सृजन पाल सिंह। किसी भी नई तकनीक के अच्छे और बुरे दोनों पहलू होते हैं। आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस यानी एआइ भी इससे अछूती नहीं। फिलहाल दुनिया इस तकनीक के तमाम जोखिमों से जूझ रही है। ऐसा ही एक जोखिम डीपफेक से जुड़ा है, जिसका जिक्र बीते दिनों प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भी किया। चूंकि इस साल कई देशों में चुनाव होने हैं तो डीपफेक की समस्या से निपटने की कोई कारगर युक्ति निकालना और भी आवश्यक हो गया है।

ऐसा इसलिए, क्योंकि यह जनता की राय को बदलने और लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं को आघात पहुंचाने में सक्षम है। डीपफेक में किसी व्यक्ति की आवाज, चेहरे, मुद्रा या कार्यों की डिजिटल नकल की जाती है। इसमें अक्सर परिष्कृत कंप्यूटर प्रोग्राम और एल्गोरिदम शामिल होते हैं। अधिक चिंतित करने वाली बात यह है कि सैकड़ों अप्रतिबंधित आनलाइन साफ्टवेयरों पर यह काम बहुत सहजता से किया जा सकता है। जहां दुनिया पहले से इंटरनेट मीडिया और वाट्सएप जैसे मैसेजिंग एप के जरिये भ्रामक सूचनाओं पर अंकुश लगाने के मामले में जूझ रही है, वहां डीपफेक के बढ़ते चलन ने इस चुनौती को और विकराल बना दिया है।

विश्व इससे पहले भी गहरी जालसाजी के दुष्प्रभाव देख चुका है। 2020 के अमेरिकी चुनावों में प्रत्याशियों का भ्रामक प्रतिनिधित्व, मतदाताओं के बीच भ्रम और कलह पैदा करने के लिए डीपफेक और सिंथेटिक मीडिया का इस्तेमाल किया गया था। भारत के संदर्भ में तो इंटरनेट मीडिया और मैसेजिंग प्लेटफार्म का प्रसार गहरी जालसाजी के लिए उपजाऊ जमीन का काम कर सकता है। इससे सांप्रदायिक तनाव बढ़ने के साथ ही मतदाताओं का ध्रुवीकरण हो सकता है।

भाषा, क्षेत्र, पंथ सहित ग्रामीण-शहरी जैसे तमाम विभाजक बिंदुओं के लिहाज से भी भारत डीपफेक के मामले में और संवेदनशील है। चूंकि इस साल देश में आम चुनाव होने हैं तो इस समस्या पर समय रहते विचार करना और भी जरूरी हो गया है। इसमें बड़ा सवाल यही है कि डीपफेक आधारित चुनावी हेरफेर से निपटने के लिए क्या तरीके अपनाए जा सकते हैं?

समाधान के दृष्टिकोण से सर्वप्रथम तो एक प्रभावी सत्यापन तंत्र की स्थापना करनी होगी। इंडोनेशिया ने 2019 के चुनावों के दौरान फर्जी खबरों से निपटने के लिए एक वार-रूम स्थापित किया था। वैसे ही भारत डीपफेक की निगरानी के लिए एक केंद्रीकृत प्रणाली लागू कर सकता है। इसके लिए सरकारी एजेंसियों, तकनीकी कंपनियों और मीडिया संगठनों के बीच सहयोग की आवश्यकता है। इस प्रक्रिया को चुनाव आयोग के तहत एक विशेष परियोजना के रूप में तुरंत लागू किया जाना चाहिए। इस दिशा में कानूनी ढांचे को भी तकनीकी प्रगति के साथ तालमेल बिठाना होगा।

चुनावों के दौरान फर्जी खबरों से निपटने के लिए फ्रांस का दृष्टिकोण भी उपयोगी है। इसमें इंटरनेट मीडिया पारदर्शिता को लेकर सख्त नियम लागू करना और न्यायाधीशों को फर्जी सामग्री हटाने की शक्ति प्रदान करना जैसे अधिकार शामिल हैं। भारत में डीपफेक के निर्माण और प्रसार के खिलाफ विशिष्ट प्रविधानों को शामिल करने के लिए सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम, 2000 में संशोधन करना भी अपरिहार्य हो गया है।

