दिव्य कुमार सोती। यह दिख रहा है कि भारतीय प्रधानमंत्री की रूस यात्रा पश्चिमी देशों को रास नहीं आई, लेकिन भारत के लिए पश्चिम और खासकर अमेरिका और उसके सहयोगी देशों पर आंख मूंदकर भरोसा न करने के पर्याप्त कारण हैं। अमेरिका अपने हितों की खातिर चीन के खिलाफ भारत का इस्तेमाल तो करना चाहता है, लेकिन भारत के हितों की रक्षा करने के लिए तैयार नहीं दिखता।

इसका एक संकेत तब मिला था, जब पिछले दिनों अमेरिकी सांसदों के एक प्रतिनिधिमंडल ने भारत यात्रा के दौरान तिब्बती बौद्धों के सर्वोच्च धर्मगुरु और नेता दलाई लामा से धर्मशाला में मुलाकात की थी। बाद में यह समूह प्रधानमंत्री मोदी से भी मिला। प्रतिनिधिमंडल का नेतृत्व तिब्बत से जुड़े मामलों पर मुखर रहीं वरिष्ठ अमेरिकी सांसद नैंसी पैलोसी कर रही थीं।

पैलोसी ने अपने भाषण में चीन के राष्ट्रपति शी चिनफिंग के विरोध में भारत की धरती से बहुत सख्त शब्दों का प्रयोग किया, लेकिन उन्होंने भारत के प्रति चीन के आक्रामक रवैये पर कुछ खास नहीं कहा। चूंकि अमेरिका इस समय चीन के साथ प्रभुत्व के संघर्ष में उलझा हुआ है तो पैलोसी की बातें हैरान करने वाली नहीं हैं। यहां भारत का बदला हुआ रुख उल्लेखनीय है।

वर्ष 1993 के सीमा शांति समझौते और फिर 2013 तक चीन के साथ मधुर व्यापारिक संबंधों के दौर में नई दिल्ली में बैठी सरकारों ने चीन को नाराज न करने के उद्देश्य से दलाई लामा से दूरी बनाने की नीति अपना रखी थी। भारत में सरकारों के शिथिल रवैये का लाभ उठाकर चीन हमारे तमाम हिस्सों पर अपना दावा करने का दुस्साहस दिखाने लगा। 2020 में जब गलवन घाटी में पानी सिर से ऊपर गुजरने लगा तब भारत ने चीन को उसकी भाषा में ही जवाब देना शुरू किया।

उसके बाद से दोनों देशों के बीच सैन्य तनाव रह-रहकर सिर उठाता रहा है। चीन अपनी हरकतों से बाज आने को तैयार नहीं दिखता। अब वह पाकिस्तान से 1963 में अवैध रूप से हासिल की गई शक्सगाम घाटी में एक नई सड़क बना रहा है। यह पाकिस्तान के साथ मिलकर सियाचिन और काराकोरम क्षेत्र में भारत को तीन ओर से घेरने का प्रयास हो सकता है, लेकिन इसे सिर्फ भारत चीन संबंधों के सीमित संदर्भ में नहीं देखा जा सकता। चीन की ओर से ताइवान पर भी हमले का खतरा निरंतर मंडरा रहा है।

वैश्विक भूराजनीतिक परिस्थितियों को देखें तो अमेरिकी लिबरल खेमे की शह पर यूक्रेन जिस प्रकार रूस के विरुद्ध डटा हुआ है, उससे एशिया को लेकर अमेरिकी समीकरण बिगड़ गए हैं। इस युद्ध के चलते पश्चिमी प्रतिबंधों के कारण रूस चीन पर अत्यधिक निर्भर होता जा रहा है। बीते दिनों पुतिन ने उत्तर कोरिया का दौरा भी किया। ईरान भी अब रूस-चीन के खेमे में ही है। एक ओर इजरायल और दूसरी ओर यूक्रेन के सामरिक मोर्चे पर फंसे अमेरिका को अब ताइवान की सुरक्षा को लेकर भी दबाव महसूस हो रहा है।

इराक और अफगानिस्तान के लंबे खिंचे युद्धों में भारी नुकसान उठा चुका अमेरिका संभवतः ताइवान की सुरक्षा के लिए अपने सैनिकों का खून नहीं बहाना चाहता। चिंता की बात यह भी है कि ताइवान स्ट्रेट तथा दक्षिण चीन सागर में चीनी नौसेना की शक्ति निरंतर बढ़ रही है। अगर ताइवान को लेकर चीनी और अमेरिकी नौसेना में सीधी झड़प होती है तो भरी-पूरी आशंका है कि अमेरिकी नौसेना को भारी क्षति उठानी पड़ सकती है।

