राहुल वर्मा। पिछले साल हुए पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों के साथ ही लोकसभा चुनाव की उलटी गिनती शुरू हो गई थी। इन पांच में से हिंदी पट्टी के तीन राज्यों में जीत के बाद भाजपा के उत्साह में नई ऊर्जा का संचार हुआ। दूसरी ओर अपेक्षा के अनुरूप परिणाम न आने पर कांग्रेस और निस्तेज पड़ती गई। कांग्रेस को हिंदी पट्टी के कम से कम एक राज्य छत्तीसगढ़ में सत्ता वापसी की उम्मीद थी। मध्य प्रदेश में भी उसके लिए संभावनाएं बेहतर बताई जा रही थीं तो राजस्थान में वह बारी-बारी से सत्ता बदलने के रिवाज को पलटने के लिए प्रतिबद्ध दिख रही थी। नतीजे कांग्रेस की उम्मीदों के विपरीत आए और सफलता भाजपा के खाते में गई। उसके बाद से लोकसभा चुनाव को लेकर विमर्श पूरी तरह बदल गया। पहले से ही दिशाहीन दिख रही कांग्रेस को समझ नहीं आया कि राजनीतिक कायाकल्प के लिए वह कौनसी राह चुने? दूसरी ओर भाजपा ने अपने लिए और महत्वाकांक्षी राजनीतिक लक्ष्य तय कर लिए। भाजपा ने 370 से अधिक सीटें जीतने का लक्ष्य रखा है। ऐसा लगता है कि भाजपा का मुकाबला कांग्रेस से नहीं, बल्कि अपने आप से ही है, जिसने पिछले लोकसभा चुनाव में 303 सीटें हासिल की थीं।

कांग्रेस अभी तक 2014 और 2019 की हार से कुछ खास सबक नहीं सीख पाई है। इस बार केरल और तेलंगाना को छोड़कर कांग्रेस को किसी राज्य से कोई खास उम्मीद नहीं है। द्रमुक के सहारे तमिलनाडु में भी उसे कुछ सीटें मिल सकती हैं। बाकी जगह कांग्रेस की संभावनाएं बहुत अच्छी नहीं दिखती हैं। चूंकि कांग्रेस के लिए भाजपा को अकेले दम पर चुनौती देना संभव नहीं दिख रहा था, इसलिए पार्टी ने आइएनडीआइए के माध्यम से विपक्षी दलों का मोर्चा बनाकर राजनीतिक लड़ाई आगे बढ़ाने का फैसला किया। आइएनडीआइए का गठन जितने जोर-शोर से हुआ, उसे मजबूत बनाने के लिए जमीनी स्तर पर उतना काम नहीं हुआ। इस कारण कुछ ही समय में घटक दलों का मोहभंग होता गया। आइएनडीआइए के गठन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार अब इससे अलग होकर वापस भाजपा के नेतृत्व वाले राजग का हिस्सा बन गए हैं। उत्तर प्रदेश में राष्ट्रीय लोकदल भी आइएनडीआइए से अलग हो गया। बंगाल में ममता बनर्जी केवल वैचारिक धरातल पर तो एकजुटता दिखा रही हैं, लेकिन सीटों के मामले में बिल्कुल दरियादिली नहीं दिखा रहीं। तृणमूल कांग्रेस ने राज्य की सभी 42 सीटों पर चुनाव लड़ने का एलान कर दिया है। हालांकि कांग्रेस को अभी भी उम्मीद है कि सीटों की साझेदारी पर उसकी तृणमूल से बात बन सकती है। दिल्ली में जरूर कांग्रेस का आम आदमी पार्टी यानी आप के साथ गठबंधन की खबर है, जिसके अनुसार कांग्रेस सात में से तीन सीटों पर लड़ेगी। जबकि पिछले लोकसभा चुनाव में पांच सीटों पर कांग्रेस प्रत्याशी दूसरे स्थान पर रहे थे। ये दोनों दल पंजाब में अलग-अलग चुनाव लड़ेंगे, जबकि यहां कांग्रेस को गठबंधन करने से ज्यादा फायदा होता। उत्तर प्रदेश में सपा ने कांग्रेस को केवल 17 सीटें दी हैं, जबकि पूर्व में गठबंधन का हिस्सा रही और केवल पश्चिमी उत्तर प्रदेश में प्रभाव रखने वाली राष्ट्रीय लोकदल को उसने सात सीटों की पेशकश की थी। सपा ने कांग्रेस को जो 17 सीटें दी हैं, उनमें से अधिकांश भाजपा की पारंपरिक सीटें हैं, जहां जीतने के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगाना पड़ेगा। उत्तर प्रदेश के बाद सबसे अधिक 48 सीटों वाले महाराष्ट्र में भी अपने घटकों के साथ कांग्रेस का अब तक कोई समझौता नहीं हो पाया है। यह तब है जब दो-तीन हफ्तों के भीतर चुनावों की घोषणा हो सकती है।

