जवाबदेही का तंत्र विकसित करे न्यायपालिका, संविधान के तीनों स्तंभों के बीच प्रीतिपूर्ण मर्यादा की आवश्यकता
दरअसल संविधान के मूल ढांचे पर बहस जारी है। संविधान सभा में मूल ढांचे पर कोई चर्चा नहीं हुई। एनजेएसी पर राष्ट्रपति ने हस्ताक्षर कर दिए थे। फिर सर्वोच्च न्यायालय ने संविधान के मूल ढांचे के आधार पर एनजेएसी को निरस्त कर दिया। संविधान में संशोधन की प्रक्रिया है।
हृदयनारायण दीक्षित : भारतीय राजव्यवस्था में शक्ति के मुख्य स्रोत जन-गण-मन हैं। संविधान की उद्देशिका में इन्हें ‘हम भारत के लोग’ कहा गया है। संविधान सभा में पारित संकल्प के अनुसार प्रभुत्व संपन्न भारत की सभी शक्तियां और प्राधिकार, उसके संघटक भाग और शासन के सभी अंग ‘लोक’ से उत्पन्न हैं। संविधान निर्माताओं ने विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका को शक्ति संपन्न बनाकर उनके उत्तरदायित्व निर्धारित किए हैं। सबकी मर्यादा हैं। अमेरिका में न्यायपालिका को सर्वोच्च बताया जाता है। ब्रिटेन में संसदीय सर्वोच्चता का सिद्धांत है। भारत में संविधान की सर्वोच्चता बताई जाती है।
संविधान राजधर्म है। धर्म की शक्ति पालनकर्ता में निहित होती है। यहां जनहित और जनइच्छा की सर्वोच्चता है। विधायिका द्वारा बनाए गए राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग यानी एनजेएसी कानून को न्यायालय द्वारा निरस्त करने से दो स्तंभों में टकराव बढ़ा है। राजस्थान में पीठासीन अधिकारियों के सम्मेलन में उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने एनजेएसी को रद करने पर टिप्पणी की है। उन्होंने कहा कि वह केशवानंद भारती मामले में दिए गए फैसले से सहमत नहीं हैं। इस फैसले में कहा गया था कि संसद संविधान में संशोधन कर सकती है, लेकिन उसके मूल ढांचे में नहीं। धनखड़ ने कहा कि न्यायपालिका को संसद की संप्रुभता में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए।
दरअसल, संविधान के मूल ढांचे पर बहस जारी है। संविधान सभा में मूल ढांचे पर कोई चर्चा नहीं हुई। एनजेएसी पर राष्ट्रपति ने हस्ताक्षर कर दिए थे। फिर सर्वोच्च न्यायालय ने संविधान के मूल ढांचे के आधार पर एनजेएसी को निरस्त कर दिया। संविधान में संशोधन की प्रक्रिया है। अनुच्छेद 368 में संशोधन शक्ति की सीमा नहीं है। इसी अनुच्छेद में निरसन शब्द आया है। डीडी बसु ने लिखा है, ‘अनुच्छेद 368 के अधीन संशोधन में संविधान के किसी भी उपबंध का निरसन सम्मिलित है। तथाकथित आधारिक और सारवान उपबंध भी उसमें आते हैं।’ संविधान के कुछ आधारिक लक्षण हैं, किंतु न्यायालय द्वारा घोषित इन आधारिक लक्षणों का संशोधन नहीं किया जा सकता। यदि संविधान संशोधन संविधान की आधारिक संरचना में परिवर्तन करता है तो न्यायालय उसे शक्तिवाह्यता आधार पर शून्य करार देने का पात्र होगा।
