शिवकांत शर्मा। इजरायल और हमास के बीच चल रहे युद्ध को रोकने के लिए एक और प्रस्ताव पर चर्चा हुई है। हालांकि इस प्रस्ताव की शर्तों को देखते हुए तत्काल कोई सहमति बनने के आसार कम ही दिखते हैं। इस लड़ाई को छिड़े हुए करीब चार महीने पूरे होने को हैं। इसमें 27,000 से ज्यादा लोग मारे जा चुके हैं। अमेरिका की भारी सैन्य उपस्थिति और कूटनयिक प्रयासों के बावजूद यह लड़ाई अब मिसाइल और ड्रोन हमलों के रूप में लेबनान, यमन, सीरिया, इराक और जार्डन समेत आसपास के दस देशों में फैल चुकी है। यमन के ईरान समर्थक हाउती आतंकियों के हमलों से लाल सागर से होने वाला समुद्री व्यापार लगभग ठप हो गया है। जहाजों को अफ्रीका का चक्कर काटकर यूरोप-अमेरिका जाना पड़ रहा है, जिससे कीमतें बढ़ रही हैं।

अमेरिका में यह चुनावी वर्ष है और यूरोप में चल रही यूक्रेन और रूस की लड़ाई में यूक्रेन रूस को खदेड़ नहीं पा रहा है। ऐसे समय में अमेरिका ऐसी किसी और लड़ाई में नहीं उलझना चाहता, जिससे रूस को यूक्रेन की और जमीन हथियाने और यूरोप में दबदबा कायम करने का अवसर मिल जाए। यही कारण है कि अमेरिका ने सीरिया में जार्डन की सीमा पर स्थित अपने सैन्य अड्डे पर 28 जनवरी के ड्रोन हमले का जवाब तत्काल देने के बजाय सोच-विचार कर देने का निश्चय किया। ड्रोन हमले में अमेरिका के तीन सैनिक मारे गए थे और 30 से अधिक घायल हुए थे।

यद्यपि ईरान ने हमले में अपनी प्रत्यक्ष या परोक्ष भूमिका से इन्कार किया, फिर भी अमेरिका का मानना है कि यह हमला सीरिया में सक्रिय जैनाबियून ब्रिगेड और फतेमियून डिविजन के या इराक में सक्रिय इस्लामी प्रतिरोध मोर्चे के किसी गुट ने किया है, जिन्हें प्रशिक्षण और हथियार ईरान का इस्लामी क्रांतिकारी गार्ड देता है। अमेरिकी रक्षामंत्री लायड आस्टिन ने स्वीकारा कि हमास-इजरायल युद्ध के बाद से इराक और सीरिया में स्थित अमेरिकी ठिकानों पर 160 हमले हुए हैं। अपनी नाक बचाने के लिए अमेरिका ने ईरान समर्थित इस्लामी प्रतिरोध गुटों के ठिकानों पर जवाबी हवाई हमले किए, परंतु वह लड़ाई को फैलाना नहीं चाहता। इसीलिए वह अपने अरब मित्र देशों के साथ मिलकर लंबे युद्धविराम के एक सौदे पर काम कर रहा है।

अमेरिका के साथ-साथ मिस्र की दिलचस्पी युद्धविराम में सबसे ज्यादा है, क्योंकि स्वेज नहर उसकी आमदनी का प्रमुख स्रोत है और लाल सागर का व्यापार ठप होने से स्वेज नहर से होने वाली आमदनी कम हो गई है। इसीलिए हमास नेता इस्माइल हानिया ने पिछले दिनों काहिरा जाकर नए युद्धविराम प्रस्ताव पर दो दिनों तक विचार किया। इस वक्त इस सौदे में दो बड़ी अड़चने हैं। हानिया की मंशा है कि बंधकों की रिहाई और युद्धविराम के बाद इजरायल गाजा से हट जाए और अंतरराष्ट्रीय सेना की देखरेख में फलस्तीन के राजनीतिक समाधान की बातचीत शुरू हो। नेतन्याहू इस पर अड़े हैं कि वह गाजा से हमास की हस्ती मिटाए बिना वहां से नहीं हटेंगे।

