्रकार के टैक्स से कानूनी परिदृश्य पर अनिश्चितता कायम होती है। सहजता से समझें तो कोई भी उद्यमी या कंपनी मौजूदा कानूनी प्रविधानों के अनुरूप ही अपने कारोबारी फैसले करते हैं, मगर ऐसे टैक्स के चलते उन्हें उस व्यवस्था के अनुरूप भी कर अदायगी करनी पड़ सकती है, जिसका उस समय कोई अस्तित्व भी न हो जब उन्होंने उक्त उद्यम शुरू किया हो।
इससे कानूनी व्यवस्था में भरोसा घटता है और मनमाने तौर-तरीकों की एक खतरनाक मिसाल कायम होती है। कई आर्थिक अध्ययन यह पुष्ट कर चुके हैं कि सतत एवं टिकाऊ आर्थिक विकास के लिए आवश्यक पूंजी-केंद्रित परियोजनाओं पर रेट्रोस्पेक्टिव टैक्स नीतियां नकारात्मक प्रभाव डालती हैं। कानूनी दृष्टांत भी ऐसे उदाहरणों से भरे हुए हैं।
अर्थशास्त्री मजहर एवं मूर (2013) का शोध दर्शाता है कि इस प्रकार की नीतियां कैसे कानूनी विवादों को बढ़ा देती हैं। इससे करदाताओं और सरकार पर बोझ पड़ता है, क्योंकि इसमें लागत से लेकर संसाधन आवंटन के पहलू जुड़े होते हैं। अंतत:, इसका परिणाम आर्थिक गतिविधियों की गति मंद पड़ने के रूप में निकलता है।
रेट्रोस्पेक्टिव टैक्स से करदाताओं के अधिकार भी प्रभावित होते हैं, क्योंकि प्रत्येक करदाता मौजूदा व्यवस्था के अनुरूप ही आर्थिक नियोजन करता है। इन अधिकारों का क्षरण टैक्स प्रणाली के प्रति अविश्वास बढ़ाता है, जिससे कर अनुपालन की प्रक्रिया प्रभावित हो सकती है, क्योंकि करदाता को टैक्स प्रणाली अनुचित एवं अनिश्चित प्रतीत हो सकती है।
यह टैक्स प्रशासनिक मोर्चे पर भी तमाम चुनौतियां बढ़ाता है। इस प्रकार के टैक्स को लागू करने के लिए वित्तीय अवधियों का नए सिरे से आकलन करना पड़ता है, जिससे टैक्स प्राधिकारी संस्था से लेकर करदाताओं पर बोझ बढ़ता है। इस प्रकार की प्रक्रियाएं बहुत जटिल और समय खपाने वाली होती हैं, जिन पर काफी खर्चा भी होता है।
इन पर होने वाले संसाधनों को लोक प्रशासन के किसी अन्य मोर्चे पर व्यय करना कहीं अधिक श्रेयस्कर होता है। इस बढ़े हुए प्रशासनिक बोझ से अक्षमताओं और गलतियों की गुंजाइश बढ़ जाती है। कर प्रणाली की जटिलता बढ़ने के साथ ही मुकदमेबाजी के आसार भी बढ़ जाते हैं। ऐसे माहौल में नवाचार और उद्यमिता की भावना कुंद पड़ जाती है।
भविष्य में अप्रत्याशित कर देनदारी स्टार्टअप इकोसिस्टम द्वारा नए उपक्रम आरंभ करने में हिचक का कारण बन सकती है, विशेषकर ऐसे क्षेत्रों में जहां व्यापक अग्रिम निवेश चाहिए होता है। नवाचार पर ऐसा प्रहार किसी भी देश की आर्थिक गतिशीलता पर दीर्घकालिक नकारात्मक प्रभाव डालते हुए वैश्विक बाजार में प्रतिस्पर्धा की उसकी क्षमता को कमजोर कर सकता है।
यह कहना गलत नहीं होगा कि रेट्रोस्पेक्टिव टैक्स एक ऐसा खतरनाक खेल है, जिसे खेलने से भारत को हर कीमत पर बचना चाहिए। इससे तात्कालिक तौर पर भले ही कुछ राजस्व की प्राप्ति हो जाए, लेकिन निवेशकों के भरोसे पर आघात, कानूनी अनिश्चितता और आर्थिक अस्थिरता के रूप में भारी दूरगामी कीमत चुकानी पड़ती है।
यदि भारत को निवेश के एक विश्वसनीय ठिकाने के रूप में स्थापित होना है तो रेट्रोस्पेक्टिव टैक्स के बजाय पारदर्शी एवं सुस्पष्ट नीतियों को अपनाना होगा। अन्यथा हम छोटे से लाभ के लिए बड़ा नुकसान करते रहेंगे।
(देवराय प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद के प्रमुख एवं सिन्हा परिषद में ओएसडी-अनुसंधान हैं)