प्रदीप भंडारी। प्रधानमंत्री मोदी लगातार तीसरी बार प्रधानमंत्री बनने जा रहे हैं। भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में यह एक विराट उपलब्धि है, लेकिन आम चुनाव के परिणाम में भाजपा के लिए अपेक्षा से कुछ कम सीटों ने विश्लेषण को एक नया विमर्श दिया है। भाजपा जहां जीतने के बाद भी चिंतन-मंथन की मुद्रा में है, वहीं विपक्ष हारकर भी उत्साहित दिख रहा है। जिस भाजपा के लिए अपने दम पर सामान्य बहुमत हासिल करना सहज लग रहा था, उसकी गाड़ी बहुमत के आंकड़े से पहले कैसे अटक गई? इस सवाल की पड़ताल करें तो कम से कम 70 ऐसी सीटें रहीं, जहां स्थानीय कारकों ने भाजपा के राजनीतिक समीकरण बिगाड़े। ये सीटें मुख्यतः उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, बंगाल, हरियाणा और राजस्थान की हैं।

राजनीतिक रूप से सबसे महत्वपूर्ण उत्तर प्रदेश में पिछले लोकसभा चुनाव में भाजपा को 49.5 प्रतिशत वोट मिले थे, जो इस बार 41.37 प्रतिशत रहे। इसी दौरान बसपा का वोट प्रतिशत भी 19 से घटकर 9 प्रतिशत रह गया, जिसका सीधा लाभ सपा को मिला और वह 34 प्रतिशत वोट ले गई। इन छिटके मतदाताओं ने अंबेडकर नगर, संत कबीर नगर, जौनपुर, बलिया और चंदौली जैसी सीटों पर सपा के लिए निर्णायक असर डाला। कुर्मी, कुशवाहा, निषाद और राजभर जैसी गैर-यादव ओबीसी जातियां भी सपा के पक्ष में लामबंद हुईं। कुछ सीटों पर ब्राह्मणों ने भी भाजपा के लिए कम मतदान किया।

पश्चिमी उत्तर प्रदेश की मुजफ्फरनगर और कैराना जैसी सीटों पर ठाकुर मतदाताओं ने भाजपा से मुंह तो नहीं मोड़ा, लेकिन पिछले चुनाव की तुलना में कम संख्या में बूथ तक पहुंचे। कुल मिलाकर उत्तर प्रदेश में स्थानीय कारक, जातिगत समीकरण और अधिकांश संख्या में पुराने उम्मीदवार उतारना भाजपा को भारी पड़ा। अग्निवीर योजना के चलते युवा भी उससे कुछ कट गए। सपा ने गैर-यादव पिछड़ों और दलितों को चतुराई के साथ टिकट बांटकर अपने राजनीतिक हित साधे। पार्टी ने 27 ओबीसी, 15 दलित और 11 सवर्णों को टिकट दिया।

बंगाल में ममता बनर्जी अपना राजनीतिक किला न केवल बचाने, बल्कि उसे और मजबूत बनाने में सफल हुईं।2018 के पंचायत चुनाव में उपजी हिंसा के बाद 2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा को यहां 40 प्रतिशत वोट मिले थे। भाजपा इस आंकड़े को बढ़ाने मे सफल नहीं रही, उलटे उसका मत प्रतिशत और घट गया। दूसरी ओर ममता विधानसभा चुनाव का अपना 45 प्रतिशत मत कायम रखने में कामयाब रहीं। संदेशखाली जैसे मुद्दे के बावजूद ममता को महिलाओं के 58 प्रतिशत वोट मिले। महिला केंद्रित योजनाओं का उन्हें लाभ मिला। ममता के खिलाफ जो कुछ आक्रोश था, उसे भाजपा अच्छे प्रत्याशियों के अभाव में भुना नहीं पाई। बैरकपुर सीट पर तृणमूल के टिकट से वंचित उम्मीदवार को भाजपा ने प्रत्याशी बना दिया, जो हार गया। आसनसोल, दुर्गापुर और मेदिनीपुर की स्थितियां भी अलग नहीं रहीं।

लगता है भाजपा ने विधानसभा चुनाव में मिली हार से सबक नहीं सीखा। विधानसभा हारे कई उम्मीदवारों को भाजपा ने लोकसभा का टिकट पकड़ा दिया। इससे मतदाताओं में भरोसा नहीं जगा और मोदी के पक्ष में बने माहौल का लाभ भाजपा उठाने से वंचित रह गई। वहीं, ममता ने सरकारी मशीनरी और प्रशासन के रणनीतिक उपयोग से सत्ता विरोधी रुझान को मात दी।