उच्चतम न्यायालय ने संविधान के आधारिक लक्षणों की सूची में संख्या निश्चित नहीं की। यानी यह सूची अभी अपूर्ण है। संप्रति संविधान की सर्वोच्चता, विधि का शासन, न्यायिक पुनरावलोकन, परिसंघवाद, पंथनिरपेक्षता, राष्ट्रीय एकता एवं अखंडता, संसदीय प्रणाली, स्वतंत्र एवं निष्पक्ष निर्वाचन, न्यायपालिका की स्वतंत्रता, उच्चतम न्यायालय की शक्तियां, सामाजिक न्याय, मूल अधिकार और नीति-निदेशक तत्वों के मध्य संतुलन आदि 25 बिंदु आधारिक लक्षणों की सूची में हैं। न्यायपालिका संविधान के निर्वचन और क्रियान्वयन की अभिभावक है। वह न्यायिक पुनरावलोकन के माध्यम से संविधान और विधि की व्याख्याता भी है। व्याख्याकार और निगरानीकर्ता के रूप में न्यायपालिका की महत्वपूर्ण भूमिका है, लेकिन व्याख्याकार सर्वोच्च नहीं हो सकता। स्वतंत्र न्यायपालिका संवैधानिक सीमा के भीतर ही अपना काम करती है, लेकिन यह अवश्य स्मरण रहे कि स्वतंत्रता विधायी मूल्य है और स्वच्छंदता नकारात्मक।
संसद सवा अरब से अधिक लोगों की प्रतिनिधि संस्था है। यह विधि निर्मात्री है। इसके पास संविधान संशोधन के भी अधिकार हैं। संसद और विधानमंडल में बहुमत प्राप्त दल समूह कार्यपालिका बनाते हैं। कार्यपालिका और विधायिका के संबंध स्थायी हैं। कार्यपालिका अपने समूचे कामकाज के बारे में विधायिका के प्रति जवाबदेह है। कार्यपालिका की जवाबदेही भारतीय शासन व्यवस्था को प्रामाणिक बनाती है। विधायिका अपने कामकाज से जनता की सर्वोपरि इच्छा को व्यक्त करती है। कार्यपालिका अपने कामकाज के बारे में न्यायालयों के प्रति भी जवाबदेह है। जवाबदेही प्रत्येक संस्था के कामकाज की गुणवत्ता बढ़ाती है। न्यायपालिका के प्रति लोगों में श्रद्धा है, लेकिन उसकी जवाबदेही का कोई मंच नहीं है। न्यायपालिका को अपने भीतर से ही किसी जवाबदेह संस्था का विकास करना चाहिए। अधिकार प्राप्त व्यक्ति की जिम्मेदारी भी होती है। न्यायपालिका के फैसलों पर टिप्पणियां भी होती हैं। ऐसी टिप्पणी को लेकर न्यायालय की अवमानना की बातें भी चलती हैं। संविधान के आधारिक लक्षणों को लेकर भी टिप्पणियां हुई थीं। संविधान संशोधन और विधि निर्माण विधायिका के विषय हैं, तो न्यायालय के निर्णय विधि बनते हैं। इसलिए न्यायिक निर्णयों में अतिरिक्त सतर्कता की आवश्यकता होती है। यह न भूलें कि संविधान के आधारिक लक्षणों का उदय न्यायिक प्रक्रिया से हुआ है। विधायिका से नहीं।
संविधान जड़ नहीं हो सकता। संविधान निर्माताओं ने तत्कालीन परिस्थितियों को देखते हुए संविधान बनाया था। समय और परिस्थिति के अनुसार सब कुछ बदलता है। संविधान में भी समयानुकूल परिवर्तन-संशोधन होते रहते हैं। अब तक उसमें सौ से अधिक संशोधन हो चुके हैं। पं. जवाहरलाल नेहरू ने उचित ही कहा था कि ‘संविधान इतना कठोर नहीं होना चाहिए कि वह राष्ट्रीय विकास और सामर्थ्य की बदलती हुई परिस्थितियों में अनुकूलित न किया जा सके।’
संविधान निर्माताओं ने परिसंघ प्रणाली को प्रभावित न करने वाले उपबंधों को संशोधित करने के लिए सरल उपबंध किया था। ऐसे उपबंध साधारण बहुमत से पारित होते हैं। संशोधन के लिए सरल तरीका अपनाने का राजनीतिक महत्व था। डा. आंबेडकर ने संविधान सभा में संशोधन के प्रस्ताव को प्रस्तुत करते हुए कहा था, ‘जो संविधान से असंतुष्ट हैं, उन्हें बस दो-तिहाई बहुमत प्राप्त करना होगा। यदि वह संसद में दो-तिहाई बहुमत भी नहीं पा सकते तो यह समझा जाना चाहिए कि संविधान के प्रति असंतोष में जनता उनके साथ नहीं है।’ स्पष्ट है कि हमारी संवैधानिक व्यवस्था ने विधायिका, न्यायपालिका और कार्यपालिका के लिए कुछ मर्यादाएं अधिरोपित की हैं। वर्तमान चुनौतियों को देखते हुए तीनों के मध्य आवश्यक प्रीतिपूर्ण मर्यादा की आवश्यकता है।
(लेखक उत्तर प्रदेश विधानसभा के पूर्व अध्यक्ष हैं)