जागरण संपादकीय: अस्तित्व के संकट से जूझते वाम दल, अब उनके पास खोने के लिए कुछ नहीं
आज कम्युनिस्ट पार्टियों की स्थिति उस पुराने कारखाने जैसी है जिसका बड़ा कार्यालय और गोदाम तो है किंतु उसमें उत्पादन बंद है। ब्रांड तो है मगर माल नहीं। यह स्थिति अधिक समय तक रहनी कठिन है। वे या तो समाज में कोई खाली जगह ले सकते हैं अथवा खत्म हो जाएंगे। वह जगह पाने के लिए उन्हें झूठी मान्यताएं छोड़नी होंगी।
शंकर शरण। सीताराम येचुरी के निधन के बाद प्रकाश करात ने माकपा की अंतरिम कमान संभाल ली। यह खबर बहुत चर्चा का विषय नहीं बनी। करात इस भूमिका के लिए नए भी नहीं हैं। येचुरी से पहले 2005 से 2015 तक वही माकपा महासचिव रहे। उनके नेतृत्व में ही माकपा का अभूतपूर्व ह्रास हुआ। इसलिए पुनः उन्हीं को कमान मिलना यही संकेत है कि पार्टी में नए नेताओं का अभाव हो चुका है।
वामपंथी हलकों में यह जानी-मानी बात है कि करात के सख्त रुख के कारण ही माकपा ने कांग्रेस से नाता तोड़ा और उसके बाद से पार्टी निरंतर हाशिये पर जा रही है। अभी लोकसभा में माकपा की चार और भाकपा की दो सीटें हैं। बंगाल-त्रिपुरा जैसे पार्टी के दुर्ग ध्वस्त हो गए। केरल ही अंतिम ठिकाना बचा हुआ है।
कम्युनिस्टों के ऐसे पराभव का एक कारण अपनी महत्ता का अतिरंजित मूल्यांकन करना भी था। एक समय कम्युनिस्ट पार्टियां देश में विशिष्ट स्थान रखती थीं। पचास साल पहले के अखबार उलटकर देखें जब जेपी आंदोलन चल रहा था, तब भाकपा कांग्रेस सरकार के साथ थी। जेपी के साप्ताहिक ‘एवरीमैंस’ के हर अंक में कांग्रेस के साथ भाकपा पर भी चोट होती थी।
दूसरी ओर, माकपा को साधे रखने के लिए जेपी खुद को ‘माओ का शिष्य’ बताते हुए ‘एक क्रांतिकारी ही दूसरे को पहचान सकता है’ जैसी बातें करते थे। इसका अर्थ था कि देश के दोनों बड़े राजनीतिक धड़ों यानी पक्ष और विपक्ष पर कम्युनिस्ट पार्टियों का प्रभाव था। इसके पीछे तब विश्व राजनीति में सोवियत कम्युनिज्म की सशक्त उपस्थिति भी थी।
यह परिस्थितियों का परिणाम भी था, क्योंकि तब विश्व में सोवियत संघ तथा भारत में कांग्रेस-सत्ता संरक्षण में यहां वामपंथी शक्तिशाली थे। केवल अपने बूते वह कभी भी राष्ट्रीय राजनीति में नहीं बढ़ सके। भाकपा ने कांग्रेस के साथ और माकपा ने गैर-कांग्रेसी दलों के साथ तालमेल रखकर ही अपनी ताकत बढ़ाई।
मार्क्सवाद-लेनिनवाद के विचार आम जनगण को कभी न छू सके। इस विचार का प्रभाव मुख्यतः बुद्धिजीवियों के बीच रहा और अवशेष रूप में आज भी है। जबकि कम्युनिस्टों की संसदीय और सत्ता-स्थिति अपने संगठन के साथ-साथ बड़े राष्ट्रीय दलों के साथ मोर्चेबंदी पर ही निर्भर रही। कट्टर कम्युनिस्ट इस सच्चाई से मुंह फेरते हैं। अपने मतवाद पर अंधविश्वास से वे दुनिया में कम्युनिज्म का आना अवश्यंभावी मानते थे, बिल्कुल वैसे जैसे इस्लामी कट्टरपंथी पूरी दुनिया का इस्लामी बनना अल्लाह की लकीर मानते हैं।
इसीलिए, कट्टरपंथी कम्युनिस्टों ने कांग्रेस आदि दलों को पतनशील मान रखा था, जिन्हें आज न कल कम्युनिस्टों के अनुसार चलना होगा। पुराने कम्युनिस्ट नेता श्रीपाद अमृत डांगे को बहुत पहले ही यह अनुभूति हो गई थी कि किसी बड़े उदारवादी दल की छत्रछाया के बिना कम्युनिस्ट खस्ताहाल रहेंगे। जनसंघ को हराने के लिए भी वह कांग्रेस से सहयोग जरूरी मानते थे।