जब गलवन में भारत ने चीन को करारा जवाब दिया तो पश्चिमी मीडिया ने उसकी भूरि-भूरि प्रशंसा की थी। उसने कहा था कि पूरे एशिया में भारत ही एकमात्र ऐसा देश दिखाई पड़ता है, जो चीन का रास्ता रोक सकता है। ऐसे में चीन के साथ शक्ति संतुलन और सीधी सैन्य झड़प की स्थिति में अमेरिका के लिए भारत का महत्व बहुत अधिक है। इसके बावजूद अमेरिकी नीतिकार विशेषकर उसका लिबरल खेमा दुविधा में दिखता है।

एक ओर जहां वह भारत के बल पर चीन की शक्ति को संतुलित करना चाहता है, वहीं दूसरी ओर आवश्यकता पड़ने पर भारत के कंधे पर रखकर बंदूक भी चलाना चाहता है। रूस के साथ भारत के संबंध उसे खटकते हैं। वह अपनी समस्या को भारत की समस्या बनाना चाहता है। आखिर नाटो के यूक्रेन तक विस्तार से भारत को क्या लेना-देना? असल में, चीन को रोकने के मुख्य लक्ष्य पर ध्यान देने की जगह शीत युद्ध वाली मानसिकता के साथ अमेरिकी नीतिकार रूस से परोक्ष युद्ध में उलझे हैं और इस पूरी स्थिति का लाभ चीन उठा रहा है।

पीएम मोदी की हालिया रूस यात्रा से पहले अमेरिकी राजदूत यह कहते सुनाई पड़े कि प्रतिबंधों के बावजूद रूस के साथ व्यापार कर रही भारतीय कंपनियों पर अमेरिकी कार्रवाई की गाज गिर सकती है। अमेरिका भारत की सुरक्षा चिंताओं को भी अनदेखा कर रहा है। अमेरिका और उसके मित्र देश खालिस्तानी आतंकवादियों को खुलकर संरक्षण दे रहे हैं। यही काम कनाडा और भी अधिक खुलकर कर रहा है।

आए दिन भारत को धमकाने वाले गुरपतवंत सिंह पन्नू जैसे आतंकियों की अमेरिकी एजेंसियां ढाल बनी हुई हैं। इस मामले में भारत को दबाव में लेने के लिए निखिल गुप्ता नाम के एक भारतीय को बलि का बकरा बनाया जा रहा है। जबकि निखिल गुप्ता पर लगाए गए आरोपों का एकमात्र गवाह अमेरिकी खुफिया एजेंसी डीईए का ही एक अधिकारी है। यह वही एजेंसी है, जिसके लिए 26/11 मुंबई हमलों का मुख्य साजिशकर्ता डेविड हेडली काम करता था। हेडली को अमेरिका ने आज तक भारत को नहीं सौंपा।

मणिपुर से लेकर म्यांमार तक फैली अस्थिरता में अमेरिकी एजेंसियों की संदिग्ध भूमिका अब जाहिर हो चुकी है। बांग्लादेश की प्रधानमंत्री शेख हसीना तो यहां तक कह चुकी हैं कि अमेरिका इस क्षेत्र में एक ईसाई राष्ट्र बनाना चाहता है ताकि चीन के विरुद्ध उसका अपना एक बेस तैयार हो सके। ऐसे में, अमेरिका को यह निर्णय करना होगा कि यदि उसे चीन के विरुद्ध भारत की मदद चाहिए तो वह भारत के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप करना बंद करे।

हालांकि डेमोक्रेटिक पार्टी के शासनकाल में यह कठिन लगता है। वास्तव में यदि चीन प्रत्यक्ष रूप में हमलावर है तो अमेरिका भी विश्वास करने लायक मित्र नहीं दिखता। इसलिए यह भारतीय विदेश नीति की कठिन परीक्षा का समय है। भारत को चीन के साथ अमेरिका से भी सतर्क रहना होगा।

(लेखक काउंसिल आफ स्ट्रैटेजिक अफेयर्स से संबद्ध सामरिक विश्लेषक हैं)