जब कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व को वार-रूम में जुटकर चुनावी तैयारियों को अंतिम रूप देना चाहिए था, तब वह ऐसी यात्रा में जुटा है जिसके इस चुनाव में शायद ही कोई अपेक्षित परिणाम निकल पाएं। पार्टी ने राहुल गांधी की जिस भारत जोड़ो न्याय यात्रा पर अपना समय, ऊर्जा और संसाधन झोंक रखे हैं, उसकी तैयारी भी ठीक से नहीं की गई। यात्रा के संचालकों को यह समझ नहीं आ रहा कि किस राज्य में कितना समय देना उचित होगा? कतिपय कारणों से यात्रा के बीच-बीच में रुकने से जो प्रभाव बनता भी है, वह भी हवा हो जाता है। यह बात भले ही गांधी परिवार और उनके करीबियों को न समझ आ रही हो, लेकिन अन्य नेता जरूर समझ रहे हैं। शायद इसी कारण एक के बाद एक दिग्गजों का कांग्रेस से मोहभंग होता जा रहा है। पार्टी से किनारा करने वाले नेताओं में हर तरह के नेता हैं। इनमें इंदिरा गांधी, राजीव गांधी-सोनिया गांधी और राहुल जैसी तीन पीढ़ियों के साथ काम करने वाले गुलाम नबी आजाद भी हैं, तो मिलिंद देवड़ा जैसे वे नेता भी, जिनकी राहुल गांधी से खासी घनिष्ठता एवं आत्मीयता रही। अशोक चव्हाण जैसे क्षत्रप ने भी कांग्रेस को अलविदा कहना उचित समझा, जो प्रचंड मोदी-लहर के बीच भी नांदेड़ का अपना राजनीतिक किला बचाने में सफल रहे थे। ज्योतिरादित्य सिंधिया तो पहले ही कांग्रेस छोड़ चुके थे। बीते दिनों मध्य प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री कमलनाथ के भी भाजपा से जुड़ने की अटकलें चरम पर थीं। कांग्रेस नेताओं को अपने साथ जोड़ने से भाजपा को पता नहीं कितना राजनीतिक लाभ होगा, लेकिन यह संदेश जाने से उसे मनोवैज्ञानिक बढ़त अवश्य मिल जाती है कि कांग्रेस में अब कांग्रेसियों को ही अपना कोई भविष्य नहीं दिख रहा। एके एंटनी जैसे दिग्गज के बेटे अनिल एंटनी भाजपा के साथ जा चुके हैं, जबकि एंटनी परिवार जिस केरल राज्य से आता है, वहां भाजपा का आधार भी बहुत सीमित है।

कुछ जानकार कह रहे हैं कि राहुल गांधी अपेक्षाकृत युवा हैं तो संभव है कि उनकी दृष्टि आगामी लोकसभा चुनाव पर न होकर 2029 के लोकसभा चुनाव पर हो, लेकिन राजनीति में पांच साल एक बड़ी लंबी अवधि होती है। जहां कुछ दिनों में ही पूरी कहानी पलट जाती हो, वहां पांच साल के भरोसे रहना विवेकसम्मत नहीं कहा जा सकता। क्या लगातार तीसरा चुनाव हारने के बाद कांग्रेस के पास ऐसा सांगठनिक ढांचा, संसाधन और ऊर्जा बची रहेगी, जो निरंतर मजबूत हो रही भाजपा का मुकाबला कर सके? इस प्रकार देखें तो आगामी आम चुनाव कांग्रेस का भाग्य तय करने में अहम भूमिका निभाने जा रहा है।

(लेखक राजनीतिक विश्लेषक एवं सेंटर फार पालिसी रिसर्च में फेलो हैं)