Boycott On Internet Media: इंटरनेट मीडिया पर बहिष्कार के मकड़जाल में उलझा बालीवुड, नहीं दिख रहा कोई रास्ता
Boycott On Internet Media जानकारी के अनुसार फिल्म सम्राट पृथ्वीराज की लागत तीन सौ करोड़ रुपए थी और उसने बाक्स आफिस पर तिरानवे करोड़ रुपए का बिजनेस किया। शमशेरा के निर्माण की लागत डेढ सौ करोड़ रुपए थी और इस फिल्म ने भी चौंसठ करोड़ रुपए का बिजनेस किया।
नई दिल्ली [अनंत विजय]। Boycott On Internet Media: इन दिनों कुछ फिल्मों के बहिष्कार को लेकर खूब चर्चा हो रही है। इंटटरनेट मीडिया के विभिन्न प्लेटफार्म पर फिल्मों के बायकाट को लेकर पक्ष विपक्ष में हलचल दिखती है। अभिनेता आमिर खान की फिल्म लाल सिंह चड्ढा की रिलीज के पहले से उसके बायकाट की अपील जारी होने लगी थी। फिल्म रिलीज हुई और फ्लाप हो गई।
इसी तरह से अक्षय कुमार की फिल्म रक्षाबंधन को लेकर भी बायकाट की अपील इंटरनेट मीडिया पर हुई। ये फिल्म भी फ्लाप हो गई। हम इन फिल्मों के बायकाट और इनके फ्लाप होने पर बात करेंगे लेकिन उसके पहले देख लेते हैं कि और कौन सी बड़ी बजट की फिल्में फ्लाप हुईं। यशराज फिल्म्स की दो बेहद महात्वाकांक्षी फिल्म आई, सम्राट पृथ्वीराज और शमशेरा। दोनों फिल्मों ने बाक्स आफिस पर अपेक्षित प्रदर्शन नहीं किया।
उपलब्ध जानकारी के अनुसार फिल्म सम्राट पृथ्वीराज की लागत तीन सौ करोड़ रुपए थी और उसने बाक्स आफिस पर तिरानवे करोड़ रुपए का बिजनेस किया। इसी तरह से शमशेरा के निर्माण की लागत डेढ सौ करोड़ रुपए थी और इस फिल्म ने भी चौंसठ करोड़ रुपए का बिजनेस किया।
अक्षय कुमार अभिनीत फिल्म बच्चन पांडे को बनाने में एक सौ अस्सी करोड़ रुपए खर्च हुए और बाक्स आफिस बिजनेस तेहत्तर करोड़ का रहा। बच्चन पांड को लेकर कहा गया था कि वो ‘द कश्मीर फाइल्स’ की वजह से पिट गई थी। खुद अक्षय कुमार ने भी भोपाल में चित्र भारती के मंच से ऐसा ही कहा था।
सम्राट पृथ्वीराज और शमशेरा के खिलाफ न तो कोई बायकाट की अपील थी और न ही कोई हैशटैग चला था। बायकाट की अपील होती क्यों हैं इसके पीछे के कारणों को देखना चाहिए।
आज से करीब दो दशक पहले गुजरात में सांप्रदायिक दंगे हुए थे। उसके बाद अभिनेता आमिर खान ने एक साक्षात्कार दिया था। उस साक्षात्कार में उन्होंने उस वक्त के गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी पर जमकर आरोप लगाए थे। गुजरात में हुई हिंसा में मरने वालों के लिए नरेन्द्र मोदी को उत्तरदायी माना था। उसी साक्षात्कार में आमिर खान ने नरेन्द्र मोदी को अमेरिका का वीजा नहीं मिलने का उपहास भी उड़ाया था।
2006 में आमिर खान मेधा पाटकर के साथ नर्मदा बचाओ आंदोलन में शामिल हुए थे और उस वक्त की गुजरात सरकार के विरोध में जमकर बयानबाजी की थी। 2015 में जब गजेन्द्र चौहान को पुणे के भारतीय फिल्म और टेलीविजन संस्थान का चेयरमैन नियुक्त किया गया था तो छात्रों ने उसका विरोध किया था। आंदोलन भी हुआ था। उस समय भी आमिर खान मुखर हुए थे और आंदोलनकारी छात्रों का समर्थन किया था।
2015 में ही जब पुरस्कार वापसी अभियान चल रहा था तब भी आमिर खान ने देश में असहिष्णुता का राग अलापा था। उस वक्त की अपनी पत्नी किरण राव से एक बातचीत का हवाला दिया था और कहा था कि वो देश के माहौल से डरकर देश छोड़ने की बात करती है। आमिर खान के इन बयानों से स्पष्ट है कि वो राजनीति में एक पक्ष विशेष का विरोध कर रहे थे और परोक्ष रूप से एक पक्ष का समर्थन कर रहे थे।
जब आप राजनीतिक होना चाहते हैं तो विरोध के लिए भी तैयार रहना चाहिए। ये संभव नहीं कि जब आपकी फिल्म आए तो लोग राजनीतिक समरत् या विरोध को भुलाकर फिल्म देखने चले जाएं। आपकी फिल्म को सफल बनाएं। आप जिस पक्ष का विरोध कर रहे थे उनको भी तो आपके विरोध का अधिकार है। उसी अधिकार की परिणति है बहिष्कार की अपील। बायकाट का हैशटैग।