हरियाणा और राजस्थान में भाजपा ने पिछले चुनाव में शत प्रतिशत सफलता हासिल की थी, लेकिन इस बार यहां करीब आधी सीटें उसके हाथ से फिसल गईं। राजस्थान में नागौर, सीकर, झुंझनूं, चूरू और बाड़मेर में जाट मतदाताओं ने भाजपा के खिलाफ मोर्चाबंदी की। टोंक-सवाई माधोपुर और दौसा जैसी सीटों पर मीणा समुदाय का भाजपा से मोहभंग हुआ। राजस्थान में सरकार बनने के बाद कुछ वर्गों की अपेक्षाओं पर खरा न उतर पाने का खामियाजा भी उसे भुगतना पड़ा। भरतपुर, धौलपुर जैसी सीटों पर पार्टी के प्रतिबद्ध मतदाता भी उसका साथ छोड़ कांग्रेस के पाले में चले गए।

लगता है राज्य में मोदी फैक्टर के आगे उम्मीदवारों का चयन और जातिगत समीकरण भारी पड़े। राजस्थान में भाजपा का मत प्रतिशत 58.02 से घटकर 46.11 प्रतिशत रह गया। हरियाणा में रोहतक और सोनीपत में जाट भाजपा के खिलाफ लामबंद हुए। ग्रामीण क्षेत्रों में भी कांग्रेस के पक्ष में मतदान बढ़ा। सिरसा सीट पर दलित मतदाताओं ने कांग्रेस को प्राथमिकता दी। राज्य सरकार के प्रति सत्ता विरोधी रुझान की तपिश भी भाजपा को झेलनी पड़ी। मतदाताओं ने बता दिया कि भले ही पीएम के रूप में मोदी उनकी पहली पसंद हों, लेकिन उनकी आकांक्षाओं को हल्के में नहीं लिया जा सकता। यहां पिछले चुनाव में भाजपा को 58 प्रतिशत वोट मिले, जबकि इस चुनाव में 46.11 प्रतिशत।

48 लोकसभा सीटों वाले महाराष्ट्र में जहां पिछले चुनाव में भाजपा को 27.59 प्रतिशत वोट मिले, वहीं इस बार 26.18 प्रतिशत। कांग्रेस का वोट प्रतिशत लगभग स्थिर रहा, लेकिन उसकी सीटों की संख्या एक से बढ़कर 13 हो गई। यहां भी स्थानीय कारकों ने भाजपा की मुसीबतें बढ़ाने का काम किया। उद्धव ठाकरे और कांग्रेस के वोटों के पूरी तरह से हस्तांतरण की उम्मीद तो पहले से ही थी, लेकिन भाजपा मुंबई और विदर्भ में पिछले चुनाव जैसा करिश्मा नहीं दोहरा पाई। भाजपा को अपने सहयोगियों से भी आशातीत लाभ नहीं मिला।

राष्ट्रीय परिदृश्य की बात करें तो भाजपा का वोट प्रतिशत पिछले चुनाव के बराबर ही रहा। दक्षिण भारत में उसे कांग्रेस के मुकाबले अधिक मत मिले। कांग्रेस से सीधे मुकाबले में भी भाजपा का पलड़ा खासा भारी रहा। हालांकि प्रत्याशियों के चयन और उत्तर प्रदेश में सोशल इंजीनियरिंग के मोर्चे पर मिली मात ने भाजपा की सीटों की संख्या घटाने में अहम भूमिका निभाई। यदि उसके खिलाफ सत्ता विरोधी रुझान होता तो उसे पिछली बार के लगभग बराबर मत नहीं मिलते।

चुनाव परिणाम आने के बाद एक्जिट पोल्स को भी निशाने पर लिया गया, लेकिन ऐसा करने वाले जान लें कि इन सर्वेक्षणों में जनता की धारणा के अनुपात में ही आकलन प्रस्तुत किया जाता है। दुनिया भर में एक्जिट पोल कई बार सटीक साबित होते रहे हैं तो कभी कभार गलत भी। हालिया एक्जिट पोल्स ने दो धारणाओं को विशेष रूप से समाहित किया था। एक तो प्रधानमंत्री की लोकप्रियता कायम है और उनकी योजनाओं को व्यापक रूप से और विशेषकर महिलाओं द्वारा खासा सराहा जा रहा है। दूसरे, स्थानीय प्रत्याशियों के विरुद्ध आक्रोश के साथ महंगाई और बेरोजगारी जैसे मुद्दों पर भी गौर किया गया था।

(लेखक चुनाव विश्लेषक और ‘जन की बात’ संस्था के संस्थापक हैं)