संभव है कि दबाव में आकर नेतन्याहू और हानिया थोड़े दिनों के लिए कोई सौदा कर लें, लेकिन वह टिकाऊ नहीं होगा। नेतन्याहू का गठबंधन ऐसे कट्टरपंथी जायनिस्ट दलों के समर्थन पर टिका है, जो जार्डन नदी से समुद्र तक फैली जमीन पर यहूदियों का दैविक अधिकार मानते हैं। जबकि हमास जार्डन नदी से समुद्र तक फैली जमीन को फलस्तीनी और इजरायल को उस पर कब्जा करके बैठा देश मानता है। स्थायी युद्धविराम होते ही इजरायल में चुनाव की मांग उठेगी, जिसमें नेतन्याहू का हारना लगभग तय है, क्योंकि जनमत उनके खिलाफ है। यदि लड़ाई जारी रहती है और नेतन्याहू गाजा से हमास की जड़ें उखाड़ने में कामयाब हो जाते हैं तो हमास का राजनीतिक अस्तित्व उसी तरह समाप्त हो जाएगा, जैसे सीरिया से इस्लामिक स्टेट का हुआ था।

इजरायल हमास युद्ध एक नाजुक दोराहे पर है। एक रास्ता बंधकों के बदले लंबे युद्धविराम की ओर जाता है। इसका प्रयोग अमेरिका और अरब देश मिलकर सुलह की ऐसी रूपरेखा तैयार करने में कर सकते हैं जिसके सहारे अरब या अंतरराष्ट्रीय देखरेख में गाजा और पश्चिमी किनारे पर नया फलस्तीनी शासन कायम हो सके। इजरायल को सुरक्षा से जीने का भरोसा मिल सके और फलस्तीनियों को स्वतंत्रता से जीने और अपनी सरकार बनाने का हक मिल सके। ऐसा होने पर इजरायल और सऊदी अरब के संबंधों के बढ़ने की प्रक्रिया बहाल हो सकेगी और अमेरिका की प्रस्तावित भारत-पश्चिम एशिया कारिडोर योजना भी आगे बढ़ सकेगी। इसमें दो बड़ी अड़चनें हैं।

गाजा में हुए भारी संहार और विनाश के बाद हमास जैसे संगठनों को दोबारा पनपने से कौन रोकेगा? दूसरी बड़ी अड़चन है वे यहूदी बस्तियां, जिन्हें इजरायल ने पिछले 57 वर्षों के कब्जे के दौरान फलस्तीनियों के पश्चिमी किनारे पर बसाया है। क्या इजरायली सरकार उन्हें वहां से हटा पाएगी? दूसरा रास्ता युद्धविराम की जगह सीमित और लक्षित युद्ध जारी रखने की ओर जाता है, जिस पर नेतन्याहू अड़े रहना चाहते हैं, क्योंकि उनका राजनीतिक अस्तित्व उसी पर टिका है। वह हमलों को तब तक नहीं रोकना चाहते, जब तक हमास का पूरी तरह सफाया नहीं हो जाता। इस रास्ते का सबसे बड़ा खतरा यही है कि इतने व्यापक संहार और विनाश के बाद फलस्तीनियों के साथ-साथ अरब देशों में भी इजरायल और पश्चिम के प्रति रोष की भावना फैल सकती है, जो हमास जैसे संगठनों के लिए जमीन तैयार करेगी।

पश्चिमी किनारे और लेबनान में रोष पहले से ही उबाल पर है। हिजबुल्ला के किसी राकेट से इजरायली बस्ती को बड़ी क्षति होते ही इजरायल को अपनी उत्तरी सीमा पर भी लड़ाई में कूदना पड़ सकता है। यमन, सीरिया और इराक में ईरान समर्थक प्रतिरोधी गुट अमेरिकी अड्डों को निशाना बना रहे हैं। किसी जहाज या अड्डे को कोई बड़ी क्षति हुई तो अमेरिका को भी युद्ध में उलझना पड़ सकता है। लाल सागर का रास्ता बंद होने से विश्व व्यापार को वैसे ही क्षति हो रही है। समूचे पश्चिम एशिया में लड़ाई फैलने से ईरान के युद्ध में उतरने और तेल की कीमतों में उबाल का भी खतरा है। ऐसी भयावह आशंकाओं को देखते हुए भलाई इसी में लगती है कि इजरायली जनता ही अपनी सरकार को बदले या फिर उस पर युद्धविराम का दबाव डाले। अमेरिका के प्रसिद्ध राजनयिक हेनरी किसिंजर ने ठीक ही कहा था, ‘इजरायल की कोई विदेश नीति नहीं है, सिर्फ घरेलू राजनीति है!’

(लेखक बीबीसी हिंदी के पूर्व संपादक हैं)