आमिर खान या तमाम वो अभिनेता जो राजनीतिक टिप्पणियां करते रहे हैं उनके खिलाफ अगर बायकाट की अपील होती है तो इससे उनको परेशान नहीं होना चाहिए। राजनीति में तो वार पलटवार होते ही रहते हैं। दीपिका पादुकोण भी जब अपनी फिल्म छपाक के रिलीज के पहले दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू युनिवर्सिटी के छात्रों के प्रदर्शन में गई थीं तो उसका नकारात्मक प्रभाव फिल्म के कारोबार पर पड़ा था।
अभी एक और फिल्म रिलीज हुई दोबारा, जिसमें अभिनेत्री तापसी पन्नू हैं। पिछले दिनों तापसी पन्नू और उस फिल्म के निर्देशक का एक वीडियो वायरल हुआ था जिसमें वो फिल्मों के बायकाट के ट्रेंड का मजाक बना रही थीं। उनका निर्देशक भी राजनीतिक बातें कर रहा था। वो पहले भी नेताओं को लेकर अपमानजनक और घटिया बातें करता रहा है। उनको गंभीरता से कोई लेता नहीं।
तापसी की इस फिल्म को लेकर भी बायकाट दोबारा ट्विटर पर ट्रेंड हुआ। फिल्म पहले दिन सिर्फ 72 लाख का कारोबार कर पाई। कई शोज रद्द करने पड़े। थिएटरों में सन्नाटा रहा। इस फिल्म की लागत भी करीब तीस करोड़ रुपए है। अब तापसी पन्नू और उसके निर्देशक को समझ में आ रहा होगा कि ये बहिष्कार की अपील का मजाक उड़ाना उनको कितना महंगा पड़ा।
हो सकता है कि इन अभिनेताओं, अभिनेत्रियों और निर्देशकों को फिल्मों के फ्लाप होने पर धनहानि न होती हो क्योंकि पैसा तो निर्माता का लगता है। ये लोग फिल्म पूरी करके अपना मेहनताना लेकर निकल लेते हैं। लेकिन इनको ये सोचना होगा कि इसका प्रभाव उनके करियर पर पड़ सकता है।
बहिष्कार को लेकर एक बात और कही जाती है कि इंटरनेट मीडिया के जमाने में ये नया ट्रेंड आरंभ हुआ है। इंटरनेट मीडिया प्लेटफार्म पर भले ही बहिष्कार नया लगता हो लेकिन हमारे देश में तो बहिष्कार की अपील स्वाधीनता पूर्व से होती रही है। गांधी जी ने भी अपने लक्ष्य की पूर्ति के लिए बहिष्कार की अपील को अपना हथियार बनाया था।
इमरजेंसी के दौर में भी लोगों ने बहिष्कार की अपील की थी। पिछले दिनों जगदीशचंद्र माथुर का नाटक कोणार्क पढ़ रहा था। इस पुस्तक में मई 1961 में लिखी माथुर साहब की एक टिप्पणी है, ‘यों तो इस नाटक के विषय में मुझे अनेक रोचक अनुभव हुए, किंतु सबसे दिलचस्प अनुभव हुआ दिल्ली के अंग्रेजी समाचारपत्रों में इस नाटक के अभिनय की समालोचना पढ़कर।
उनमें से एक समालोचक महोदय (अथवा महोदया!) ने लिखा कि इस नाटक की भाषा इतनी दुरूह है कि इस नाटक का बहिष्कार होना चाहिए, क्योंकि लेखक ने यह नाटक संस्कृतमयी हिंदी का प्रचार करने के लिए लिखा है।‘ इससे स्पष्ट है कि रंगमंच की दुनिया में 1961 में बहिष्कार की अपील की गई थी। ये अलग बात है कि उस समय इंटरनेट मीडिया नहीं था। तो जो लोग इसको नया ट्रेंड बता रहे हैं उनको इतिहास में जाने और समझने की आवश्यकता है।
एक और बात है जो बायकाट ट्रेंड के साथ सामने आ रही है। पहले फिल्मों का जब विरोध होता था तो सिनेमा हाल के पोस्टर फाड़े जाते थे, कई बार उनमें आग भी लगा दी जाती थी। विरोध प्रदर्शन जब उग्र होता था तो शहरों में भी प्रदर्शन आदि होते थे। ज्यादा दिन नहीं बीते हैं जब फिल्म पद्मावत को लेकर कई शहरों में विरोध प्रदर्शन और आगजनी हुई थी।
अब इस तरह के प्रदर्शन लगभग बंद हो गए हैं और इंटरनेट मीडिया पर विरोध होता है। क्या इसको भारतीय समाज के मैच्योर होने के संकेत के तौर पर देखा जाना चाहिए। हिंसा और आगजनी वाले विरोध प्रदर्शन से अलग विरोध का एक ऐसा तंत्र जिसमें अपनी बात भी पहुंच जाए और सार्वजनिक संपत्ति का नुकसान भी न हो।
पुलिस और अन्य तंत्र का समय भी खराब न हो। फिल्मों के फ्लाप होने की एकमात्र वजह बायकाट नहीं है। उसपर एक अलग लेख लिखा जा सकता है कि इन दिनों बड़े बजट की अधिकतर हिंदी फिल्में क्यों पिट रही हैं। क्यों वो अपनी लागत तक नहीं निकाल पा रही हैं। लेकिन बायकाट के इस खेल में हिंदी फिल्म इंडस्ट्री उलझ गई है और उसको फिलहाल कोई रास्ता दिख नहीं रहा है।