सिलक्यारा सुरंग हादसे के सबक, पर्वतीय क्षेत्रों में निर्माण के वक्त अधिक सावधानी की जरूरत
भारत समेत दुनिया भर में विभिन्न निर्माण परियोजनाओं में सिलक्यारा सुरंग जैसी दुर्घटनाएं होती ही रहती हैं। कई बार ऐसी दुर्घटनाओं में श्रमिकों को अपनी जान से हाथ भी धोना पड़ता है। अपने देश में कभी फ्लाईओवर के निर्माण के दौरान हादसा हो जाता है तो कभी मेट्रो निर्माण के समय। पर्वतीय क्षेत्रों में किसी भी परियोजना का निर्माण करते समय अतिरिक्त सावधानी बरती जानी चाहिए।
संजय गुप्त। उत्तराखंड में चार धाम परियोजना के तहत निर्माणाधीन सिलक्यारा सुरंग में भूस्खलन के कारण 17 दिनों से फंसे 41 श्रमिकों को सकुशल बाहर निकाल लेने से पूरे देश ने राहत की सांस ली। सर्वप्रथम तो इन श्रमिकों की प्रशंसा करनी होगी कि उन्होंने बेहद कठिन हालात का सामना करने के बाद भी अपना धैर्य बनाए रखा। अपनी मानसिक दृढ़ता के कारण ही वे अपना हौसला बुलंद रख सके। इन श्रमिकों को सुरक्षित निकालने वाले विभिन्न एजेंसियों के कर्मचारियों और अधिकारियों के साथ रैट माइनर्स की भी प्रशंसा करनी होगी, जब मशीनों के जरिये बचाव अभियान को आगे बढ़ाने में कठिनाई पेश आई और यह लगा कि सुरंग में फंसे श्रमिकों को निकालने में कई दिनों की देर हो सकती है, तब परंपरागत उपकरणों से खोदाई करने वाले श्रमिकों यानी रैट माइनर्स ने कुछ घंटो में कमाल कर दिखाया।
वे तेजी के साथ खोदाई करके सुरंग में फंसे श्रमिकों तक पहुंच गए। इससे यही पता चला कि कई बार जहां आधुनिक मशीनें काम नहीं करतीं, वहां परंपरागत तरीके कारगर साबित होते हैं। यह अच्छा हुआ कि इन रैट माइनर्स को भी पुरस्कृत करने का फैसला किया गया। चूंकि यह एक कठिन अभियान था, इसलिए उत्तराखंड सरकार के साथ केंद्र सरकार ने भी पूरी ताकत झोंक दी। इस अभियान में सेना समेत एक दर्जन से अधिक एजेंसिया शामिल थीं।
राहत और बचाव कार्य के लिए घटनास्थल पर केंद्र और राज्य सरकार के विभिन्न विभागों के कर्मचारियों के साथ आवश्यक उपकरणों और मशीनों को आनन-फानन भेजने में कोई कसर शेष नहीं छोड़ी गई। इस अभियान ने यह सिद्ध किया कि हमारी एजेंसियां तरह-तरह के हादसों में फंसे लोगों को राहत पहुंचाने और उन्हें बचाने में पहले से कहीं अधिक दक्ष हो गई हैं। ऐसा इसीलिए हुआ है, क्योंकि हाल के वर्षों में आपदा प्रबंधन तंत्र को सशक्त बनाया गया है।
भारत समेत दुनिया भर में विभिन्न निर्माण परियोजनाओं में सिलक्यारा सुरंग जैसी दुर्घटनाएं होती ही रहती हैं। कई बार ऐसी दुर्घटनाओं में श्रमिकों को अपनी जान से हाथ भी धोना पड़ता है। अपने देश में कभी फ्लाईओवर के निर्माण के दौरान हादसा हो जाता है तो कभी मेट्रो निर्माण के समय। यह भी किसी से छिपा नहीं कि कई बार निर्माणाधीन या फिर नए बने पुल अथवा फ्लाईओवर गिर जाते हैं। कुछ समय पहले ही गुजरात के मोरबी में एक सस्पेंशन ब्रिज यानी झूला पुल गिरने से 140 लोग मारे गए थे। यह पुल इसीलिए गिरा था, क्योंकि उसकी मरम्मत का काम सही तरीके से नहीं किया गया था। यह भी नहीं भूला जा सकता कि कुछ माह पहले बिहार के भागलपुर में एक निर्माणाधीन पुल दोबारा ढह गया था। इसमें कोई जनहानि तो नहीं हुई थी, लेकिन किसी निर्माणाधीन पुल का दो बार गिरना शर्मनाक था।