दोनों का इकट्ठा विरोध करके कम्युनिस्ट प्रभावी नहीं रह पाएंगे। इसीलिए डांगे ने कांग्रेस के साथ मोर्चा बनाए रखना जरूरी समझा था। हालांकि, 1977 में कांग्रेस की हार के बाद भाकपा नेताओं ने न केवल कांग्रेस से संबंध तोड़ा, बल्कि डांगे को पार्टी से भी निकाल दिया। यह कैसी विडंबना है कि आज दोनों कम्युनिस्ट पार्टियां उसी रीति-नीति पर आ लौटी हैं जिसकी डांगे ने वकालत की थी। येचुरी ने उसी नीति को अपनाकर माकपा को बचाने का प्रयास किया।
कुछ खांटी कम्युनिस्ट अभी भी ‘कारपोरेट के विरुद्ध जन-आंदोलन’ चलाने की बात करते हैं। वे अपने इतिहास की समीक्षा के बदले अमेरिका और कारपोरेट जगत की स्थायी निंदा ही पवित्र ‘आइडियोलाजी’ समझते हैं। इसमें सोवियत रूस और लाल चीन के दशकों के प्रतिकूल अनुभव भी नजरंदाज करते हैं। याद रहे कि जीवन हानि-लाभ के ठोस गणित से चलता है, किसी आइडियोलाजी से नहीं।
इसीलिए बंगाल और पूरे देश में असंख्य कम्युनिस्ट कार्यकर्ताओं ने भी दूसरी पार्टियों का दामन पकड़ लिया, जिनमें कई दिग्गज भी रहे। असल में यही हिसाब तब भी था, जब कम्युनिस्ट पार्टियां अन्य दलों के साथ सहयोग से अपनी ठसक रखती थीं। उसे केवल अपने सिद्धांत, संघर्ष और संगठन का बल समझना एक भ्रम था। नि:संदेह एक पुरानी पार्टी और विशिष्ट विचारों के कारण उनकी एक पहचान थी। वह पहचान आज भी है, चाहे फीकी ही सही। इस बीच बड़ा सवाल यही है कि क्या वे अब अपने लिए समाज में कोई स्थान ढूंढ़ सकते हैं?
अंध-कॉरपोरेट विरोध, अंध-अमेरिका विरोध में उन्होंने यह अनदेखा किया कि यहां बड़े उद्योगों और अमेरिकी नीतियों-कंपनियों ने ही सबसे बड़ी संख्या में भारतीय युवाओं को आधुनिक प्रशिक्षण एवं रोजगार दिया। सभी युवा उसके लिए उत्सुक रहते हैं। जबकि अपनी जड़ मान्यताओं के भरोसे कम्युनिस्टों ने उग्र नारेबाजी, बंद, हड़ताल और हिंसा आदि के ‘वर्ग-युद्ध’ चलाकर बंगाल जैसे उन्नत प्रदेश को खंडहर बना दिया।
नई अमेरिकी तकनीकी, आविष्कारों और कंपनियों ने ही दुनिया भर में साधारण मजदूरों तक वे सुविधाएं घर-घर पहुंचा दीं, जो चार दशक पहले मध्यवर्गीय लोगों के लिए भी सपने सरीखी थीं। लोगों ने खुद ही देख लिया कि कौन से विचार ने गरीब लोगों का अधिक भला किया और जीवन को सुगम बनाया, लेकिन कम्युनिस्टों ने कभी सही समीक्षा नहीं की। उलटे वह हर तकनीक और नवाचार का विरोध करते रहे। यह झूठी समझ थी।
जबकि चार दशक पहले चीनी नेता देंग ने उन झूठी मान्यताओं को तिलांजलि देकर अमेरिकी सहयोग से ही चीन को फिर पटरी पर खड़ा किया, जो माओ के कट्टर कम्युनिज्म में आर्थिक रूप से तबाह हो चुका था। इस वास्तविकता से सीखकर भारतीय कम्युनिस्ट दल भी कुछ सार्थक कर सकते हैं। आज हरेक दल तुरंत लाभ मिलने वाले मुद्दों पर लगा है। नैतिक प्रश्नों को उठाने की जगह खाली है। चाहे तो वामपंथी अपनी मतवादी निष्ठा छोड़ सत्यनिष्ठा का प्रयोग कर सकते हैं। यही नैतिक राजनीति होगी। अब उनके पास खोने के लिए कुछ नहीं है।
(लेखक राजनीतिशास्त्र के प्राध्यापक एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं)