संजय गुप्त। बरसात समाप्‍त होते ही उत्‍तर भारत के साथ मध्‍य भारत भी वायु प्रदूषण की चपेट में आ गया है। इस बार तो दिल्ली के साथ ही मुंबई भी वायु प्रदूषण की गिरफ्त में है। केंद्र और राज्य सरकारों के तमाम दावों के बाद भी हर वर्ष ठंड शुरू होते ही देश के एक बड़े हिस्से में वायु प्रदूषण एक गंभीर संकट का रूप ले लेता है। चूंकि ऐसा वर्षों से होता चला आ रहा है, इसलिए इस नतीजे पर पहुंचने के अलावा और कोई चारा नहीं कि वायु प्रदूषण के कारणों का निवारण करने के मामले में केवल कोरे वादे किए जा रहे हैं।

अब तो ऐसा लगता है कि आने वाले वर्षों में भी उत्तर एवं मध्य भारत के लोगों को खतरनाक वायु प्रदूषण का इसी तरह सामना करना होगा। वायु प्रदूषण महानगरों को इसलिए अधिक चपेट में लेता है, क्योंकि वहां कहीं अधिक सघन आबादी होती है। कई महानगर ऐसे हैं, जहां प्रति वर्ग किमी आबादी का घनत्व मानकों से कहीं अधिक है। लोगों के आर्थिक रूप से सक्षम होने के कारण वाहनों और विशेष रूप से कारों की संख्या तेजी से बढ़ रही है। वाहनों से होने वाला उत्सर्जन वायु प्रदूषण को बढ़ाने का ही काम करता है। चूंकि बड़े शहरों में सड़कों पर जाम और अतिक्रमण के चलते वाहन रेंगते हुए चलते हैं, इसलिए उनसे उत्सर्जन भी अधिक होता है। अनेक शहरों में तो दो-तीन किमी का सफर तय करने में भी 15-20 मिनट लग जाते हैं।

वैसे तो सरकार इलेक्ट्रिक वाहनों को बढ़ावा दे रही है, लेकिन अभी भी पेट्रोल और डीजल से चलने वाले वाहनों की बहुतायात है। वाहन तय गति से चलें, इसके लिए सड़कों को अतिक्रमण से मुक्त करने के साथ ही उनकी चौड़ाई भी बढ़ानी होगी, लेकिन सरकारें और उनकी एजेंसियां यह काम करने में नाकाम हैं। सड़कों की चौड़ाई बढ़ने के स्थान पर फुटपाथ अतिक्रमण की भेंट चढ़ते जा रहे हैं। इसके चलते पैदल यात्रियों को भी सड़कों पर ही चलना पड़ता है। एक अर्से से यह कहा जा रहा है कि उन क्षेत्रों की पहचान की जाएगी, जहां सड़कों पर अतिक्रमण अथवा वाहनों की अवैध पार्किंग के कारण यातायात सुगमता से नहीं चलता, लेकिन इच्छाशक्ति के अभाव में यह काम भी नहीं हो पा रहा है। यदि कभी सड़कों को अतिक्रमण से मुक्त किया भी जाता है तो दो-चार दिन में वह फिर से कायम हो जाता है। यही स्थिति सड़क किनारे वाहनों की अवैध पार्किंग के मामले में भी देखने को मिलती है।

यह ठीक है कि खाना बनाने के लिए गैस का इस्तेमाल बढ़ा है, लेकिन अनेक घरों में अभी भी खाना पकाने के लिए कोयले, उपलों या लकड़ी का इस्तेमाल होता है। इससे भी वायु प्रदूषण बढ़ता है। इसके अलावा सड़कों एवं निर्माण स्थलों से उड़ने वाली धूल भी वायुमंडल को विषाक्त करती है। सरकारें इससे अच्छी तरह परिचित हैं कि सड़कों की धूल वायु प्रदूषण का एक बड़ा कारण है, लेकिन इस कारण का भी निवारण नहीं हो पा रहा है। सड़कों पर पानी का छिड़काव करने और उन्हें वैक्‍यूम क्‍लीनर से साफ करने के तमाम दावों के बाद भी नतीजा ढाक के तीन पात वाला है। आम तौर पर सफाई कर्मी सड़कों की धूल को झाड़ू से हटाते हैं। इस क्रम में वह उड़कर वायुमंडल का हिस्सा ही बनती है। एक समस्या यह भी है कि तमाम सड़कें ऐसी हैं, जिन पर वैक्यूम क्लीनर का इस्तेमाल संभव नहीं।