एआइ की विशेषताओं को देखें तो यह स्वयं गहरी जालसाजी के खिलाफ एक शक्तिशाली उपकरण हो सकता है। एआइ एल्गोरिदम को वीडियो और तस्वीरों में उन गड़बड़ियों का पता लगाने के लिए प्रशिक्षित किया जा सकता है, जो मानवीय दृष्टि में पकड़ में नहीं आ पातीं। हमारे पास ऐसे उपकरण पहले से ही उपलब्ध हैं, जो वीडियो और तस्वीरों का विश्लेषण कर सकते हैं, ताकि कृत्रिम रूप से हेरफेर किए जाने की आशंका को पूरी तरह समाप्त किया जा सके। ऐसे उपकरणों को भारतीय संदर्भ में और कई भाषाओं में व्यापक रूप से विकसित करने की आवश्यकता है। इसमें जागरूकता अभियान भी महत्वपूर्ण होगा। यूरोप के एक छोटे से देश एस्टोनिया ने अपने नागरिकों को व्यापक साइबर सुरक्षा कार्यक्रमों के माध्यम से डिजिटल खतरों के बारे में शिक्षित किया है।

उसी तरह भारत को स्कूल और कालेज स्तर पर जागरूकता अभियान शुरू करने की जरूरत है। विशेषकर उन मतदाताओं के लिए जो पहली बार मतदान करने जा रहे हैं। ऐसे जागरूकता अभियान जनता को डीपफेक के अस्तित्व और प्रकृति के बारे में शिक्षित करने के साथ ही उन्हें ऐसी सामग्री की पहचान करने के कौशल से लैस करने पर केंद्रित होने चाहिए।

हमें एक सरकार समर्थित बहुभाषी मंच भी विकसित करने की आवश्यकता है, जहां कोई भी नागरिक किसी वायरल फेक वीडियो को जमा करा सकता हो, ताकि उसकी जांच हो पाए। इससे ऐसे डीपफेक वीडियो के असली स्रोत का पता लगाने में भी मदद मिलेगी। अपने नागरिकों को गलत सूचना के खिलाफ जागरूक करने की दृष्टि से फिनलैंड की तरह शैक्षिक पाठ्यक्रम में डिजिटल साक्षरता को जोड़ने से भी महत्वपूर्ण सकारात्मक परिणाम मिल सकते हैं।

इसमें मीडिया संस्थानों की भी अहम भूमिका होगी। आदर्श पत्रकारिता के मानकों का पालन करके भारत के मीडिया संस्थान डीपफेक के प्रसार का मुकाबला कर सकते हैं। यूरोपीय संघ में यूरोपीय डिजिटल मीडिया आब्जर्वेटरी यानी ईडीएमओ की सहयोगात्मक पत्रकारिता जैसी पहल भारत के लिए भी सार्थक होगी। ईडीएमए जैसे नेटवर्क के जरिये दुष्प्रचार की काट आसान होगी।

इसमें कोई संदेह नहीं कि यदि डीपफेक की चुनौती का तोड़ नहीं निकाला गया तो यह भारतीय चुनावी प्रक्रिया की गरिमा पर प्रहार कर सकता है। ऐसे में इससे निपटने के लिए एक बहुआयामी दृष्टिकोण की आवश्यकता महसूस की जा रही है, जिसमें निजी कंपनियों और बड़े पैमाने पर जनता के साथ निकट सहयोग में कई एजेंसियों को शामिल किया जाना चाहिए। डीपफेक के खतरे से निपटने के लिए हमें एक बहुत मजबूत, लचीले और चुस्त विभाग की आवश्यकता होगी।

हमें स्मरण रखना होगा कि डीपफेक भी समय के साथ और खतरनाक होता जाएगा। डीपफेक के खिलाड़ी भी अपने बचने के लिए नए-नए तरीके तलाशते रहेंगे। डीपफेक के विरुद्ध यह लड़ाई हमारे लोकतंत्र की बुनियाद के लिए बहुत मायने रखती है। यह लड़ाई लंबी चलेगी और हमें इसके लिए तैयार रहना चाहिए।

(पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम के सहायक रहे लेखक कलाम सेंटर के सीईओ हैं)