तिब्बत पर भारत भी अपनी चुप्पी तोड़े, चीन को उसी की भाषा में जवाब देने का समय
उजरा जेया और दलाई लामा की ताजा भेंट पर चीन की तीखी प्रतिक्रिया को अगर पिछले कुछ वर्षों की अंतरराष्ट्रीय घटनाओं के संदर्भ में देखा जाए तो मामला समझना आसान हो जाता है। चीन के रास्ते अरबों डालर कमाने को लालायित अमेरिकी अंतरराष्ट्रीय कंपनियों और चीन समर्थक लाबी गुटों के दबाव में आकर पिछली कई अमेरिकी सरकारें अपने तिब्बत-प्रेम को भुलाकर बीजिंग की मिजाजपुर्सी वाले बयान देती रहीं।
विजय क्रांति : दुनिया के किसी भी मंच पर तिब्बत या दलाई लामा का नाम आते ही चीन की सरकार और उसके नेता आपा खोने लगते हैं। चीनियों की इस बौखलाहट से वही सच्चाई बेनकाब होती है कि तिब्बत को लेकर उसके मन में बहुत बड़ा चोर बैठा है। इस कारण चीनी सरकार किसी अपराधबोध के तले खुद को नैतिकता के धरातल पर बहुत असहाय पाती है। इसका एक उदाहरण हाल में देखने को मिला।
भारत यात्रा पर आईं अमेरिकी अवर सचिव और तिब्बती मामलों पर अमेरिकी सरकार की विशेष प्रतिनिधि उजरा जेया और भारत में अमेरिकी राजदूत की दलाई लामा के साथ भेंट पर चीन सरकार ने जैसी तल्ख एवं आक्रामक टिप्पणी की, वह इस सामान्य घटना के अनुपात में बहुत असामान्य और चौंकाने वाली थी। चीनी दूतावास ने इस भेंट पर त्वरित प्रतिक्रिया में इसे अमेरिकी प्रतिनिधि की एक चीन विरोधी ‘आक्रामक कार्रवाई’ और अमेरिका द्वारा चीन के अंदरूनी मामलों में हस्तक्षेप बताया। चीनी प्रवक्ता ने अमेरिकी सरकार को लगभग धमकाते हुए अंदाज में कहा कि अमेरिका अपने इस आश्वासन का सम्मान करे कि तिब्बत चीन का हिस्सा है और उसे चीन के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप की हरकतें बंद करके चीन विरोधी अलगाववादी शक्तियों को समर्थन देना बंद करना चाहिए।
चीन की इस आक्रामक प्रतिक्रिया का एक और रोचक पहलू यह रहा कि इस बार चीनी दूतावास ने अपने बयान में ‘तिब्बत’ के बजाय उसके लिए चीनी नाम ‘शीजांग’ का उपयोग किया। यह चीन सरकार की उस नई रणनीति को दर्शाता है जिसके तहत चीन अंतरराष्ट्रीय विमर्श से ‘तिब्बत’ शब्द के अस्तित्व को ही खत्म करने पर आमादा है। अब तिब्बत पर चीन की सरकारी प्रतिक्रियाओं में ‘तिब्बत’ के बजाय चीनी नाम ‘शीजांग’ का इस्तेमाल ठीक उसी प्रकार किया जाने लगा है, जैसा चीन ने 1949 में पूर्वी तुर्किस्तान पर कब्जा जमाने के बाद उसके लिए चीनी नाम शिनजियांग का इस्तेमाल करके किया था। चीन की उस नीति का परिणाम यह हुआ कि धीरे-धीरे विश्व समुदाय यह भूल चुका है कि 1949 से पहले पूर्वी तुर्किस्तान एक स्वतंत्र देश था, जिस पर माओ की पीपुल्स लिबरेशन आर्मी ने जबरन कब्जा कर लिया था। इसके एक साल बाद ही चीन ने विश्व समुदाय के देखते-देखते एक स्वतंत्र पड़ोसी देश तिब्बत पर भी कब्जा जमा लिया था।
उजरा जेया और दलाई लामा की ताजा भेंट पर चीन की तीखी प्रतिक्रिया को अगर पिछले कुछ वर्षों की अंतरराष्ट्रीय घटनाओं के संदर्भ में देखा जाए तो मामला समझना आसान हो जाता है। चीन के रास्ते अरबों डालर कमाने को लालायित अमेरिकी अंतरराष्ट्रीय कंपनियों और चीन समर्थक लाबी गुटों के दबाव में आकर पिछली कई अमेरिकी सरकारें अपने तिब्बत-प्रेम को भुलाकर बीजिंग की मिजाजपुर्सी वाले बयान देती रहीं। इस बीच पश्चिमी पूंजी और व्यापार के बूते चीन के आर्थिक एवं सामरिक रूप से ताकतवर होने के बाद अमेरिका-चीन ‘हनीमून’ समाप्त होने पर अब अमेरिकी सरकारों को चीन के मुकाबले अपनी कमजोरी का अहसास होने लगा है। लिहाजा, अब अमेरिका की नई रणनीति चीन की ऐसी हर कमजोरी को अपने हित में साधने पर टिकी है जिसका इस्तेमाल करके वह चीन के मुकाबले अपना अंतरराष्ट्रीय वर्चस्व कायम रख सके।
चीनी आक्रामकता से पीड़ित भारत, ताइवान, जापान और आस्ट्रेलिया जैसे देशों के साथ नए सामरिक और आर्थिक गठजोड़ बनाने की अमेरिकी पहल भी इसी रणनीति का हिस्सा है। दक्षिण चीन सागर और आसियान देशों में चीनी आतंक ने भी भारत जैसे देशों के लिए अनुकूल स्थिति उत्पन्न की है। अपनी नई रणनीति के तहत अमेरिका ने पिछले कुछ वर्षों में तिब्बत और पूर्वी-तुर्किस्तान पर कुछ नए कानून बनाए हैं, जिनके तहत वह चीन के औपनिवेशिक कब्जे में फंसे इन देशों के लिए अंतरराष्ट्रीय माहौल बनाने में जुटा हुआ है। इनमें से एक कानून में अगले दलाई लामा के अवतार की नियुक्ति के सवाल पर चीन सरकार को सीधी चुनौती दी गई है तो अमेरिकी संसद में तिब्बत को एक ‘कब्जाया हुआ देश’ बताने संबंधी विधायी प्रस्ताव आगे बढ़ाया गया। ऐसे ही दो कानून शिनजियांग के समर्थन में बनाए जा चुके हैं।
उजरा जेया को तिब्बत संबंधी मामलों की विशेष प्रतिनिधि नियुक्त करने से पहले पिछली अमेरिकी सरकारें इसी पद पर राबर्ट डेस्ट्रो और कोंडोलीजा राइस जैसे दिग्गजों को नियुक्त कर चुकी हैं। महत्वपूर्ण बात यह है कि अमेरिका में रिपब्लिकन और डेमोक्रेट्स के बीच तमाम मसलों पर मतभेद के बावजूद तिब्बत और शिनजियांग के सवाल पर व्यापक सहमति है। इसलिए यह तय है कि आने वाले दिनों में तिब्बत के सवाल पर अमेरिकी सरकार चीन की गीदड़-भभकियों से डरने के बजाय और अधिक आक्रामक होने वाली है।
अमेरिका की इस नीति में यह परिवर्तन भारत सरकार के लिए भी एक शुभ संकेत है। दुर्भाग्य से अब तक की सभी भारतीय सरकारें तिब्बत के सवाल पर दब्बू बनी रही हैं कि तिब्बत पर चीनी कब्जा गैरकानूनी है और इसी कब्जे के कारण चीन को भारत की हिमालयी सीमा तक आ धमकने का मौका मिला है। भारतीय नीति-नियंताओं को अब समझ आ जाना चाहिए कि तिब्बत को अपनी नई छावनी की तरह इस्तेमाल करके चीन भारत के विरुद्ध सैन्य दादागीरी करने पर तुला है और आए दिन अरुणाचल को अपना ‘दक्षिणी तिब्बत’ बताकर उस पर अपना हक जताने लगा है।
वैसे भी गलवन कांड, भारत को क्षति पहुंचाने वाले आतंकियों का संयुक्त राष्ट्र में बचाव और पूर्वोत्तर में सक्रिय आतंकियों को सहायता पहुंचाने की चीनी चालों के बाद अब भारत को पूरा नैतिक और राजनीतिक अधिकार है कि वह तिब्बत पर चीन की गैरकानूनी मौजूदगी को चुनौती दे और तिब्बत पर अपनी नीति पर नए सिरे से विचार करे। चीन के विरुद्ध बढ़ते हुए अंतरराष्ट्रीय आक्रोश और अमेरिका जैसी महाशक्तियों की बदली हुई रणनीति को देखते हुए अब भारत के लिए तिब्बत के सवाल पर चीन की आंख में आंख डालकर देखने और अपने राष्ट्रीय हितों का दूरगामी हल खोजने का समय आ गया है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और सेंटर फार हिमालयन एशिया स्टडीज एंड एंगेजमेंट के चेयरमैन हैं)