वायु प्रदूषण का एक अन्य कारण खेतों में फसलों के अवशेष यानी पराली जलाना है। किसान पराली न जलाएं, इसके लिए सरकारें तमाम दावे तो करती हैं, लेकिन वे खोखले ही सिद्ध होते हैं। एक समय मुख्यतः पंजाब, हरियाणा, दिल्ली, राजस्थान और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में ही पराली जलाई जाती थी, लेकिन अब वह अन्य राज्यों में जलाई जाती है। जहां राज्य सरकारें पराली को जलाए जाने से रोकने के ठोस उपाय नहीं कर पा रहीं, वहीं किसान भी यह जानते हुए भी उसे जलाते हैं कि ऐसा करना स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है। पराली को जलाने से रोकने के जो कदम एक दशक पहले उठाए जाने चाहिए थे, वे अभी तक प्रभावी ढंग से नहीं उठाए जा सके हैं।

यह ठीक है कि जब दिल्ली और उसके आसपास वायु प्रदूषण बढ़ता है तो सुप्रीम कोर्ट से लेकर राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण यानी एनजीटी के साथ अन्य एजेंसियां भी सक्रिय हो जाती है, लेकिन उनकी सक्रियता दिल्ली के प्रदूषण के मामले में ही अधिक देखने को मिलती है, जबकि सर्दियों में वायु प्रदूषण देश के एक बड़े हिस्से को अपनी चपेट में ले लेता है। दमघोंटू वायु प्रदूषण से छुटकारा इसलिए नहीं मिल पा रहा, क्योंकि सर्दियां शुरू होने पर ही उससे निपटने के कदम उठाने शुरू किए जाते हैं। ये कदम भी आधे-अधूरे ही होते हैं। कम से कम अब तो यह समझा ही जाना चाहिए कि वायु प्रदूषण से बचने के लिए सतत उपाय करने की जरूरत है। जब वर्ष भर प्रदूषण के कारणों का निवारण करने के प्रयत्न होंगे, तभी आम जनता भी अपनी जिम्मेदारी को लेकर चेतेगी। चूंकि सरकारें सात-आठ माह प्रदूषण की रोकथाम के लिए कुछ नहीं करतीं, इसलिए औसत नागरिक यही मानकर चलता है कि इस समस्या से निपटना सरकार और उसकी एजेंसियों की ही जिम्मेदारी है। वास्तव में इसी कारण प्रदूषण रोधी उपायों को अमल में लाना आम जनता की आदत का हिस्सा नहीं बन पा रहा है।

वायु प्रदूषण के पीछे अनियोजित विकास और जनता की नासमझी भी एक बड़ा कारण है। लोग यह जानते हैं कि पत्तियों और कूड़ा-करकट जलाने से प्रदूषण बढ़ता है, फिर भी अनेक लोग ऐसा करते हैं। एक ऐसे समय जब भारत की आर्थिक स्थिति लगातार बेहतर हो रही है, तब वायु प्रदूषण दूर करने के उपायों को अमल में लाने के लिए धन की जो आवश्यकता है, उसकी पूर्ति आसानी से की जा सकती है, लेकिन बात तब बनेगी, जब इस गंभीर समस्या से निपटने की इच्छाशक्ति दिखाई जाएगी। निःसंदेह सरकार जीवाश्म ईंधन की खपत कम करने के लिए प्रतिबद्ध है, पर यह प्रतिबद्धता अभी वांछित नतीजे नहीं दे पा रही है। अच्छा यह होगा कि सरकारें और उनकी विभिन्न एजेंसियां वायु प्रदूषण से होने वाले नुकसान को समझें और उसे दूर करने के लिए मिलकर ठोस उपाय करें। इन उपायों को जनता का सहयोग मिलना भी आवश्यक है।

[लेखक दैनिक जागरण के प्रधान संपादक हैं]