डा. ऋतु सारस्वत। बांबे हाई कोर्ट ने रमेश सीतलदास दलाल तथा अन्य बनाम महाराष्ट्र राज्य एवं अन्य के मामले में बीते दिनों कहा कि ‘छोटे-मोटे झगड़े भारतीय दंड संहिता की धारा 498 ए के तहत क्रूरता नहीं हैं।’ न्यायमूर्ति अनुजा प्रभुदेसाई और एमआर बोरकर की खंडपीठ ने पुलिस के पक्षपातपूर्ण रवैये को लेकर यह कठोर प्रतिक्रिया भी दी कि ‘किसी निर्दोष व्यक्ति को आरोपमुक्त होने के लिए अदालत का दरवाजा खटखटाने हेतु विवश करना और उसकी प्रतिष्ठा खराब करने के साथ उसे मानसिक आघात पहुंचाना उसकी व्यक्तिगत स्वतंत्रता को खतरे में डाल देता है।’

इस निर्णय से पूर्व झारखंड उच्च न्यायालय ने धारा 498 ए के दुरुपयोग पर टिप्पणी करते हुए कहा था कि ‘असंतुष्ट पत्नियां आइपीसी की इस धारा का उपयोग ढाल के बजाय एक हथियार के रूप में कर रही हैं।’ देश की विभिन्न अदालतें महिला सुरक्षा के लिए बने कानूनों के दुरुपयोग पर निरंतर चिंता जाहिर कर रही हैं, परंतु बावजूद इसके ऐसे कानूनों के गलत इस्तेमाल का सिलसिला कायम है। इस घातक प्रवृत्ति का बढ़ना कई प्रश्नों को खड़ा करता है। अदालतों की चेतावनी के बाद भी कुछ महिलाओं द्वारा कानूनों का दुरुपयोग उस मानसिकता की परिणति है जिसे ‘छद्म नारीवाद’ कहते हैं। नारीवाद का यह स्वरूप साम-दाम-दंड-भेद की नीति में विश्वास रखता है और जिसका उद्देश्य अंततोगत्वा ‘प्रभुत्व’ प्राप्ति है।

‘नारीवाद’ का प्रथम अध्याय महिला सशक्तीकरण से आरंभ हुआ था, जो किसी भी सामाजिक व्यवस्था के सुचारु विकास और संतुलन के लिए बेहद जरूरी भी था, क्योंकि तत्कालीन समय में विभिन्न कारणों के चलते दुनिया भर में महिलाएं हाशिए पर धकेल दी गई थीं और वे अपनी सामाजिक-सांस्कृतिक पृष्ठभूमि की खामियों से लड़ रही थीं। इस कालावधि में भारत में दहेज प्रथा एक बड़ी चुनौती बन चुकी थी, जिससे निपटने के लिए दहेज प्रतिषेध अधिनियम, 1961 पारित हुआ।

समय परिवर्तित हुआ और लड़कियां पहले की अपेक्षाकृत मुखर, शिक्षित, सजग एवं अपने अधिकारों के प्रति जागृत हुईं। इसी बीच छद्म नारीवाद ने भारत में घुसपैठ की। इस विचारधारा ने ‘प्रभुत्व’ पर जोर दिया। नतीजतन, विवाह प्रभुत्व प्राप्ति का पर्याय बन गया और उसमें शस्त्र बने महिला सुरक्षा संबंधी कानून। कुछ समय पहले मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय ने कहा था कि ‘आजकल आइपीसी, हिंदू विवाह अधिनियम और घरेलू हिंसा से महिलाओं की सुरक्षा संबंधी अधिनियम, 2005 के तहत परिवार न्यायालय और अदालतों में पति एवं परिवार के सदस्यों के खिलाफ पांच मामलों का एक पैकेज दायर किया जा रहा है।’