देश में निर्माणाधीन परियोजनाओं में छोटे-बड़े हादसे होते ही रहते हैं। ऐसा इसीलिए होता है, क्योंकि निर्माण कार्यों में तय मानकों का पालन नहीं किया जाता। निर्माण कार्यों में कभी डिजाइन में खामी पाई जाती है तो कभी इंजीनियरिंग में। निर्माण सामग्री की गुणवत्ता से समझौता किए जाने के कारण भी हादसे होते रहते हैं। पर्वतीय राज्यों की विभिन्न निर्माण परियोजनाओं में दुर्घटनाएं इसलिए अधिक होती हैं, क्योंकि वहां भूस्खलन के साथ चट्टानों के खिसकने की आशंका अधिक होती है। इसी कारण पर्वतीय क्षेत्रों में किसी भी परियोजना का निर्माण करते समय अतिरिक्त सावधानी बरती जानी चाहिए, लेकिन ऐसा होता नहीं दिखता।
बहुत दिन नहीं हुए, जब उत्तराखंड में ही जोशीमठ में जमीन धंसने और इमारतों के दरकने से वहां रह रहे लोगों को अन्यत्र बसाना पड़ा था। यह ठीक है कि सिलक्यारा सुरंग में हादसे के बाद सभी निर्माणाधीन सुरंगों की सुरक्षा की समीक्षा की जा रही है, लेकिन इस समीक्षा के साथ ही यह भी आवश्यक है कि विभिन्न परियोजनाओं की डिजाइन और इंजीनियरिंग पर भी नए सिरे से गौर किया जाए। इसी के साथ परियोजनाओं के निर्माण के दौरान श्रमिकों की सुरक्षा का अतिरिक्त ध्यान रखा जाए। अभी ऐसा नहीं हो रहा है।
आम तौर पर परियोजनाओं के निर्माण में श्रमिकों की सुरक्षा के लिए आवश्यक जो तौर-तरीके अपनाए जाने चाहिए, उनकी अनदेखी ही अधिक होती है। इन श्रमिकों को हादसों से बचाव का न तो कोई प्रशिक्षण दिया जाता है और न ही उन्हें आवश्यक सुरक्षा उपकरणों से लैस किया जाता है। चूंकि वे गरीब होते हैं इसलिए इसकी मांग भी नहीं कर पाते कि उनकी सुरक्षा के लिए समुचित उपाय किए जाएं। नतीजा यह है कि वे जान जोखिम में डालकर काम करते हैं। आवश्यक केवल यह नहीं है कि इन श्रमिकों की सुरक्षा के लिए जरूरी उपाय किए जाएं, बल्कि उनका बीमा भी किया जाए। वास्तव में परियोजनाओं का निर्माण करने वाली कंपनियों को इसके लिए बाध्य किया जाना चाहिए कि वे श्रमिकों की सुरक्षा को प्राथमिकता दें। इसमें लापरवाही बरतने वाली कंपनियों को दंडित किया जाना चाहिए। यह एक तथ्य है कि अभी निर्माण कार्यों के दौरान किसी श्रमिक की मौत होने पर संबंधित कंपनी उसके स्वजनों को मामूली मुआवजा देकर कर्तव्य की इतिश्री कर लेती है। कई बार तो यह मामूली मुआवजा भी नहीं मिलता।
इसमें संदेह नहीं कि भारत में आधारभूत ढांचे का निर्माण बहुत तेजी से हो रहा है, लेकिन यह नहीं कहा जा सकता कि वह विश्वसनीय, टिकाऊ और विश्वस्तरीय है। यही कारण है कि कभी नया बना एक्सप्रेसवे धंस जाता है या फिर पुल या प्लाईओवर में कोई खामी आ जाती है। ऐसा इस कारण होता है, क्योंकि इंजीनियरिंग के मानकों के साथ समझौता किया जाता है। निर्माण कार्यों में भ्रष्टाचार भी एक गंभीर समस्या है। इस भ्रष्टाचार के कारण ही दोयम दर्जे का निर्माण होता है और वह हादसों का कारण बनता है। यह जरूरी है कि जो सरकारी एजेंसियां निर्माण कार्यों की तकनीक, डिजाइन और गुणवत्ता आदि के मानक तय करती हैं, वे यह सुनिश्चित करें कि संबंधित कंपनियां इन मानकों पर खरी उतरें। निःसंदेह यह भी देखा जाना आवश्यक है कि निर्माण परियोजनाएं भविष्य की जरूरतों को पूरा करने में सहायक बनें। यह अपेक्षा इसलिए, क्योंकि कई परियोजनाएं समस्याओं का फौरी समाधान करने तक सीमित रहती हैं। इसी कारण एक ही क्षेत्र में रह-रहकर फ्लाईओवर, पुल या फिर बाईपास का निर्माण करने की जरूरत पैदा हो जाती है।
[लेखक दैनिक जागरण के प्रधान संपादक हैं]