डा. ऋतु सारस्वत। मम्मी-पापा सारी, आइ एम लूजर।… मैं जेईई नहीं कर पाई। इसलिए सुसाइड कर रही हूं। यही लास्ट आप्शन है।’ इन पंक्तियों के साथ न जाने कितनी पीड़ा लेकर पिछले दिनों एक बच्ची निहारिका ने अपना जीवन खत्म कर लिया। वह कोटा में रहकर एक कोचिंग सेंटर में प्रतियोगी परीक्षा की तैयारी कर रही थी। कोटा में बीते सप्ताह आत्महत्या की यह दूसरी घटना है। इससे पहले नीट की तैयारी कर रहे मोहम्मद जैद ने आत्महत्या कर ली थी।

ऐसा सिर्फ कोटा में ही नहीं हो रहा है। ऐसे हादसे पूरे भारत या कहें विश्व में घटित हो रहे हैं और हम किंकर्तव्यविमूढ़ बने ये सब घटित होते हुए देख रहे हैं। क्या इसके लिए पूरा समाज जिम्मेदार नहीं है? या फिर हम घोर स्वार्थी हो इसे बच्चों की मानसिक कमजोरी मानकर अपनी जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ रहे हैं। घर के भीतर और बाहर अनकहे दर्द से भरी तमाम आंखें हमारी ओर देख रही हैं, पर हम अपनी आकांक्षाओं के आगे बच्चों की उस पीड़ा को अल्पकालिक समझ उन पर निरंतर दबाव बनाए जा रहे हैं।

जब अभिभावक और समाज बच्चों के जीवन की कीमत पर अपनी महत्वाकांक्षाओं के घोड़े दौड़ा रहा हो तो समझ लेना चाहिए कि यह सामाजिक-सांस्कृतिक विध्वंस की पराकाष्ठा है। यह एक ऐसा गंभीर विषय है जिस पर विस्तृत चर्चा बेहद जरूरी है, परंतु यह हमारे शोध विषयों से गायब है।

आज यह जानना-समझना बेहद जरूरी है कि ऐसा क्या हुआ है कि विगत एक दशक में युवाओं की आत्महत्या में निरंतर वृद्धि हो रही है। एनसीआरबी की ताजा रिपोर्ट बताती है कि भारत में पिछले एक दशक में आत्महत्या करने वाले छात्रों की संख्या में सत्तर प्रतिशत की वृद्धि हुई है। वहीं अमेरिका में पिछले दो दशकों में युवाओं में आत्महत्या की दर में 62 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई है। अमूमन सभी देश युवा आत्महत्या के संदर्भ में एक ही पायदान पर खड़े दिखाई दे रहे हैं।

हाल में ‘एनल्स आफ पीडियाट्रिक्स एंड चाइल्ड हेल्थ’ में एक शोध प्रकाशित हुआ, जिसमें बच्चों के मानसिक स्वास्थ्य के बारे में गंभीर प्रश्न उठाए गए हैं। इसमें वर्षों तक बच्चों के भीतर पनप रहे अवसाद, चिंता और आत्मघाती विचारों और व्यवहारों की तीव्रता के संबंध में गहन अध्ययन किया गया है। लास एंजिलिस स्थित कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय की मनोचिकित्सक प्रोफेसर जोसेलीन मेजा कहती हैं कि ‘हम व्यक्तिगत स्तर पर लक्षणों को कम करने पर बहुत ध्यान केंद्रित करते हैं, लेकिन उन कारणों की अवहेलना कर रहे हैं, जो कि प्रणालीगत हैं। हम वास्तव में सामाजिक संरचनाओं की अनदेखी कर रहे हैं।’

यह एक महत्वपूर्ण तथ्य है कि आत्महत्या जिसे हम अमूमन ‘व्यक्तिगत क्रिया’ मानकर विश्लेषित करते हैं वह एक ‘सामाजिक क्रिया’ है। समाजशास्त्री एमिल दुर्खीम ने भी अपनी पुस्तक ‘सुसाइड’ में इस विषय पर गहन शोध के पश्चात यह स्पष्ट किया है कि सामाजिक तानाबाना तथा परिस्थितियां किसी भी व्यक्ति को आत्महत्या करने के लिए विवश करती हैं।

अगर इस दृष्टिकोण को केंद्र में रखकर बच्चों के जीवन को करीब से देखा जाए तो कुछ तथ्य स्पष्ट दिखाई देते हैं, जैसे-बच्चे तनाव और अवसाद में हैं। अवसाद कोई बाहरी तत्व नहीं है। यह आंतरिक रूप से शुरू होता है और इसकी जड़ में घोर अकेलापन, लक्ष्यों के प्रति भ्रम और सामाजिक दबाव हैं। बच्चों के भीतर पल रहे अवसाद का केंद्र मूलत: ‘उपलब्धि संस्कृति’ है, जो इतनी विषाक्त हो चुकी है कि वह बच्चों को एक मशीनी-संरचना से अधिक कुछ नहीं समझती।

उपलब्धि वाली संस्कृति उन पर ‘सर्वश्रेष्ठ’ होने का दबाव बनाती है। यह उन पर प्रतिस्पर्धी दौड़ में सम्मिलित होने के लिए दबाव बनाती है, जहां जीवन से कहीं अधिक महत्वपूर्ण ‘सफलता’ है। बच्चों के जीवन की प्रत्येक दिन की गणितीय गणना जिस प्रकार से अभिभावक करते हैं वहां बच्चों के लिए सांस लेने की भी जगह दिखाई नहीं देती। सर्वोच्च उपलब्धि हासिल करने का दबाव बच्चों के संगी-साथी सभी को अलग कर देता है। परिवार और समाज से प्राप्त इस संदेश को बच्चे आत्मसात कर रहे हैं कि उनकी ‘उपलब्धियों’ के अलावा उनका कोई ‘मूल्य’ नहीं है।

अभिभावक ही क्यों, संपूर्ण संस्कृति अलग-अलग स्तरों पर एक दबाव समूह की तरह कार्य कर रही है। ‘नेवर इनफ:व्हेन अचीवमेंट कल्चर बिकम्स टाक्सिक-एंड व्हाट वी कैन डू अबाउट इट’ नामक पुस्तक में परिवार, शिक्षकों के साथ-साथ लगभग छह हजार से अधिक माता-पिता से साक्षात्कार के बाद उन तथ्यों को उजागर किया गया है, जिनसे परिचित होना जरूरी हो जाता है। पुस्तक की लेखिका जेनिफर ब्रेहेनी वालेस के अनुसार, ‘लगातार अच्छा प्रदर्शन करने का दबाव बच्चों के मानसिक स्वास्थ्य पर घातक प्रभाव डालता है। उच्च प्रदर्शन का दबाव सिर्फ माता-पिता का मसला नहीं है, अपितु प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से यह दबाव समाज का बनाया हुआ है।’

सबसे दुखद यह है कि व्यवस्थाओं को कोसते अभिभावक यह भूल जाते हैं कि हर बच्चा स्वयं में विशेष है और उसकी अपनी कुछ विशिष्टताएं हैं। यह भी विस्मृत करने योग्य नहीं है कि सफलता खुशी का मापदंड नहीं है। अगर ऐसा होता तो सफल होने का एक तथाकथित मापदंड ‘आइआइटी’ अपने 33 विद्यार्थियों की पिछले पांच वर्षों में आत्महत्या का साक्षी नहीं बनता। अगर ‘धन’ वास्तव में संतुष्टि और सफलता का मापदंड होता तो कैलिफोर्निया के पालो आल्टो में युवा आत्महत्या दर राष्ट्रीय स्तर की तुलना में चार गुना अधिक नहीं होती, जहां औसत घरेलू आय दो लाख डालर है। अभी भी समय है कि समाज और अभिभावक अवलोकन करें कि सर्वश्रेष्ठता की जो परिभाषा वे आत्मसात किए बैठे हैं, कहीं वही उनकी सबसे बड़ी असफलता तो नहीं।

(लेखिका समाजशास्त्र की प्रोफेसर हैं)