वास्तव में यह कटु सत्य है कि कुछ महिलाएं अपने अधिकारों के नाम पर निर्दोषों को जेल पहुंचा रही हैं। उनके हौसले इसलिए बुलंद हैं, क्योंकि वे भलीभांति जानती हैं कि उनके कहने भर से पुलिस और अन्य लोग पुरुष को अपराधी घोषित कर देंगे। वे यह भी जानती हैं कि जब तक न्यायालय से पुरुष को न्याय मिलेगा, तब तक उसका आत्मबल टूट चुका होगा और यह उनकी जीत होगी। पुलिस, आमजन और यहां तक कि मीडिया के भी एकतरफा सोच ने पुरुषों की खलनायक छवि को इस तरह गढ़ा है कि उनकी आवाज सुनने वाला कोई नहीं है। सत्य सिद्ध होने से पहले ही पुरुष को अपराधी मान लेना उन्हें आतंकित और भयभीत किए हुए है।

‘सुशील कुमार शर्मा बनाम भारत संघ एवं अन्य’ के मामले में उच्चतम न्यायालय ने कहा था कि ‘धारा 498 ए का उद्देश्य दहेज प्रथा की रोकथाम है, लेकिन ऐसे कई उदाहरण हैं जहां शिकायतें वास्तविक नहीं थीं और गलत इरादे से दायर की गई थीं। ऐसे मामलों में अभियुक्तों को बरी कर देने से मुकदमे के दौरान तथा उससे पहले झेली गई बदनामी दूर नहीं हो जाती। कभी-कभी प्रतिकूल मीडिया कवरेज दुख को बढ़ा देता है।’

बदनामी, सामाजिक तिरस्कार और असहनीय पीड़ा उन पुरुषों तथा उनके परिवारों के सदस्यों के जीवन में स्वत: ही आ जाती है, जहां प्रतिशोध की मानसिकता के चलते महिलाओं द्वारा हथियार के रूप में कानून का इस्तेमाल होता है। वर्षों पहले नोएडा की एक युवती कथित तौर पर दहेज मांगे जाने पर भरे मंडप से शादी से इन्कार करके मीडिया में छा गई थी। उसकी बात को संपूर्ण सत्य मान लिया गया। उसके द्वारा लिखी गई झूठी पटकथा ने उस व्यक्ति का जीवन तहस-नहस कर दिया, जिससे उसकी शादी होने वाली थी। जब कोर्ट का फैसला आया तो तस्वीर बिल्कुल उलट थी। नायिका बन चुकी युवती के संबंध में कोर्ट ने दहेज के आरोपों को बनावटी कहानी ठहराया।

क्या यह जरूरी नहीं कि मीडिया, प्रशासन, पुलिस तथा समाज स्त्री के कथन को ‘अंतिम सत्य’ मानने की मानसिकता से बाहर निकलें। यह सर्वविदित सत्य है कि समाज स्थिर नहीं है। जब ऐसा है तो समाज एवं उसकी व्यवस्था को संचालित करने वाले वैधानिक नियम स्थिर क्यों हैं? क्या उनमें परिवर्तन आवश्यक नहीं? 2005 में अपने निर्णय में शीर्ष अदालत ने कहा था कि ‘किसी कानून के प्रविधान व्यक्तिगत प्रतिशोध लेने या उत्पीड़न करने का लाइसेंस नहीं देते, अतः विधायिका के लिए यह आवश्यक हो जाता है कि वह ऐसे तरीकों का पता लगाए कि कैसे तुच्छ शिकायतों या आरोपों से उचित तरीके से निपटा जा सके।’

इस टिप्पणी के बाद भी झूठे मामलों में फंसाए गए निर्दोष पुरुष अदालतों के दरवाजे खटखटाने के लिए विवश हैं। पुरुषों के प्रति दुर्भावना की मानसिकता युवाओं को विवाह संस्था से दूर ले जा रही है। इस पर गंभीरता से विचार किया जाना चाहिए कि क्या यह प्रवृत्ति समाज के लिए विध्वंसक सिद्ध नहीं होगी?

(लेखिका समाजशास्त्री हैं)